बीते दो सप्ताहों ने तीन बातों को साफ कर दिया है. पहली तो यह कि अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ रही है. जुलाई-सितंबर की तिमाही के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उम्मीद से कम वृद्धि के जो आंकड़े जारी हुए हैं उसके बाद अधिकतर विश्लेषकों ने भविष्यवाणी शुरू कर दी है कि पूरे साल के लिए अनुमानित जीडीपी वृद्धि दर नीची ही रहेगी. कुछ लोग तो 7 प्रतिशत से भी कम वृद्धि दर का अनुमान लगा रहे हैं. वैसे, उत्साहवर्धक संकेत यह है कि अब तक सुस्त पड़ा निवेश अब रफ़्तार पकड़ रहा है. लेकिन इस पर उपभोक्ता व्यय में मंदी का काला साया पड़ रहा है. रिजर्व बैंक को इसका अहसास है, फिर भी वह कह रहा है की वार्षिक वृद्धि दर 7.4 प्रतिशत रहेगी. इसका मतलब यह है कि दूसरी छमाही में वृद्धि दर 7.2 प्रतिशत रहेगी. यानी यह 2014 में रही असंतोषजनक दर से कोई बेहतर नहीं होगी.
दूसरी बात यह कि मुद्रास्फीति दर में उम्मीद से ज्यादा तेज गिरावट आई है. रिजर्व बैंक ने 4 प्रतिशत मुद्रास्फीति का लक्ष्य रखा है. चालू दर पिछले तीन महीनों में इससे नीची रही है. इसके सबसे ताजा आंकड़े अक्तूबर महीने के हैं और यह 3.3 प्रतिशत है. कृषि कीमतों की वृद्धि दर इससे भी नीची है. कृषि व्यापार के संदर्भ में देखें तो जीडीपी के तिमाही आंकड़ों में तेज गिरावट दिखती है. इससे साफ हो जाता है कि कई राज्यों में किसान इतने परेशान क्यों हैं, जबकि ग्रामीण मजदूरी में कमी के कारण ग्रामीण मांग में गिरावट आई है.
और तीसरी बात यह है कि पूरे साल के लिए बजट घाटे का लक्ष्य अक्तूबर के अंत तक पार कर लिया गया. सरकार का दावा है कि इसे पूरे साल के लिए जीडीपी के 3.3 प्रतिशत के दायरे में रखने का लक्ष्य (पिछले दो साल में यह 3.5 प्रतिशत से नीचे आया है) हासिल किया जाएगा. लेकिन यह संभावना बढ़ रही है कि ऐसा वह विभिन्न मदों में किए जाने वाले भुगतानों को रोक कर ही कर सकती है. दूसरे शब्दों में, यह एक हेराफेरी ही होगी.
पहले दो संकेतक— नीची आर्थिक वृद्धि और लक्ष्य से नीची मुद्रस्फीति— एक आर्थिक पैकेज की जरूरत की ओर इशारा करते हैं, खासकर तब जबकि मांग में वृद्धि सुस्त पड़ रही है और सिस्टम में अतिरिक्त क्षमता मौजूद है. इसके बावजूद नीतिगत पहल उम्मीद के मुताबिक नहीं है. सरकार वित्तीय कटौती पर ज़ोर देने की बात कर रही है. रिजर्व बैंक का कहना है कि उसे कीमतों की दिशा को समझने के लिए ज्यादा समय चाहिए, इसलिए उसने 6.5 प्रतिशत की अपनी नीतिगत दर में कटौती नहीं की है. यह तब है जबकि इसमे और चालू मुद्रास्फीति दर में 3 प्रतिशत अंकों का अंतर है. सरकार और रिजर्व बैंक को भी अपने-अपने दावों पर पुनर्विचार करना चाहिए.
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बाज़ार में ऋण दरें बहुत ऊंची हैं. एचडीएफसी की होम लोन दरें 8.8 से लेकर 9.5 प्रतिशत के बीच हैं, जबकि घरों के दाम गिर रहे हैं. जाहिर है, हाउसिंग में मांग कम है. अधिकतर बैंक अपने सबसे अच्छे ग्राहकों को 9 प्रतिशत की दर पर कर्ज दे रहे हैं. छोटे तथा मझोले उद्यमों को ज्यादा ब्याज दर देना पड़ रहा है. शायद अधिकतर कंपनियों के लिए प्रभावी ऋण दर उनकी निवेशित पूंजी पर मिलने वाले लाभ से ज्यादा ही है. इसका मतलब यह है कि कर्ज ‘वश के बाहर’ है. अगर व्यापक आर्थिक पुनरुत्थान चाहिए तो ब्याज दरों को नीचे लाना ही पड़ेगा.
वित्तीय पहलू को थोड़ा लचीला बनाना पड़ेगा. सरकारी फिजूलखर्ची का सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह मुद्रास्फीति को बेकाबू कर देता है. आज जबकि मुद्रास्फीति दर लक्ष्य से नीचे है और तेल की कीमतों के बेलगाम होने का खतरा टल गया है, तब यह कोई गंभीर खतरा नहीं है. इसलिए यह कहना जायज होगा कि सरकार घाटे के स्तर को जीडीपी के 3.5 प्रतिशत के ज्यादा यथार्थपरक स्तर पर आने की छूट दे सकती है, जिस स्तर पर यह पिछले दो साल से था. यह एक तटस्थ, गैर-प्रसारवादी रुख होगा जिसे वर्तमान परिस्थिति में आसानी से उचित और यथार्थपरक ठहराया जा सकता है क्योंकि सात महीनों में घाटे ने 3.3 प्रतिशत के पूरे साल के लक्ष्य को पार कर गया है.
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अंत में, कृषि कीमतों को मजबूती देने के लिए पॉलिसी पैकेज देने की जरूरत है, खासकर उन फसलों के लिए जिनकी कीमतों में भारी उठापटक होती रहती है. कृषि निर्यातों को दोगुना करने की पहल की जा चुकी है लेकिन बहुत कुछ करने और तेजी से करने की जरूरत है. किसानों को जब बेहतर कीमतें मिलेंगी तभी कृषि मजदूरी में वृद्धि होगी और ग्रामीण गरीबी घटेगी और ग्रामीण मांगों में उछाल आएगी. राजनीति में देखें, तो वाजपेयी सरकार ने खाद्य पदार्थों की कीमतों को दबाया और इसकी कीमत चुकाई. मनमोहन सिंह की सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में इस गलती को सुधारा, भले ही मुद्रास्फीति बढ़ी; और वे दोबारा सत्ता में आए. मोदी सरकार अब तक तो वाजपेयी सरकार वाली गलती दोहराती रही है. लेकिन बीच रास्ते अगर वह दिशा बदलती है तो यह न केवल अच्छी राजनीति बल्कि अच्छी अर्थनीति भी होगी.
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