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शनिवार, 26 अप्रैल, 2025
होममत-विमतमोदी के सामने कश्मीर में भारत की ‘रेड लाइन’ बहाल करने के पांच विकल्प हैं—लेकिन हर एक खतरनाक है

मोदी के सामने कश्मीर में भारत की ‘रेड लाइन’ बहाल करने के पांच विकल्प हैं—लेकिन हर एक खतरनाक है

इस्लामाबाद को पता चल गया है कि वह कश्मीर नहीं जीत सकता. उसकी सेना का उद्देश्य कश्मीर जीतना या पाकिस्तान के लिए रणनीतिक लाभ कमाना नहीं है, बल्कि भारत को कष्ट पहुंचाना है.

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जिस दिन अबू असीराम के पिता को पता चला कि उनके बेटे की गोलीयों से छलनी लाश को पाकिस्तान में एक बेनामी कब्र में दफना दिया गया है, उस दिन उन्होंने अपने दोस्तों को जन्नत की हूरों से उसके ब्याह की खुशी मनाने के लिए बुलाया. लश्कर-ए-तैयबा के कैंप में उसके लंबे प्रशिक्षण के महीने उसकी मंगनी माने गए थे. उसकी मौत से कुछ दिन पहले, कहा गया कि उसकी मां ने एक सपना देखा जिसमें उनका बेटा सफेद कपड़ों में लिपटा, पेड़ों और फूलों से घिरा, दूध पी रहा था—यह एक ऐसा दृश्य था जो एक परिचित पंजाबी विवाह-रस्म की याद दिलाता है.

जैसा कि पहले भी कई बार हुआ है, भारत इस हफ्ते फिर सोच रहा है कि लश्कर के मौत के कल्ट द्वारा किए गए बर्बर हिंसा का कैसे जवाब दे. पहलगाम के बैसारन मैदान में हुआ कत्ल पहली बार नहीं है जब जिहादियों ने अपने पीड़ितों को उनके हिंदू धर्म की पहचान के कारण मार डाला हो: कश्मीर के लंबे जिहाद के दौरान सैकड़ों को इसी तरह मारा जा चुका है.

हालांकि, पहलगाम का कत्ल एक रणनीतिक समस्या पेश करता है. 2016 में नियंत्रण रेखा पार कर सेना के हमले—और तीन साल बाद की एयर स्ट्राइक—के बाद भारत को यह विश्वास हो चला था कि उसने ऐसी लाल रेखाएं खींच दी हैं जिन्हें पाकिस्तान के जनरल अपने जिहादी प्रतिनिधियों से पार नहीं करने देंगे, युद्ध के डर से. 2016 के बाद से कश्मीर के बाहर कोई जिहादी हमला नहीं हुआ. 2019 के बाद के पांच सालों में कश्मीर में हिंसा बहुत कम हो गई थी.

लेकिन अब यह देखने के लिए ज्यादा कल्पना की जरूरत नहीं कि हत्या की गति फिर तेज हो रही है. भारतीय सैनिकों पर घात लगाकर किए गए हमलों की एक श्रृंखला रही है, साथ ही हिंदू तीर्थयात्रियों और ग्रामीणों पर हमले भी. और पाकिस्तान के भीतर, लश्कर फिर से उस बॉक्स से बाहर आ गया है जिसमें उसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के डर से छिपाया गया था, और अब फिर से कश्मीर में मारे गए अपने कैडरों की मौत का जश्न मना रहा है.

दो सवाल हैं जो प्रतिक्रिया की दिशा तय करने में अहम होंगे। पहला, क्या भारत वास्तव में पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ अपनी लाल रेखाओं का सम्मान करने के लिए बाध्य करने में सफल रहा था, या फिर पाकिस्तान ने सिर्फ अपने हितों के अनुसार कुछ समय के लिए रणनीतिक विराम लिया था? और अगर ऐसा है, तो एक असली दबाव बनाने वाली रणनीति कैसी दिखेगी?

जिहाद की लत

1947 में अपने जन्म से ही पाकिस्तान सेना ने इस्लाम की राजनीतिक लामबंदी में शामिल होना शुरू कर दिया था. इतिहासकार इल्यास चठ्ठा ने दर्ज किया है कि स्थानीय मौलवियों ने जातीय पश्तून मिलिशिया और ब्रिटिश-भारतीय सेना के सेवा-निवृत्त सैनिकों को लामबंद करने में मदद की, जिन्होंने कश्मीर में युद्ध छेड़ा. इस्लामी विषयों का उपयोग पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों द्वारा कश्मीर में छेड़े गए लंबे गुप्त युद्ध में केंद्रीय भूमिका में रहा, जो 1965 में कश्मीर पर हमले तक जारी रहा. विद्वान सी. क्रिस्टीन फेयर ने दिखाया है कि पाकिस्तान सेना खुद को इस जिहादी राष्ट्रवादी विचारधारा की संरक्षक और उसे लागू करने वाली ताकत मानती है.

यहां तक कि जब सेना उन जिहादियों के खिलाफ युद्ध में लगी होती है जिन्होंने राज्य के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, तब भी वह इस व्यापक आंदोलन को एक सहयोगी के रूप में देखती है. इस तरह, 2014 में, इलेवन कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट-जनरल सैयद सफदर हुसैन ने जिहादी नेक मोहम्मद वज़ीर को माला पहनाकर सम्मानित किया—हालांकि वह हाल ही में दर्जनों सैनिकों की हत्या का ज़िम्मेदार था—जैसे वह कोई खोया हुआ बेटा हो जो घर लौट आया हो.

“जब भारत पाकिस्तान पर हमला करता है, तो अगर आप इतिहास में देखें, तो आप देखेंगे कि कबीलाई लोग 14,000 किलोमीटर की सीमा की रक्षा करते हैं,” नेक मोहम्मद ने बदले में वादा किया. “कबीलाई लोग,” उन्होंने आगे कहा, “पाकिस्तान का परमाणु बम हैं.”

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जनरल असीम मुनीर ने कश्मीर में जिहादी अभियानों पर लगे प्रतिबंधों को हटा दिया है. “कश्मीर के लिए तीन युद्ध लड़े जा चुके हैं, और अगर दस और लड़ने पड़ें, तो हम लड़ेंगे,” उन्होंने फरवरी में एक कश्मीर एकजुटता कार्यक्रम में घोषणा की.

हालांकि, इस तरह की भाषा पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान में असामान्य नहीं है. पूर्व सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कयानी, जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती द्वारा शुरू की गई भारत-पाकिस्तान शांति प्रक्रिया को रोक दिया था और 26/11 के दौरान सेना की कमान संभाली थी, ने इस बात पर गर्व जताया कि “राष्ट्र ने कभी भी अपने शहीदों और पवित्र योद्धाओं के बलिदान को नहीं भुलाया है.”

“शहादत से बड़ा कोई सम्मान नहीं होता,” उन्होंने जोर देते हुए कहा, “और इससे बड़ी कोई आकांक्षा नहीं.”

जनरल रहील शरीफ, जो कयानी के उत्तराधिकारी थे, ने रावलपिंडी स्थित जनरल हेडक्वार्टर में एक सभा को बताया कि “कश्मीर पाकिस्तान की शह रग है.” उनके लिए यह स्पष्ट था कि कश्मीर में युद्ध “पाकिस्तान के एक जीवित राष्ट्र-राज्य के रूप में अस्तित्व की लड़ाई से कम नहीं था.” बाद में उन्होंने तर्क दिया कि “कश्मीर मुद्दे के समाधान के बिना स्थायी शांति असंभव है.”

ये भावनाएं केवल सैन्य नेतृत्व तक सीमित नहीं थीं. अमेरिका की लीक हुई राजनयिक केबलों से पता चला कि 2007 तक शीर्ष राजनेता और नौकरशाह भी लश्कर की गतिविधियों में भाग ले रहे थे. उस समय के रक्षा संसदीय सचिव ने कहा था कि उन्हें “सदस्य होने पर गर्व है.” लीक केबलों से यह भी पता चलता है कि प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ, जो उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री थे, 2008 के मुंबई हमलों के बाद के हफ्तों में लश्कर को संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों से बचाने में मदद कर रहे थे.

हालांकि, दो सेनाध्यक्ष—जनरल परवेज़ मुशर्रफ और जनरल क़मर जावेद बाजवा—ने वास्तव में दबाव के आगे प्रतिक्रिया दी थी. 2001-2002 के लगभग युद्ध के बाद, जनरल मुशर्रफ ने नियंत्रण रेखा पर संघर्षविराम शुरू किया और कश्मीर में संघर्ष समाप्त करने के लिए एक राजनीतिक संवाद शुरू किया. जनरल बाजवा ने 2019 की एयरस्ट्राइक्स के बाद पहल की और आईएसआई तथा रॉ के बीच वार्ता की शुरुआत की.

हालांकि, इस बात के बहुत कम प्रमाण हैं कि इनमें से किसी ने भी कश्मीर में सैन्य रूप से हार मान ली हो. विद्वान जॉर्ज पेरकोविच द्वारा संकलित प्रत्यक्ष अनुभवों से पता चलता है कि जनरल मुशर्रफ का मानना था कि उनके परमाणु हथियारों ने 2001-2002 में भारत को सफलतापूर्वक रोका था. उन्होंने कश्मीर पर संवाद को इसलिए चुना क्योंकि उस संकट ने पाकिस्तान के विकास की उनकी योजनाओं को नुकसान पहुंचाया था. इसी तरह, जनरल बाजवा ने निजी तौर पर पत्रकारों से कहा था कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था युद्ध को झेलने की स्थिति में नहीं है. इन दोनों की प्रतिक्रियाएं व्यावहारिक और रणनीतिक थीं—न कि सोच में किसी बदलाव का संकेत.

पांच भाग्यशाली विकल्प

पहलगाम हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने अब पांच विकल्प हैं—जिन्हें भारत पहले भी आज़मा चुका है, लेकिन इनका परिणाम मिश्रित रहा है.

पहला विकल्प यह है कि वे मुज़फ़्फ़राबाद के आसपास स्थित लश्कर-ए-तैयबा के ठिकानों पर या लाहौर के पास स्थित उसके मुख्यालय मुरिदके पर हवाई हमले की अनुमति दें. लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इससे लश्कर को कोई बड़ा नुकसान होगा. 2019 में बालाकोट में स्थित मदरसे पर किए गए बमबारी में भी लक्ष्य चूक गया था, जिससे यह पता चला कि सटीक निशाना साधने की अब भी बड़ी चुनौतियां हैं. पाकिस्तान की वायुसेना ने भी उस समय पलटवार करने की अपनी क्षमता दिखा दी थी—ऐसे में सफलता की कोई निश्चितता नहीं है.

दूसरा विकल्प 2016 की तरह सीमित ज़मीनी कार्रवाई करना हो सकता है, जिसमें नियंत्रण रेखा के पार विशेष बलों द्वारा ऑपरेशन शामिल हो. यह विकल्प हवाई युद्ध की तुलना में कम जोखिम वाला होगा, लेकिन इसका लाभ भी अनिश्चित है. 2019 के बाद जनरल बाजवा द्वारा स्थापित युद्धविराम के टूटने से घुसपैठ करना जिहादियों के लिए आसान हो जाएगा क्योंकि वे भारतीय सेना की चौकियों पर पाकिस्तान की ओर से होने वाली फायरिंग का फ़ायदा उठा सकते हैं.

वैसे भी, भारत का ज़मीनी स्ट्राइक्स का लंबा इतिहास रहा है, लेकिन इससे आतंकवाद में कोई ठोस कमी नहीं आई. 2011 और 2013 में भारतीय सैनिकों के अपहरण और सिर काटे जाने के बाद भारत ने पाकिस्तानी चौकियों को नष्ट किया, लेकिन इससे आतंकवाद में कोई फर्क नहीं पड़ा.

तीसरा विकल्प यह हो सकता है कि भारत गुप्त तरीकों का इस्तेमाल करे, जैसे प्रमुख जिहादी नेताओं की हत्या. माना जाता है कि भारत ने हाल के वर्षों में इस रणनीति को सफलता से अपनाया है. लेकिन इससे दीर्घकालीन आतंकवाद पर कोई खास असर नहीं पड़ा है—यह वही सबक है जो इज़राइल ने ग़ज़ा और लेबनान में सीखा है.

चौथा विकल्प यह है कि भारत 2001-2002 की तरह किसी व्यापक लेकिन सीमित सैन्य ऑपरेशन पर विचार करे, जिसे बेहतर रणनीति के साथ अंजाम दिया जाए ताकि मूवमेंट और एस्कलेशन जैसी पुरानी समस्याओं से बचा जा सके. जनरल एच.एस. पनाग का मानना है कि नियंत्रण रेखा के साथ एक सीमित आक्रामक अभियान पाकिस्तान की सेना को सैन्य और नैतिक नुकसान पहुंचा सकता है, और परमाणु युद्ध जैसे खतरे से भी बचा सकता है.

लेकिन जैसा कि विद्वान प्रणय कोटास्थाने ने दिखाया है, भारत की सशस्त्र सेनाएं वर्षों से धन की कमी से जूझ रही हैं, जिससे पाकिस्तान पर उसकी बढ़त कम हो गई है. युद्ध में हारने के बाद पाकिस्तान की सेना और भी कम सक्षम हो सकती है कि वह जिहादियों को काबू में रख सके। इस स्थिति में भारत एक नई नियंत्रण रेखा तो बना सकता है—लेकिन वही पुरानी समस्याएं बनी रहेंगी.

पांचवां विकल्प, जो सबसे कष्टदायक और असंभव-सा लगता है, वह यह है कि भारत प्रतीकात्मक कूटनीतिक कार्रवाई के अलावा कुछ न करे. यह वही रास्ता था जो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 26/11 के बाद चुना था, जब उनके सैन्य प्रमुखों ने कहा था कि वे पाकिस्तान पर निर्णायक जीत की गारंटी नहीं दे सकते. प्रधानमंत्री मोदी ने अब तक जो कदम उठाए हैं—जैसे राजनयिक संबंधों में कटौती करना और सिंधु जल संधि को रोकना—वे भी इसी रणनीति के हिस्से जैसे लगते हैं.

एक ऐसा संकट जिसका अंत नहीं?

विद्वान आर. राजारामन ने एक बार भारत-पाकिस्तान संघर्ष को “थ्री-बॉडी प्रॉब्लम” कहा था—यह शब्द भौतिकी में उन तीन चीजों (गोल-गोल घूमने वाले पिंडों) की गति को समझाने के लिए इस्तेमाल होता है, जो एक-दूसरे की खींच (ग्रेविटेशन) से ही चलती हैं. जब ये तीनों पिंड एक-दूसरे की कक्षा में घूमते हैं, तो उनकी गति अराजक हो जाती है और—कुछ अपवादों को छोड़कर—कोई भी गणितीय सूत्र हमेशा इसका हल नहीं दे सकता.

हालांकि राजारामन का संदर्भ इस क्षेत्र में चीन के प्रभाव को लेकर था, लेकिन इस संघर्ष पर कई और शक्तिशाली गुरुत्वीय प्रभाव भी हैं.

कश्मीर संघर्ष को पाकिस्तान की सेना की अपने ही देश के भीतर सर्वोच्चता बनाए रखने की जद्दोजहद, पाकिस्तान को एक इस्लामी राष्ट्र में बदलने की राजनैतिक ताक़तों की कोशिश, और यहां तक कि बंटवारे की अधूरी शिकायतें और दुख भी आकार देते हैं.

इस्लामाबाद को अब यह अहसास हो गया है कि वह कश्मीर जीत नहीं सकता. पाकिस्तान की सेना का मक़सद अब न तो कश्मीर जीतना है और न ही कोई रणनीतिक बढ़त हासिल करना, बल्कि भारत को लगातार कष्ट देना है. चार युद्ध—जिनमें हर बार पाकिस्तान को हार मिली—और एक लंबा विद्रोह, जिसमें हज़ारों जानें गईं, इस सच्चाई को नहीं बदल सके हैं.

कश्मीर में भारत की “रेड लाइन्स” को फिर से स्थापित करने के लिए एक शांत, सोच-समझकर बनाई गई रणनीति की ज़रूरत है—न कि ग़ुस्से में उठाए गए तात्कालिक क़दमों की.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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