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Saturday, 16 November, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार के राष्ट्रवाद की असल परीक्षा एसवाईएल कैनाल विवाद को ख़त्म करने में है

मोदी सरकार के राष्ट्रवाद की असल परीक्षा एसवाईएल कैनाल विवाद को ख़त्म करने में है

कानूनी विशेषज्ञ सर्वोच्च न्यायालय के हालिया आदेश की योग्यता पर विवाद कर सकते हैं, लेकिन यह पंजाब और हरियाणा के बीच सामंजस्य स्थापित करने का अवसर प्रदान करेगा.

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जो काम सुप्रीम कोर्ट ने किया है उसे देश के राजनीतिक दलों और राजनेताओं को बहुत पहले कर लेना चाहिए था. कोर्ट ने 9 जुलाई को पंजाब और हरियाणा की सरकारों से कहा कि अपना जल-विवाद बातचीत के जरिये सुलझायें. मैंने इस बाबत कई दफे लिखा है. पहली दफे इस सिलसिले में 2016 में लिखा था और फिर 2017 में भी कि सतलज-यमुना लिंक कैनाल से जुड़ा विवाद एक छोटा सा मसला है और इसे राजनीतिक बातचीत के जरिये सुलझाया जाना चाहिए ना कि अदालती फैसले से. विडंबना देखिए कि यही बात अब अदालत ने कही है और दोनों राज्यों के बीच विवाद को सुलझाने का एक रास्ता निकाला है.

यों ऊपरी तौर पर देखें तो सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते जो आदेश दिया वह तनिक बेढब जान पड़ेगा. अदालत ने यह बात तो खुले मन से स्वीकार किया कि सर्वोच्च न्यायालय ने 2002 में ही मसले पर फैसला सुनाया था. लेकिन उस फैसले पर अमल नहीं किया गया. लेकिन, 2002 के फैसले पर जल्दी से जल्दी अमल करने का आदेश सुनाने या फिर नाअमली के दोषी लोगों को दंडित करने की जगह कोर्ट ने दोनों प्रमुख पक्षों से कहा कि वे अगली सुनवाई से पहले वे मसले को आपसी सहमति से सुलझा लें. अगली सुनवाई 3 सितंबर को होनी है. कोर्ट ने साफ कहा है कि दोनों राज्यों के बीच जो भी सहमति बनती है. वह ऐसी होनी चाहिए कि राजस्थान को भी स्वीकार हो. राजस्थान इस विवाद में शामिल तीसरा राज्य है. कोर्ट ने केंद्र सरकार से भी कहा है कि जल-विवाद पर समझौते के लिए वो शीर्ष स्तर पर प्रयास करे. कानून के जानकार अदालत के इस आदेश को लेकर मीन-मेख निकाल सकते हैं, लेकिन मुझे कोर्ट का फैसला न्यायसंगत जान पड़ रहा है, क्योंकि इसमें सुलह-समझौते का रास्ता सुझाया गया है.


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इस किस्म के सुलह-समझौते की शुरुआत सबसे पहले तो इस बात की पहचान से होनी चाहिए कि मसला बड़ा छोटा सा है. भारत और पाकिस्तान के बीच हुई सिंधु नदी जल-संधि के तहत सतलज, रावी और व्यास का पूरा पानी भारत को दिया गया है. सतलज नदी के पानी के बंटवारे को लेकर कोई अंदरुनी विवाद नहीं है. अनुमानतया सतलज नदी में 14.01 मिलियन एकड़ फीट पानी होता है. जिसमें पंजाब को 8.15 मिलियन एकड़ फीट पानी मिलता है और हरियाणा को 4.4 मिलियन एकड़ फीट, जबकि राजस्थान को 1.46 मिलियन एकड़ फीट. विवाद सिर्फ रावी और व्यास नदी के पानी के बंटवारे को लेकर है और इन दोनों नदियों में अनुमानतया 15.9 मिलियन एकड़ फीट से 18.3 मिलियन एकड़ फीट तक पानी हो सकता है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1976 में शुरुआती तौर पर पंजाब का हिस्सा 22 फीसद तय किया था. लेकिन 1981 में सभी मुख्यमंत्रियों की आपसी सहमति से पंजाब का हिस्सा बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया गया और साल 1987 के इराडी कमीशन ने रावी-व्यास के पानी में पंजाब का हिस्सा बढ़ाकर 28 प्रतिशत किया. पंजाब के लोगों की वाजिब शिकायत है की पहले दोनों फैसले पंजाब के जनमत और नेताओं को नजरअंदाज कर उन पर थोपे गए थे. पानी को लेकर विवाद है तो जरुर लेकिन उतना बड़ा नहीं जितना कि इसे बताया जाता है- विवाद अंदाजन 1 मिलियन एकड़ फीट पानी के बंटवारे को लेकर ही है.

सुलह-समझौते की दिशा में कदम उठाते हुए हमें यह बात स्वीकार करनी होगी कि पंजाब और हरियाणा पानी को लेकर जो दावेदारी जताते हैं उसमें जुमलेबाजी और सियासी बोल-वचन ज्यादा होते हैं. सच तो ये है कि पानी की जिस मात्रा को लेकर विवाद है. उससे ज्यादा पानी तो लचर प्रबंधन के कारण पाकिस्तान की तरफ चला जाता है. समझौते के लंबित रहते जिस अतिरिक्त पानी का इस्तेमाल पंजाब के मालवा इलाके के किसान कर रहे हैं, वह सूबे में खेती के लिए मूल्यवान तो है लेकिन उस पानी को इस रुप में नहीं देखा जा सकता मानो वह जीवन-मरण का सवाल हो क्योंकि पंजाब अतिशय सिंचाई के समस्या से जूझ रहा राज्य है. इसी तरह, सतलज यमुना लिंक कैनाल दक्षिण हरियाणा के अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र के लिए निर्णायक रुप से मददगार हो सकता है. लेकिन हरियाणा में क्रमागत रुप से बनने वाली सरकारों ने विवाद को एक बहाने के रुप में इस्तेमाल किया है, वहां सरकार दक्षिणवर्ती इलाके के साथी पानी का साझा करने को अनिच्छुक है. दोनों पक्ष द्विअर्थी बातें करते हैं, दोनों ही पक्ष अपने हाव-भाव से जो कुछ जताते हैं. उसका सच्चाई से खास लेना-देना नहीं. अगर हम यह बात स्वीकार कर पायें तो सुलह की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.

ऐसे स्वीकार-भाव के साथ होने वाले सुलह-समझौते के लिए पंजाब की सरकार और वहां के राजनेताओं को अपने गैर-जिम्मेदार बोल-वचन को छोड़ना होगा, वहां की सरकार ने लगातार मसले पर जो लगातार असंवैधानिक कदम उठाये हैं. उसे परहेज करना होगा. इस सिलसिले की एक अहम बात तो यही है कि पानी के बंटवारे को लेकर जारी अंतर्राज्यीय विवाद में आप अंतर्राष्ट्रीय स्तर के रिपेरियन लॉ का हवाला नहीं दे सकते. विवाद को भारतीय संविधान के दायरे के भीतर ही सुलझाना होगा. दूसरी बात ये कि कोई भी सरकार यह नहीं कह सकती कि कानूनी तौर पर जो बात उसके पहले की सरकार ने मानी है, उसे वो नहीं मानेगी. जाहिर है, पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट एक्ट 2004 हास्यास्पद, खतरनाक और असंवैधानिक है. तीसरी बात ये कि देश की कोई भी सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन नहीं कर सकती जबकि पंजाब ने 2017 में कोर्ट के फैसले के बाबत ऐसा किया था.


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हरियाणा की सरकार और राजनेताओं को भी चाहिए कि वे मसले पर अपने हठी और संकीर्ण नजरिये को छोड़ें. बेशक, सुप्रीम कोर्ट में उनका दावा मजबूत है. लेकिन पिछले 17 साल का अनुभव यही बताता है कि कोर्ट में मामला जीतने भर से खेतों को पानी नहीं मिल जाता. मान लीजिए कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले पर अमल के लिए रास्ते तलाशता है, वो केंद्र सरकार को सतलज-यमुना लिंक कैनाल बनाने के लिए बाध्य करता है, फिर भी सोच-विचार वाले हरियाणा के किसी भी नेता को ये बात तो दिख ही जायेगी कि लिंक कैनाल के लिए पंजाब के लोगों से वैर ठानना कोई अच्छी बात नहीं. हरियाणा के लोगों के दूरगामी हित के हिसाब से यही अच्छा है कि वे पंजाब की सरकार के साथ जल्दी और दोस्ताना-मिजाज से राजनीतिक समझौता कर दिखायें. हरियाणा की जरुरत है कि सतलज-यमुना लिंक कैनाल एक तयशुदा अवधि के भीतर तैयार हो जाये और सूबे के खेतों को पानी मिले. बदले में हरियाणा ये कर सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में उसे जितना पानी मिलना है, उस कम मात्रा में पानी लेकर पंजाब से समझौता कर ले.

आपसी बातचीत के जरिये समझौता तक पहुंचने के लिए यहां मैं अपना चार सूत्री फार्मूला सुझा रहा हूं : एक, हरियाणा और पंजाब रावी-व्यास के पानी का अपना कुछ हिस्सा (मिसाल के लिए 5 प्रतिशत) पंजाब को देने को तैयार हों, इस आधार पर कि मालवा के इलाके किसान कई दशकों से इस पानी का इस्तेमाल करते आ रहे हैं. उनका भी कुछ हक़ बनता है. दो, इसके बदले में पंजाब सतलज-यमुना लिंक कैनाल एक निर्धानित समय-सीमा के भीतर बनाने को तैयार हो और नहर के बनने पर उसमें पानी का बहाव अबाधित जारी रखे. तीसरी बात ये कि दोनों ही राज्य खेती-बाड़ी के अपने गैर-टिकाऊ तौर-तरीकों का पुनरावलोकन करें, पानी के अत्यधिक इस्तेमाल वाली खेती के तौर-तरीकों पर पुनर्विचार करें और राज्य के भीतर पानी का उचित वितरण सुनिश्चित करें. चौथी बात, अभी भारत के हिस्से का बहुत सा पानी लचर प्रबंधन के कारण पाकिस्तान को मिल रहा है. सो, केंद्र सरकार को चाहिए कि वो पाकिस्तान की तरफ जा रहे इस अतिरिक्त पानी को भारत में रखने के उपाय ढूंढ़ें और रावी, ब्यास के कुल पानी के विवाद को ख़त्म करे.

असल सवाल ये है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे तो आखिर कौन? दोनों सूबे की सरकारों को बातचीत की मेज पर इकट्ठा होने और किसी युक्तिसंगत फैसले तक पहुंचने के लिए कौन मनाये ? सुप्रीम कोर्ट ने इस दिशा में पहलकदमी कर दी है. कोर्ट को यह कोशिश जारी रखनी चाहिए, दबाव बनाये रखना चाहिए, वैसा मौन धारण नहीं कर लेना चाहिए जैसा कि उसने मसले पर 2004 से 2016 के बीच किया. लेकिन निर्णायक कोशिश केंद्र सरकार की तरफ से होनी चाहिए. राष्ट्र के लोगों के बीच अगर कोई विवाद लंबे अरसे से चला आ रहा है, तो उस विवाद को सुलझाना टीवी स्टुडियो में बैठकर पाकिस्तान से लड़ाई ठानने की कूबत दिखाने से कहीं ज्यादा बेहतर कसौटी है राष्ट्रवाद की. राष्ट्र के व्यापक हित के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मुख्य रुप से यह जिम्मेवारी उठानी चाहिए. आखिर यह हरियाणा और पंजाब की सरकारों का विवाद है, हिंदुस्तान और पाकिस्तान का नहीं.

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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

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