हर तरह का चरमपंथ एक ऐसे नाजुक चरण में पहुंच जाता है जब रणनीति में किसी सूक्ष्म बदलाव से अभियान की प्रकृति बदल जाती है, जिस पर कि सफलता या नाकामी निर्भर करती है. चीनी लोकतांत्रिक गणराज्य के संस्थापक माओत्से तुंग ने इसे ‘उद्देश्य का अंतर्विरोध’ कहा था. इसके मूल में आम नागरिकों को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल करने, और सरकारी सुरक्षा तंत्र को अति-प्रतिक्रिया कर स्थानीय आबादी को विमुख करने के लिए बाध्य करने का विचार था.
हालांकि, सरकारी सुरक्षा बलों के इस जाल में नहीं फंसने की स्थिति में आमतौर पर चरमपंथी ही अपना जनसमर्थन खोने लगते हैं. सेब के बगानों में आग लगा कर, कारोबारियों पर हमला कर, और सेब ढोने वाले एक ड्राइवर और स्टोन क्रशर में काम करने वाले एक मजदूर की हत्या कर घाटी के चरमपंथियों ने अपनी हताशा ही जाहिर की है. ऐसा कर वे खुद को अप्रासंगिक बनाए जाने की बुनियाद तैयार कर रहे हैं. घाटी में संचार तंत्र ठप किए जाने का एक अनपेक्षित परिणाम ये हुआ है कि सुरक्षा बल चाह कर भी बचाव के लिए नहीं पहुंच सकते, लेकिन 5 अगस्त के अपने कदम से नरेंद्र मोदी सरकार ने जिन ‘उद्देश्य के अंतर्विरोधों’ को जन्म दिया है वे घाटी में चरमपंथियों पर असर डालना शुरू कर चुके हैं.
बगानों से मिलने वाली सुरक्षा
ऐसा क्यों हुआ ये समझने के लिए हमें पहले इस बात को जानना होगा कि सेब और स्टोन क्रशिंग चरमपंथियों के लिए महत्वपूर्ण क्यों हैं. सेब बगानों में एक बड़े इलाके के बीच में एक घर होता है, जहां गांवों या कस्बों – जहां कि हर कोई हर किसी को जानता है – की तरह लोगों की ताक-झांक नहीं होती है. सेब के पेड़ों की टहनियां और पत्ते बाहर की तरफ 12 फीट तक फैले होने के कारण, ये भयमुक्त होकर घूमने-फिरने में चरमपंथियों का बढ़िया कवर साबित होते हैं. सेब पौष्टिकता से भरपूर भी होते हैं, और इन सब खासियतों के कारण सेब के बगान सीमा पार करने का जोखिम उठा कर भारतीय क्षेत्र में घुसे चरमपंथियों के लिए एक आदर्श पारिस्थितिकी तंत्र मुहैया कराते हैं.
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पर इसे चरमपंथियों की बदकिस्मती कहें कि सेब बगानों के मालिक सुरक्षा बलों के लिए खुफिया सुराग के सबसे बड़े स्रोत भी होते हैं. इस बात की जानकारी मुझे दक्षिण कश्मीर के मुख्य सेब उत्पादक जिलों शोपियां और पुलवामा के दौरे पर मिली. कार्रवाई करने योग्य खुफिया सुरागों का लगभग 90 फीसद इन सेब उत्पादकों के जरिए आता है, जो पैसे लेकर चरमपंथियों को पनाह तो देते हैं पर वहां से उनके जाते ही सुरक्षा बलों को उनके बारे में सूचित कर देते हैं. इसकी दो वजहें है: पहली ये कि कोई भी अपने बगान में गोलीबारी नहीं चाहता, और दूसरी वजह है चरमपंथियों के बारे में सूचना देने पर सरकार की तरफ से मिलने वाला अच्छा-खासा पुरस्कार जो कृषि से महज जीवन निर्वाह कर पा रहे किसान छोड़ना नहीं चाहते.
चरमपंथी हमलों पर सुरक्षा बलों का जवाब
सेब उत्पादन के चक्र से चरमपंथ और उसके खिलाफ सुरक्षा अभियानों के बीच के संबंधों का भी निर्धारण होता है. अगस्त से अक्टूबर के फसली महीनों में सुरक्षा बल बगानों में जाने से बचते हैं क्योंकि तब सेब के पेड़ बहुत घने होते हैं. दूसरी ओर सघन पेड़ों से मिलने वाली सुरक्षा का फायदा उठाते हुए इन्हीं महीनों में चरमपंथी अपने अधिकांश हमलों की योजना तैयार करते हैं. अक्टूबर के मध्य से पेड़ों के पत्ते झड़ने लगते हैं और नवंबर में आकर वे पत्तों से विहीन हो जाते हैं, और तब जाकर सुरक्षा बल चरमपंथियों को ढूंढ़ने का अभियान शुरू करते हैं. सुरक्षा बलों के स्थानीय अधिकारियों की सबसे बड़ी चिंता मोबाइल सेवाओं को ठप किए जाने को लेकर है, क्योंकि अगस्त-सितंबर में अमूमन मिलने वाले खुफिया सुराग इस बार नहीं मिले जो अक्टूबर मध्य से आतंकी कार्रवाइयों को नाकाम करने के लिए जरूरी होते हैं.
पर बीती घटनाओं के आधार पर अब हम कह सकते हैं कि ये कदम शायद सही था क्योंकि हम जानते हैं कि दूसरे पक्ष भी सक्रिय हैं. पाकिस्तान से चरमपंथियों को निर्देश दिया गया कि वे ‘कश्मीर मुद्दे पर एकजुटता दिखाने के लिए’ घाटी में आर्थिक गतिविधियों को पूरी तरह ठप कर दें. और इस कारण चरमपंथियों को अपने सबसे बड़े मददगारों – सेब उत्पादकों – को निशाना बनाने पर बाध्य होना पड़ रहा है. इस सिलसिले में पहला बड़ा बदलाव सितंबर के मध्य में दिखा जब सोपोर में एक सेब बगान को जला डाला गया और एक कृषक परिवार पर हमला किया गया.
अतीत में, सेब के व्यवधान रहित कारोबार को चरमपंथी आंदोलन के लिए अहम माना जाता था. इसलिए इस संतुलन को खत्म किया जाते देख सेब उत्पादकों को बहुत आश्चर्य हुआ है. अपनी यात्रा के दौरान मुझे सितंबर के शुरू में तैयार होने वाले कुल्लू किस्म के सेबों को एकत्रित कर बाहर भेजे जाने की कवायद देखने को मिली थी. चरमपंथियो के भय से अधिकांश काम रात को किया जा रहा था. साथ ही, उत्पादक अक्टूबर के दूसरे-तीसरे सप्ताह में तैयार होने वाले महाराजी और डिलिशियस किस्म के सेबों को लेकर भी उसी तरह के इंतजाम करने के प्रयासों में भी जुटे हुए थे. साफ है कि सेब उत्पादकों और उनके बगानों को निशाना बनाकर चरमपंथियों ने उन्हें विमुख करने का ही काम किया है. इसलिए मोबाइल सेवाओं को पूरी तरह बहाल किए जाते ही चरमपंथियों के बारे में सुरक्षा बलों को मिलने वाली सूचनाओं की मात्रा निश्चय ही बढ़ेगी.
चरमपंथियों को आर्थिक मदद
स्टोन क्रशिंग उद्योग का मामला इससे बिल्कुल अलग है. पूरे देश में ये उद्योग माफिया के कब्ज़े में है और कश्मीर में भी यही स्थिति है. इस सेक्टर में जो भी काम होता है उनमें से अधिकतर अवैध ही होता है. साफ तौर पर अवैध मालूम पड़ रही एक स्टोन क्रशिंग इकाई में कार्यरत झारखंड के मजदूरों ने मुझे बताया कि उनकी अच्छी देखभाल की जाती है. मोबाइल फोन व्यवस्था ठप किए जाने के कुछ ही दिनों के भीतर खदान मालिकों ने उन्हें मुफ्त में घर कॉल करने की सुविधा समेत लैंडलाइन फोन उपलब्ध करा दिए थे. स्थानीय पुलिस ने इस बात की पुष्टि की कि स्टोन क्रशिंग व्यवसाय को बड़े लोगों का संरक्षण मिलना जारी है.
उन्होंने एक ‘हफ्ता’ व्यवस्था के प्रचलन में होने की भी पुष्टि की जिसके तहत खदान मालिक तंग नहीं किए जाने के एवज में चरमपंथियों को नियमित रूप से पैसे देते हैं – जैसा कि नक्सल प्रभावित इलाकों में भी खदान कंपनियां अनौपचारिक रूप से किया करती हैं. अधिकारियों का अनुमान है कि चरमपंथियों के स्थानीय फंड में इस तरह की जबरन वसूली का योगदान 40 से 70 प्रतिशत तक का है. इस बारे में किसी एक आंकड़े पर उनकी सहमति इसलिए नहीं है क्योंकि घाटी में खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा बलों दोनों को ही अभी तक मनी लांड्रिंग तंत्र की पूरी थाह नहीं लग पाई है.
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संक्षेप में कहें तो चरमपंथियों को घाटी में चरमपंथी अभियानों के लिए सेब बगानों से सुरक्षा और पत्थर खदानों से खासी वित्तीय मदद मिलती है. इन दोनों अहम स्रोतों पर हो रहे चरमपंथी हमलों से साबित होता है कि किसी ना किसी रूप में सरकार ने चरमपंथियों के लिए ‘उद्देश्य के अंतर्विरोधों’ को पलट दिया है क्योंकि अब न सिर्फ वे लोगों की जीविका छीन रहे हैं बल्कि पाकिस्तान के आदेशों को मानते हुए अपनी ऑपरेशन संबंधी बढ़त की स्थिति को भी गंवा रहे हैं. सरकार को इस बदलाव का अहसास हो या नहीं, पर ये परिस्थितियों का रुख मोड़ने वाला साबित हो सकता है, क्योंकि चरमपंथ को लेकर पाकिस्तान की रणनीति और ‘विवाद के अंतरराष्ट्रीयकरण’ की उसकी कूटनीतिक ज़रूरत आमने-सामने है.
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(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज़ में वरिष्ठ अध्येता हैं. वह @iyervval हैंडल से ट्वीट करते हैं. प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)