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Thursday, 25 April, 2024
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मोदी सरकार का आर्थिक सुस्ती के दौर में प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध का फैसला सही नहीं है

सिंगल-यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध को सरकार की परोक्ष स्वीकारोक्ति मानी जाए कि वह कचरा निस्तारण का एक सक्षम तंत्र बनाने में नाकाम रही है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब एक बार इस्तेमाल होने वाले (सिंगल-यूज) प्लास्टिक को निशाने पर लिया है. उनका ये नया युद्ध 2 अक्टूबर को आरंभ होगा जब वे प्लास्टिक की थैलियों, कप-प्लेटों, छोटे बोतलों, स्ट्रॉ और कई तरह के सैशे (पाउच) पर प्रतिबंधों का ऐलान करेंगे.

ये स्पष्ट नहीं है कि क्या सरकार में किसी ने सिंगल-यूज प्लास्टिक पर राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध के आर्थिक और पर्यावरणीय नफा-नुकसान का अध्ययन किया भी है.

रॉयटर्स ने एक अनाम अधिकारी को ये बताया है कि ‘प्रतिबंध व्यापक होगा जिसके दायरे में ऐसी चीज़ों के निर्माण, उपयोग और आयात को शामिल किया जाएगा.’

यह अभियान मोदी के कट्टर समर्थकों के साथ-साथ उनके वामपंथी विचारधारा वाले विरोधियों तथा राजनीतिक और वैचारिक मतों से परे, अधिकांश आम लोगों में भी लोकप्रिय साबित होगा. चूंकि सबको पता है कि प्लास्टिक की थैलियां पर्यावरण के लिए नुकसानदेह हैं, इसलिए उन पर रोक का भला कौन विरोध करेगा?

प्लास्टिक की थैलियां और उनके विकल्प

प्लास्टिक की थैलियां और सिंगल-यूज प्लास्टिक के अन्य सामान पर्यावरण को दो तरह से नुकसान पहुंचाते हैं. पहला नुकसान तो सबके सामने है- जैव-विघटनीय नहीं होने के कारण सड़कों पर तथा लैंडफिलों, नदियों, झीलों और समुद्रों में इनका जमा होते जाना और अंतत: खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर जाना. इनसे जुड़ी समस्याएं विश्वव्यापी हैं, पर भारत के शहरों और गांवों में कचरा निस्तारण सुविधाओं के अभाव के कारण इनका प्रकोप ज़्यादा गंभीर है. दूसरा नुकसान अप्रत्यक्ष है, जो कि इन वस्तुओं के पर्यावरणीय फुटप्रिंट से संबद्ध है. यानि इनके उत्पादन, परिवहन और इस्तेमाल से पर्यावरण को होने वाला नुकसान.

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प्लास्टिक की थैलियों से जुड़ा एक विरोधाभास ये है कि इनका सकल पर्यावरणीय फुटप्रिंट वास्तव में इसके विकल्पों के तुलना में बहुत छोटा है. डेनमार्क सरकार के 2018 के एक अध्ययन के अनुसार प्लास्टिक की एक थैली के समतुल्य पर्यावरणीय प्रभाव प्राप्त करने के लिए आपको कागज की एक थैली का 43 बार इस्तेमाल करना होगा.


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जब कुछ साल पहले बेंगलुरु में प्लास्टिक की थैलियों पर रोक लगाई गई, तो किराना दुकान वाले 10 रुपये या उससे अधिक कीमत की सूती कपड़े की थैली बेचने लगे, पर प्लास्टिक की थैली के समतुल्य पर्यावरणीय प्रभाव हासिल करने के लिए कपड़े की एक थैली का 7,100 बार इस्तेमाल किया जाना होगा और यदि आप अत्यंत जागरूक हैं और ऑर्गेनिक सूती का बैग इस्तेमाल करते हैं तो आपको प्लास्टिक की ‘बुरी’ थैली के पर्यावरणीय फुटप्रिंट की बराबरी के लिए उसका 20,000 बार इस्तेमाल करना होगा.

भारत में वैसे तो थैलियों को बारंबार इस्तेमाल करने की पुरानी परंपरा है, पर मुझे नहीं लगता कोई भी व्यक्ति एक पेपर बैग को 45 बार या कॉटन बैग को 7,000 बार इस्तेमाल कर सकता है. इसका सीधा मतलब यही हुआ कि प्लास्टिक की थैलियों की जगह कागज या कपड़े की थैलियों का इस्तेमाल शुरू कर हम वास्तव में पर्यावरण का अधिक नुकसान करेंगे और अंतत: जलवायु परिवर्तन में योगदान करेंगे. आप बस इन वैकल्पिक थैलियों के लिए कटने वाले पेड़ों तथा उनकी निर्माण प्रक्रिया में इस्तेमाल पानी-बिजली की मात्रा पर गौर करें.

प्रतिबंध की असल कीमत

यदि सिंगल-यूज प्लास्टिक पर रोक की भारत की योजना सफल रही तो निश्चय ही हम प्लास्टिक प्रदूषण में कमी ला सकेंगे, पर इसी के साथ हम पर्यावरण को होने वाले सकल नुकसान में इजाफ़ा भी करेंगे. उल्लेखनीय है कि मोदी सरकार की योजना प्लास्टिक की थैलियों से बहुत आगे तक चोट करती है, क्योंकि इसमें प्लास्टिक कप-प्लेट और पैकेजिंग में काम आने वाले प्लास्टिक के सामान भी शामिल हैं. पर ये संभव नहीं दिखता कि प्लास्टिक का कोई विकल्प पर्यावरण के लिए कम नुकसानदेह साबित होगा. मुझे नहीं लगता इस विषय में आंकड़ों पर किसी ने गौर किया होगा. पर्यावरण का विषय होने के कारण ज़िम्मेदारी भरा कदम तो ये होता कि प्लास्टिक पर राष्ट्रव्यापी रोक की घोषणा से पूर्व भारत में अरबों की संख्या में रोज़ाना इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक की चीज़ों को हटाने के मुद्दे पर एक विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन कराया जाता.

प्लास्टिक पर रोक के आर्थिक फायदे मुख्यत: पैकेजिंग इंडस्ट्री में नए निवेश और नवाचार के रूप में सामने आएंगे, हालांकि ये फायदे मध्यम अवधि में ही मिल पाएंगे.

प्रतिबंध के कारण प्लास्टिक इंडस्ट्री में वर्तमान निवेश, मशीनरी, व्यवसाय, नौकरियों आदि को भारी नुकसान पहुंचेगा. बर्बादी का वास्तविक स्तर प्रतिबंध के प्रावधानों पर निर्भर करेगा. प्रतिबंधित मशीनरी कंपनियों पर बोझ बन जाएंगी और उन्हें नई मशीनें लगाने का अतिरिक्त खर्च भी उठाना पड़ेगा. बड़ी कंपनियां तो शायद अतिरिक्त पूंजी निवेश के भार को झेल जाएं, पर छोटे और मंझोले स्तर के उद्यम खुद को भारी परेशानी में घिरा पाएंगे. और ये सब ऐसे समय होने वाला है जब भारतीय अर्थव्यवस्था पहले ही नकदी के संकट से जूझ रही है.


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प्लास्टिक बैन का दुष्प्रभाव गरीबों को कहीं अधिक झेलना पड़ेगा. दूध, बिस्किट, शैंपू आदि की पैकेजिंग हो या फिर प्लास्टिक की थैलियां, इनकी वजह से कई आवश्यक चीज़ें गरीबों के लिए आसानी से और सस्ते में उपलब्ध हो पाती हैं. इसलिए पैकेजिंग की लागत में बढ़ोतरी का सीधा असर गरीबों के पास खर्च के लिए उपलब्ध पैसे पर पड़ेगा.

सुपरमार्केट वालों के लिए ग्राहकों से प्लास्टिक की थैली के बदले 10 रुपये वसूल करना भले ही आसान हो, गलियों में फल-सब्ज़ी बेचने वाले ऐसा नहीं कर सकते. अपनी थैलियां साथ लाने की ग्राहकों की असुविधा का खामियाज़ा भी छोटे दुकानदारों को ही उठाना पड़ेगा. जब पश्चिमी देशों के चलन को हम आमदनी के भारतीय स्तर पर थोपेंगे, तो इस कथित सदाचार का आर्थिक बोझ गरीबों को ही उठाना पड़ेगा.

आर्थिक सुस्ती के दौर में क्या ये ज़रूरी है?

मोदी सरकार के नीति नियंताओं को इस बात को ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि हमारी अर्थव्यवस्था आर्थिक सुस्ती के दौर से गुजर रही है. यदि सिंगल-यूज प्लास्टिक से छुटकारा पाना सही है भी तो क्या इसके लिए ये सही समय है?

सिंगल-यूज प्लास्टिक पर रोक नहीं लगाने का विकल्प क्या है? विभिन्न अध्ययनों के अनुसार इसका जवाब पुनर्प्रयोग और निस्तारण में है. एक आदर्श शॉपिंग बैग वो हो सकता है जो कपड़े से और घर में मौजूद साधनों से ही बनाया जाए, और फिर फटने तक जिसका इस्तेमाल किया जाए. इसलिए सरकार की नीति पुनर्प्रयोग वाले थैलों की डिज़ाइनिंग और उत्पादन के लिए उद्योग को प्रोत्साहित करने और पुनर्प्रयोग के महत्व पर जनता को जागरूक करने पर केंद्रित होनी चाहिए. इस पर धीरे-धीरे अमल हो, प्रोत्साहन का तरीका अपनाया जाए, ना कि सख्त प्रतिबंध लागू कर.

एक तरह से, प्लास्टिक पर प्रतिबंध को सरकार की परोक्ष स्वीकारोक्ति ही मानी जाएगी कि वह कचरा निस्तारण का एक सक्षम तंत्र बनाने में नाकाम रही है. इसलिए शुरुआत यहीं से हो – नगरपालिकाओं को कचरा प्रबंधन में निवेश करने के लिए कहा जाना चाहिए. प्लास्टिक के खिलाफ जंग की जगह प्लास्टिक कचरे के खिलाफ जंग छेड़ने की ज़रूरत है.

(लेखक लोकनीति के स्वतंत्र अनुसंधान और शिक्षा केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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