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Thursday, 26 December, 2024
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महिलाओं के लिए लाभकारी रही स्टैंड-अप इंडिया स्कीम लेकिन दलितों/आदिवासियों के बीच बेअसर क्यों

जब तक सरकार नियम न बनाए और उन नियमों को लागू करना जरूरी न हो तब तक नौकरशाही वंचित वर्गों के हित में काम नहीं कर सकती.

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स्टैंड-अप योजना को लागू हुए 5 अप्रैल, 2022 को छह साल हो गए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत धूमधाम से 2015 में आजादी के दिन लाल किले से इस योजना की घोषणा की थी. घोषणा के 9 महीने बाद इसे लागू कर दिया गया.

इस योजना के सार तत्व की चर्चा करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘स्टार्ट-अप इंडिया और स्टैंड-अप इंडिया भारत का भविष्य बनेंगे. इस साल हम डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर जी की 125वीं सालगिरह मना रहे हैं. देश में बैकों के 1.25 लाख ब्रांच हैं. इस योजना के तहत हर ब्रांच को ये प्रण करना है कि वे हर साल एक आदिवासी या दलित को अपना काम शुरू करने के लिए लोन देंगे. इससे हर साल सवा लाख दलित-आदिवासी उद्यमी बनेंगे. इसके अलावा हमें ये भी देखना होगा कि क्या ये 1.25 लाख ब्रांच महिला उद्यमियों के लिए भी ऐसी ही योजना बना सकते हैं.’ (पीआईबी पर मौजूद भाषण का हिंदी अनुवाद)

इस योजना को शुरू करते समय इसके केंद्र में दलितों और आदिवासियों को रखने की ही बात की गई थी. महिला उद्यमियों को लोन देने की बात बाद में आई. ये योजना 5 अप्रैल, 2016 को शुरू हुई और ये मानने में कोई हर्ज नहीं है कि इसका मकसद अच्छा ही रहा होगा.

इस योजना के लागू होने के ‘6 सफल वर्ष’ पूरे होने पर इसका उत्सव बड़े पैमाने पर मनाया गया. प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री समेत पूरी कैबिनेट और तमाम मंत्रालय ही नहीं, बीजेपी के भी लगभग तमाम महत्वपूर्ण नेताओं ने इस बात पर खुशी जताई कि किस तरह इस योजना के तहत 1.34 लाख नए उद्यमी बने और 6 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार मिला. ये बताया गया कि इस योजना ने महिलाओं और वंचित समाज के युवाओं की कल्पनाओं को पंख दिए और किस तरह ये वित्तीय समावेश यानी फाइनेंशियल इनक्लूसन की मिसाल है.

इस योजना को हालांकि सफल बताया जा रहा है लेकिन छह साल में जिस योजना के तहत प्रति वर्ष 2.5 लाख लोगों के हिसाब से 15 लाख लोगों को 10 लाख से 1 करोड़ रुपए का लोन दिया जाना था, उस योजना में अब तक 1.34 लाख लोगों को ही लोन दिया जा सका है और लोन का औसत आकार 21 लाख रुपए ही है. इतनी रकम ठीक ठाक बिजनेस या उद्योग स्थापित करने के लिए नाकाफी है.

बहरहाल पूरी योजना के असरदार होने की चर्चा को किसी और मौके के लिए छोड़ते हुए ये देखते हैं कि इस योजना के लाभार्थी कौन हैं और क्या ये योजना उन लोगों तक पहुंची है, जिन तक पहुंचने के लिए इसे लाया गया था. किसी आदर्श स्थिति में इस योजना में एससी और एसटी लाभार्थियों की संख्या महिला लाभार्थियों से ज्यादा या फिर, उनके बराबर तो होनी ही चाहिए थी. आखिर ये योजना मुख्य रूप से एससी-एसटी के लिए ही तो लाई गई थी.

लेकिन इस योजना के लाभार्थियों का जो आंकड़ा वित्त मंत्रालय ने दिया है, उससे दूसरी ही तस्वीर सामने आती है. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने जो आंकड़ा शेयर किया है उसके मुताबिक स्टैंड-अप इंडिया के 81 प्रतिशत लाभार्थी महिलाएं हैं, यानी सिर्फ 19% लाभार्थी ही एससी-एसटी हैं. वित्त मंत्रालय के मुताबाकि इस योजना में कुल 30,160 करोड़ रुपए के लोन दिए गए. इनमें से एससी को सिर्फ 3,976 करोड़ रुपए और एसटी को तो उससे भी काफी कम सिर्फ 1,373 करोड़ रुपए के लोन ही मिले. महिलाओं को योजना में 24,809 करोड़ रुपए के लोन दिए गए.

जहां तक लोन लेने वालों की संख्या का सवाल है तो छह साल में 1.34 लाख लोन एप्लिकेशन मंजूर हुए. इनमें से एससी और एसटी के मिलाकर सिर्फ 25,745 एप्लिकेशन ही मंजूर हुए. मंत्रालय ने ये नहीं बताया है कि जिन महिलाओं को लोन दिए गए उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है. लेकिन एससी-एसटी के पुरुष एप्लिकेंट जब पर्याप्त संख्या में लोन नहीं ले पा रहे हैं तो ये कल्पना करना ही मुश्किल है कि एससी और एसटी महिलाएं आगे बढ़कर महिला कैटेगरी में लोन ले लेंगी.

स्टैंड-अप इंडिया स्कीम महिलाओं को लोन देने के मामले में अपेक्षाकृत ज्यादा कामयाब हुई है. शायद यही वजह है कि सरकार ने इस योजना के पूरा होने पर जो प्रचार सामग्री तैयार की, उसमें महिलाओं की तस्वीरें प्रमुखता से हैं. हालांकि इससे समस्या और गंभीर हो सकती है क्योंकि लोगों को ऐसा लग सकता है कि ये योजना मुख्य रूप से महिलाओं के लिए है. इससे एससी-एसटी की इस योजना से दूरी और बढ़ सकती है.

चिंताजनक बात ये है कि न तो नौकरशाही को और न ही नेताओं को इस बात से कोई चिंता हुई कि एससी-एसटी को लक्ष्य करके बनाई गई योजना किस तरह से गिने-चुने एससी-एसटी लोगों तक ही पहुंच पाई.


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इसके तीन संभावित कारण हो सकते हैं:

  1. एससी-एसटी युवाओं को स्टैंड-अप योजना की जानकारी ही नहीं है.
  2. एससी-एसटी के युवाओं को इस योजना की जानकारी तो है लेकिन वे लोन के लिए अप्लाई नहीं करते.
  3. बैंक एससी-एसटी एप्लिकेंट्स को लोन देने में आनाकानी करते हैं.

कोई ये कह सकता है कि ये योजना एससी-एसटी युवाओं तक पहुंची ही नहीं है और इसलिए वे लोन के लिए बैंकों तक आ ही नहीं रहे हैं. लेकिन सूचना विस्फोट के इस दौर में प्रधानमंत्री का लाल किले से दिया गया भाषण एससी-एसटी युवाओं तक नहीं पहुंचा होगा, ये सोच पाना आसान नहीं है. और फिर ये बात हर एससी-एसटी तक पहुंचने की भी नहीं है. मुख्य रूप से शहरी आबादी तक भी अगर ये बात पहुंच जाए तो लोग बैंक तक आ ही जाते.

प्रधानमंत्री इस समय निर्विवाद रूप से देश के सबसे सफल कम्युनिकेटर हैं और बीजेपी और सरकार का संचार तंत्र भी बेहद शक्तिशाली और असरदार है, इसलिए अगर ये तंत्र चाह ले तो कोई भी बात जन-जन तक पहुंचाई जा सकती है. इसके अलावा आधार और मोबाइल नंबर के जुड़े होने के कारण सरकार एसएमएस के जरिए भी लोगों तक इस योजना को पहुंचा सकती है.

दूसरी संभावना ये है कि योजना तो एससी-एसटी युवाओं तक पहुंच गई होगी लेकिन वे बैंक लोन के लिए अप्लाई नहीं कर पा रहे होंगे क्योंकि इसके लिए तमाम शर्तों को पूरा करना आवश्यक होगा. अगर ऐसा है तो बैंकों को चाहिए था कि इन लोगों तक पहुंचकर उनकी सहायता करे. अगर बैंकों के पास सरकार का दिया लक्ष्य होता, जिसे पूरा करना जरूरी होता तो, बैंक जुटकर ऐसा करने की कोशिश करते. ये मुमकिन है कि बैंकों ने इसकी कोशिश की होगी और वे असफल हो गए होंगे. एससी-एसटी समुदाय में बेरोजगारी का जो हाल है, उसे देखते हुए अगर बैंकों ने एससी-एसटी युवाओं तक पहुंचने की कोशिश की होती, तो निश्चित रूप से इस योजना के नतीजे कुछ और ही होते.

चिंताजनक बात ये भी है कि एससी-एसटी को लक्ष्य करके बनाई गई लोन योजना में जब एससी-एसटी के इतने कम लोगों को लोन मिला, तो लोन वितरण की जिन योजनाओं में ऐसा कोई लक्ष्य नहीं होता, वहां के हालत की तो कल्पना ही की जा सकती है. सरकार जिस फाइनेंसियल इनक्लूसन की बात करती है, उसकी सामाजिक ऑडिटिंग की जाए तो बेहद चौंकाने वाले नतीजे आ सकते हैं.

अगर मान लिया जाए कि इस योजना की एससी-एसटी युवाओं को जानकारी थी और उन्होंने लोन लेने की कोशिश भी की, तो फिर इस योजना में उनको इतनी कम संख्या में लोन मिलने की एक ही वजह बची रहती है कि बैंकों ने लोन देने में आनाकानी की होगी या फिर उन्हें लोन देने में उत्साह नहीं दिखाया होगा.

अगर स्टैंड-अप योजना में महिलाओं को चिन्हित करके लोन दिया जा सकता है, तो कोई वजह नहीं है कि वही बैंक एससी-एसटी को चिन्हित करके उन्हें लोन नहीं दे सकते. ये मामला नीयत का और प्राथमिकता तय करने का हो सकता है कि बैंकों और वहां के अफसरों की मंशा क्या है. सवाल ये भी है कि क्या सरकार ने पहले एक या दो साल में मिले संकेतों के आधार पर बैंकों को इस बारे में आगाह किया कि एससी-एसटी को भी प्राथमिकता के आधार पर लोन दिया जाए. सरकार ने चूंकि अब तक माना ही नहीं है कि एससी-एसटी को इतना कम लोन मिलना कोई समस्या है तो जाहिर है कि इस बारे में सफाई देने का कोई सवाल ही नहीं है.

ये बात पक्के तौर पर कही जा सकती है कि मौजूदा ढांचे के साथ स्टैंड-अप इंडिया एससी और एसटी के साथ सामाजिक न्याय कर पाने में नाकाम है. इस योजना को अगर एससी-एसटी के लिए भी सफल बनाना है तो इन वर्गों के लिए अलग से लक्ष्य निर्धारित किए जाएं. बेहतर होगा कि इस योजना को दो या अधिक भागों में बांट दिया जाए. महिलाओं को दिए जाने वाले लोन में अगर एससी-एसटी और ओबीसी महिलाओं का कोटा निर्धारित कर दिया जाए तो भी इस समस्या का समाधान हो सकता है.

एक बात और साबित हुई है कि वंचित वर्गों के लिए कोई योजना अफसरों और सिस्टम के भले होने के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती. जब तक सरकार नियम न बनाए और उन नियमों को लागू करना जरूरी न हो तब तक नौकरशाही वंचित वर्गों के हित में काम नहीं कर सकती.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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