यदि भारत की जीडीपी विकास दर को 10 प्रतिशत से ऊपर ले जाना है, तो सरकार को खासी मात्रा में पूंजी पर बैठे अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान के उद्यमियों के सशक्तीकरण की व्यवस्था निर्मित करनी होगी. मेहनती और जोखिम लेने वाले ये उद्यमी भारत के विभिन्न शहरों, विशेषकर मुंबई की झुग्गियों में रहते हैं. और, वे संचित धन के प्रतिस्थाप्य पूंजी में रूपांतरण के पेरू के अर्थशास्त्री हर्नांडो डि सोटो के विचार के कार्यान्वयन की दृष्टि से सबसे आदर्श स्थिति में हैं.
जैसा कि हमने पूर्ववर्ती आलेख में देखा कि बुनियादी तौर पर डि सोटो का विचार अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में गरीबों के पास मौजूद परिसंपत्तियों का रूपांतरण औपचारिक अर्थव्यवस्था की पूर्ण पूंजी के तौर पर करने हैं, ताकि व्यापक अर्थव्यवस्था में उसका विभिन्न उपयोग हो सके. गति और विस्तार की बात करें तो अर्थव्यवस्था के पिरामिड के सबसे निचले स्तर पर पैदा आय, अपेक्षाकृत तेज विकास करती है. वामपंथियों और दक्षिणपंथियों दोनों के लिए ही, डि सोटो के विचार अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त पूंजी लाने और इसकी क्षमता और उत्पादकता बढ़ाने का रास्ता दिखाते हैं. हालांकि, दोनों ही पक्षों ने औपचारिक व्यवस्था से बाहर पूंजी के इस्तेमाल के लिए इसके सशक्तिकरण के प्रयासों का कड़ा विरोध किया है.
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इतिहास में अवैध बस्तियों की समस्या
अवैध बस्तियों, या निजी और सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे की समस्या तब से ही है जब से आखेटक-संग्राहक मानव ने खेती करने के लिए एक ही जगह रहना शुरू किया था. दरअसल, संपत्ति की अवधारणा ही निजी संपत्ति को मान्यता दिए जाने और उसकी सुरक्षा की ज़रूरतों से आरंभ हुई है. पहले परती या खाली ज़मीन का इस्तेमाल कोई भी कर सकता था, पर आज जब तक कि उसे किसी को विधिवत सौंपा ना गया हो, उस पर सरकार का स्वामित्व होता है. अतिक्रमण करने वाले ऐसे आबादकार होते हैं जो आमतौर पर इस्तेमाल नहीं की जा रही ऐसी संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेते हैं. समय बीतने के साथ मेहनत, नई पहलकदमियों और मेहनत से अर्जित धन के सहारे झुग्गियों के निवासी अपनी संपत्ति का मूल्य बढ़ाने की दिशा में भारी निवेश करते हैं. एक बार संपत्ति के कीमती बनते ही हम उसे उसके मूल्य में निवेश करने वाले को स्थानांतरित करने में आनाकानी करने लगते हैं.
अवैध बस्ती के निवासियों को उनके नियंत्रण वाली संपत्तियों पर पूर्ण अधिकार देने पर जताई जाने वाली आपत्तियां अनुचित प्रोत्साहन और हिस्सेदारी दिए जाने के संबंध में तथा भूमि के उपयोग की दृष्टि से की जाने वाली आपत्तियां होती हैं. हालांकि, सर्वाधिक प्रबल आपत्ति अभिजात वर्ग के उन लोगों की तरफ से आती हैं जो कि अतिक्रमण करने वालों को संपत्ति के अधिकारों की व्यवस्था को नष्ट करने वाले अराजक तत्व के रूप में देखते हैं. अक्सर उल्लेख की जानेवाली एक और आपत्ति ये है कि किसी झुग्गी बस्ती को वैध बनाया जाना इस समस्या के समाधान में मददगार नहीं है. आइए इन आपत्तियों की विस्तार से पड़ताल करते हैं.
अनुचित प्रोत्साहन
हमें अतिक्रमण के मूल कार्य जो कि अवैध है और कब्जा की गई संपत्ति संबंधी लेनदेन के बीच अंतर करना चाहिए. अतिक्रमण को कहीं से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. अपनी संपत्ति की रक्षा करना सरकार का दायित्व है और उसे अतिक्रमणकारियों को हटाने के लिए एक तार्किक समयावधि, मान लें 10 साल, दी जानी चाहिए. एक कानूनसम्मत समाज में जहां संपत्ति अधिकारों की एक संगठित व्यवस्था है, इस सिद्धांत को किसी भी तरह से कमज़ोर नहीं किया जा सकता. लेकिन समय बीतने के साथ इन झुग्गी बस्तियों में बचत और निवेश की भारी मात्रा केंद्रित हो जाती है. इसलिए ये ज़रूरी हो जाता है कि समाज के व्यापक हित में इस संभावित पूंजी को औपचारिक अर्थव्यवस्था में हस्तांतरित किया जाए.
उपरोक्त दोनों विचारों में संतुलन आसान नहीं है. एक समाधान ये हो सकता है कि ऐसी परिसंपत्तियों के औपचारिक अर्थव्यवस्था में दाखिले के लिए एक समयावधि सुनिश्चित कर दी जाए, जैसे 30 साल, जो सामान्यतया अवैध बस्ती के निवासियों की एक पीढ़ी के सक्रिय आर्थिक जीवन का काल होता है. दूसरे शब्दों में, अवैध बस्ती बसाने वालों को अतिक्रमण करने, और संपत्ति में किए निवेश का फायदा मिलने की नहीं के बराबर उम्मीद रहे. समयावधि तय किए जाने से मौकापरस्त अतिक्रमणकारियों को हतोत्साहित किया जा सकेगा. इससे अतिक्रमण के अनुचित फायदे पहले से तय करने से भी बचा जा सकेगा, क्योंकि फायदे अनिश्चित और काफी देरी से मिलने वाले होंगे.
हिस्सेदारी
आमतौर पर अतिक्रमण करने वाले कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के होते हैं. पर हमें याद रखना चाहिए कि बात 30 सालों या अधिक समय से कायम झुग्गी बस्ती की है. स्थानीय स्तर पर देखें तो यह भौतिक रूप से अपना अधिकतम विस्तार पा चुकी होती है. बस्ती के भीतर सबको पता होता है कि किस परिसंपत्ति पर किसका अधिकार है. इस स्तर पर झुग्गी को नियमित किए जाने के खिलाफ ये आपत्ति की जाती है कि इस प्रक्रिया में अवांछित लोगों को भारी लाभ मिलता है. पहली नज़र में ये शिकायत सच दिखती है, पर हकीकत कुछ और है.
एक झुग्गी बस्ती के जीवनकाल में संपत्तियों के मालिकाना हक कई बार बदलते हैं. इसलिए झुग्गियों के निवासियों को चलायमान आबादी के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें पीढ़ीगत बदलाव और सेकेंडरी मार्केट में लेनदेन, दोनों की ही भूमिका है. संपत्ति के हर बार हाथ बदलने पर सामान्यतया उसकी कीमत बढ़ती जाती है. पर, बाद के चरणों में संपत्ति खरीदने वाले भी आमतौर पर समाज के कमजोर तबके के ही लोग होते हैं. इसलिए, ऐसे खरीदारों के हाथों में जाने पर भी संपत्ति के मूल्य का सम्मान करना पूरी तरह से अनुचित नहीं है, खासकर अगर आप इस तथ्य को स्वीकार करें कि एक मजबूत सेकेंडी प्रॉपर्टी बाजार झुग्गी में निवेशकों को ज़रूरत पड़ने पर पैसे लेकर बाहर निकालने की अनुमति देता है. इसलिए, झुग्गियों का नियमितीकरण गरीबों के खिलाफ नहीं है, जैसा कि कुछ परंपरागत वामपंथी मानते हैं. इसके बजाय, यह एक कृषि प्रधान समाज में लागू किए जाने वाले भूमि सुधारों के समान है, जहां जोतदारों को उनके अधीनस्थ भूमि का पट्टा दे दिया जाता है. आवश्यक नहीं कि ये जोतदार सर्वाधिक जरूरतमंद ही हों, लेकिन वे गरीब और बदकिस्मत ज़रूर होते हैं.
झुग्गी बस्तियों का उन्मूलन
क्या झुग्गी बस्तियों के नियमितीकरण, और वहां की परिसंपत्तियों के अर्थव्यवस्था में पूंजी के रूप में हस्तांतरण से, वहां रहने वाले लोगों का तीव्रतर आर्थिक विकास हो सकेगा, जिससे कि अंतत: झुग्गियों के खात्मे में मदद मिलेगी? इस सवाल का जवाब दो स्तरों में दिया जाना चाहिए. सर्वप्रथम, परिसंपत्तियों को पूरी तरह वैध और अर्थव्यवस्था में पूंजी के रूप में प्रतिस्थाप्य बनाए जाने मात्र से ही उनके बाज़ार मूल्य तीन से पांच गुना तक बढ़ जाते हैं. इससे झुग्गी के निवासियों को अचानक भारी लाभ प्राप्त होता है. इसका कुछ हिस्सा उस अवधि में सेकेंडरी मार्केट में होने वाले लेनदेन पर इम्पैक्ट टैक्स के ज़रिए वसूला जा सकता है, जब सरकार झुग्गी में सड़क, स्वच्छता और बिजली-पानी जैसी अनिवार्य सुविधाओं में निवेश कर रही होती है.
साथ ही, झुग्गीवासियों के नियंत्रण वाली परिसंपत्तियों के पट्टे के ज़रिए व्यवस्थित पूंजी में रूपांतरण से ना सिर्फ उनकी पूंजी बढ़ती है, बल्कि विभिन्न तरह के उपयोगों से संपत्ति विशेष की धन अर्जन की क्षमता भी बढ़ती है. इन दोनों प्रक्रियाओं से न सिर्फ झुग्गी के निवासियों के धन और उनकी समृद्धि में वृद्धि होती है बल्कि अर्थव्यवस्था को भी लाभ मिलता है. आगे चल कर, झुग्गी वालों की आय और धन में वृद्धि से उनका जीवन स्तर सुधरता है और परिसंपत्तियों की कीमत भी बढ़ती है, इस तरह झुग्गी बस्ती स्वत: ही विलीन हो जाती है. इस प्रक्रिया में सेकेंडरी मार्केट में होनेवाले लेनदेन का प्रभावी योगदान होता है, जो कि पूर्व की झुग्गी की परिसंपत्तियों की बढ़ी कीमत की पुष्टि करता है.
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राजनीति संचालित प्रक्रिया
झुग्गी या अतिक्रमण को आगे चल कर नियमित करने का विचार नया नहीं है. पर हम इस प्रक्रिया को गरीबों को दिए जाने वाले सस्ते अनुदान के रूप में देखते आए हैं, जिससे कि कथित रूप से व्यापक समाज का कोई भला नहीं होता. दूसरे, नियमितीकरण को अतिक्रमण को प्रोत्साहित करने वाले कदम के रूप में देखा जाता है और अभिजात वर्ग इसका व्यापक विरोध करता है. झुग्गी की परिसंपत्तियों को अर्थव्यवस्था में पूंजी के रूप में शामिल करने की निश्चित प्रक्रिया के अभाव के कारण सरकार एक ओर तो झुग्गियों की बुनियादी सुविधाओं में व्यवस्थित रूप से निवेश नहीं कर पाती है, वहीं वह इम्पैक्ट टैक्स या अन्य करों के माध्यम से बढ़ी कीमतों का लाभ भी नहीं उठा पाती है. इसका परिणाम देरी, व्यवधान और इस्तेमाल की जा सकने वाली पूंजी के व्यर्थ जाया होने में होती है.
अनुचित प्रोत्साहन से बचने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, हम संगठित और परस्पर जुड़ी झुग्गियों, जिसमें आगे अतिक्रमण की बहुत कम गुंजाइश है और जो 30 साल से अस्तित्व में होने की पात्रता पूरी करती हैं, को अनौपचारिक संपत्ति से औपचारिक पूंजी में परिवर्तित करने की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं. ऐसी अधिकांश झुग्गियों में यह निर्धारित करने के बुनियादी साधन मौजूद हैं कि किस संपत्ति का स्वामित्व किसके पास है. इसे सर्वे के ज़रिए अच्छे से तय किया जा सकता है. स्वामित्व के बारे में स्पष्टता आते ही, किसी तरह की पाबंदी थोपे बिना, संपत्ति के मालिकों को खरीदे-बेचे जाने लायक पट्टे जारी कर दिए जाने चाहिए. निवासियों को, इम्पैक्ट टैक्स चुका कर, सेकेंडरी मार्केट में संपत्ति को बेच कर नकदी हासिल करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए. विकास कार्य को इस कदर तेज करने के लिए कि सुविधाओं का सहज अपग्रेड झुग्गी बस्तियों को यथाशीघ्र विलीन कर दे, सरकार को बिजली-पानी, सफाई, सड़कों आदि में निवेश, और संभावित इम्पैक्ट टैक्स से इस खर्च की भरपाई की कोशिश करनी चाहिए.
(सोनाली रानाडे का ट्विटर हैंडल @sonaliranade है. शैलजा शर्मा @ArguingIndian से ट्वीट करती हैं. लेख में प्रस्तुत विचार उनके अपने हैं.)
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