सबसे ज्यादा तो नहीं मगर कई आर्थिक टीकाकारों की यही राय है कि अर्थव्यवस्था के मामले में मोदी सरकार का कामकाज अच्छा नहीं रहा है. लगभग आम सहमति इस बात पर है कि 2014 के चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो वादे किए थे उन्हें पूरा नहीं किया, और निकट भविष्य के आसार बहुत अच्छे नहीं नज़र आते हैं. यह कहने का बेशक कोई फायदा नहीं है कि सरकार तमाम प्रमुख आर्थिक पहल करने में पिछड़ गई है, वह संरक्षणवाद की ओर मुड़ गई है, और रोजगार एवं व्यापार के मोर्चों पर उसका कामकाज खराब रहा है.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर यह भी मान कर चला जाए कि इस साल वृद्धि दर 5 प्रतिशत रही और अगले साल यह 6 प्रतिशत रहेगी, तब भी 2020-21 तक के तीन वर्षों में औसत वृद्धि दर महज 5.7 प्रतिशत ही रहेगी. यह आंकड़ा मनमोहन सिंह सरकार के आखिरी सबसे निंदित तीन वर्षों के दौरान की औसत वृद्धिदर के आंकड़े (6.2 प्रतिशत) की तुलना में काफी कमजोर ही है. गौरतलब है कि इस आंकड़े को नई सदी के शुरुआती वर्षों के बाद कभी नहीं छुआ जा सका है. इसलिए आलोचकों को पूरा मसाला मिल गया है.
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इसका अंदाजा वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण के गोलमोल बजट भाषण से नहीं लगता, जो कि शब्दों के हिसाब से उनके कई पूर्ववर्तियों के बजट भाषण से छोटा था मगर लंबा इसलिए लगा क्योंकि सीतारामण अपनी बात पर ज़ोर देने के लिए वाक्यों को दोहराया करती हैं. वे मोदी सरकार के पूरे रेकॉर्ड को रेखांकित करके सीधे-सीधे स्वीकार कर सकती थीं कि आर्थिक मंदी चल रही है. आखिर, सरकार के पहले चार वर्षों में वृद्धि दर 7.7 प्रतिशत रही और दोनों कार्यकालों को जोड़ कर देखें तो सात वर्षों में औसत वृद्धिदर 6.9 प्रतिशत रही.
यह उतार-चढ़ाव पिछले करीब 25 से ज्यादा वर्षों से जारी हैं. मनमोहन सरकार के आखिरी तीन साल की कमजोर दर से पहले के तीन वर्षों में यह दर प्रशंसनीय 7.5 प्रतिशत रही थी और यह तब हासिल हुआ था जब दुनिया आर्थिक संकट से जूझ रही थी. इसी तरह, 2003-03 में 4.2 प्रतिशत पर गिरावट दर्ज की गई थी लेकिन इसके बाद के तीन साल में इसका औसत 6.3 प्रतिशत का रहा था और फिर गति तेज रही थी. संक्षेप में, वृद्धि सुस्त, तेज, और फिर सुस्त हो जा सकती है, और इनकी वजहें आपस में जुड़ी हो सकती हैं.
फिलहाल जो सुस्ती है उसकी असामान्य बात यह है कि यह बिना किसी बाहरी कारण (तेल की कीमतों में बढ़ोतरी और/या लगातार खराब मानसून) के आई है, जैसा कि पिछले 50 वर्षों में आई सुस्ती के दौरों के साथ हुआ. यह वर्तमान दौर की सुस्ती को तुलनात्मक रूप से ज्यादा गंभीर मसला बना देता है. अगर बाहरी स्थितियां शांत हैं और इसके बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत खराब होती है तो जाहिर है कि व्यवस्था में ही कोई कमजोरी है.
और आगे बढ़ने से पहले इस बात पर गौर करना मुनासिब होगा कि मोदी ने क्या-क्या सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन किए हैं— वित्तीय सेवाओं, रसोई के लिए साफ-सुथरे ईंधन, शौचालय, बिजली, डिजिटल लेन-देन को आसान बनाया है; और अब किसानों को नकद भुगतान के साथ ही मुफ्त मेडिकल बीमा भी.
इसके अलावा, जैसा कि सीतारामण ने बताया, मूल मुद्रास्फीति समेत मैक्रो-इकोनॉमिक बैलेंस बेहतर हैं. उन्होंने जिस वित्तीय चुनौती का जिक्र किया उसकी संतोषजनक व्याख्या नहीं की, इसलिए कोई समाधान नहीं प्रस्तुत किया गया. फिर भी, ट्रांसपोर्ट और डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार हुआ है.
आंकड़ों के उपभोग में भारी वृद्धि हुई है, और उच्च शिक्षा तक पहुंच बेहतर हुई है. अगले कुछ सालों में ही इन सबके मानदंडों में सुधार आएगा. कई ज़िंदगियां बदल रही हैं. मोदी के आलोचक इन बदलावों और उनके महत्व को प्रायः समझ नहीं पाते. इसकी वजह यह हो सकती है कि विफलताएं दिख भी जाती हैं और वे बेहद अहम होती हैं— गंभीर होती बेरोजगारी की समस्या, उपभोग में गिरावट और निवेशों पर इसका असर, निर्यात में गतिरोध, नीतिगत सुधारों के प्रमुख पहलुओं पर विधायी निष्क्रियता, किसानों के समक्ष चुनौतियां, आदि. इस सूची में आप दहशत और संस्थाओं के ह्रास जैसी समस्याओं को भी जोड़ सकते हैं.
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मोदी और उनके मंत्रियों को इन मसलों को लेकर होने वाली आलोचनाओं के प्रति आक्रामक रुख अपनाने से बाज आना होगा, और बेरोजगारी के मसले को आगे बढ़कर निपटाना होगा क्योंकि यह बढ़ती विषमता और विकास के लाभों के आसमान वितरण जैसे मसलों का मूल है. सीतारामण ने इनमें से कुछ मसलों का समाधान अपने भाषण में देने की कोशिश की है, लेकिन 160 मिनट के उनके भाषण का सामान्य असर फीका ही दिखा है. और ज्यादा मोर्चों पर और ज्यादा, और कभी-कभी अलग तरीके से काम करने की जरूरत है. अगर ऐसी कोशिश शुरू की जाती है और और वृद्धि रफ्तार पकड़ती है, तो मोदी सरकार का आर्थिक रेकॉर्ड चमक सकता है. ऐसा नहीं हुआ, तो तेज वृद्धि का अगला चरण शुरू होने में देर हो सकती है.
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