केन्द्र सरकार द्वारा देश के 80 करोड़ गरीबों के लिए शुरू की गई महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना का, कम से कम देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में, कई गंभीर सवालों से सामना हो रहा है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या अब किसी विपदा के वक्त फौरी राहत के तौर पर जैसे-तैसे की गई पेट भरने की जुगत से ही गरीबों का कल्याण हुआ मान लिया जायेगा?
अगर नहीं तो क्यों सरकार इस अन्न योजना को ‘दुनिया की सबसे बड़ी खाद्य सुरक्षा योजना’ के रूप में प्रचारित कर गरीबों के कल्याण से जोड़ने, उसकी वाहवाही लूटने और जिन रोजी-रोजगारों से वास्तविक गरीब कल्याण मुमकिन है, उनकी योजनाओं में कोताही बरतने पर आमादा है? क्यों प्रवासी मजदूरों को वैकल्पिक रोजगार देने के गरीब रोजगार कल्याण अभियान को उसने छः राज्यों के 116 जिलों और 125 दिनों तक ही सीमित रखा है? क्या वह भी पिछले दिनों उच्चस्तरीय हलकों में पूछे जा रहे इस बेहद अमानवीय और निर्दयी सवाल से इत्तेफाक रखती है कि जब गरीबों को मुफ्त राशन दिया ही जा रहा है तो उनके जन-धन खातों में पांच-पांच सौ रुपये डालने की भला क्या जरूरत है?
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लाॅकडाउन के शुरुआती दिनों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अप्रैल, मई और जून महीनों के लिए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना का ऐलान किया था, जिसके तहत गरीब परिवारों के हर व्यक्ति को हर महीने 5 किलो गेहूं या चावल तथा प्रति परिवार एक किलो दाल मुफ्त देने की बात थी. यह राहत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के तहत गरीब परिवारों को दो से तीन रुपए प्रति किलो की दर से मिलने वाले अनाज के अतिरिक्त थी.
इन तीन महीनों में देश के विभिन्न हलकों से इस योजना के ठीक से जमीन पर न उतर पाने की अनेक शिकायतें सामने आईं तो यह मांग भी उठी कि गरीबों को मुफ्त अनाज के बदले उनके जन-धन खातों में सीधे नकद सब्सिडी दी जाये, जिससे वे किसी कोटेदार के मोहताज होने के बजाय अपनी सुविधा से जहां कहीं से भी चाहें अपना जरूरत का अनाज या दूसरी चीजें खरीद लें. यह मांग इस जमीनी हकीकत के मद्देनजर थी कि इस संकट काल में गरीब सिर्फ मुफ्त अनाज से काम नहीं चला सकते.
लेकिन प्रधानमंत्री इसको मानने की बजाय अपनी योजना का जयगान करते हुए उसे आगामी नवम्बर तक बढ़ा दिया. अब सारे गरीबों को इसका लाभ न मिल पाने की शिकायतें तो अपनी जगह रहीं, जिनको लाभ मिल रहा है, वे भी मुफ्त मिला अन्न दूसरी जरूरतों के लिए औने-पौने दाम पर बेचने को अभिशप्त हो रहे हैं.
इस बीच किसी भी स्तर पर इस सवाल का जवाब नहीं मिल पा रहा कि क्या सुनिश्चित रोजगार के बढ़ते अभाव के बीच ऐसी राहतों से गरीबों का वास्तविक कल्याण हो पायेगा और उनकी गरीबी कम या खत्म हो पायेगी? अगर नहीं तो क्या इसे ‘राहत योजना’ की जगह ‘कल्याण योजना’ कहना उचित है? यह अन्न योजना क्योंकर अन्नपूर्णा, पुष्टाहार और मिड्डे मील या फिर रोजगार गारंटी की राहत योजनाओं से अलग है?
80 करोड़ गरीबों की संख्या पर विवाद
कई जानकार यह भी पूछ रहे हैं कि गरीबों की संख्या तक को विवादास्पद बना दिये जाने के बाद प्रधानमंत्री इस योजना के लिए अचानक 80 करोड़ गरीब कहां से ढूंढ़ लाये हैं और क्या यह संख्या उनकी सरकार के कामकाज पर कोई टिप्पणी नहीं है? खासकर जब बड़ी संख्या में गरीबों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाये जाने के दावों के बीच उनकी संख्या ही विवादास्पद बना दी गई है. देश में 80 करोड़ गरीब हैं तो वे बड़े-बड़े दावे तो स्वतः झूठे सिद्ध हो जाते हैं, जिनमें बहुआयामी गरीबी में तेजी से कमी आने की बात कही जाती रही है.
प्रसंगवश, देश में गरीबों की गिनती करने वाली आर्थिक संस्थाओं एवं आयोगों की रिपोर्टों में भारी अन्तर रहा है. 1995-96 के बाद आई रिपोर्टों में से कुछ ने गरीबों को कुल आबादी का 50 से 55 प्रतिशत, तो कुछ ने 40 से 42 प्रतिशत तथा कुछ ने 25 से 30 प्रतिशत बताया है. प्रधानमंत्री ने गरीब कल्याण अन्न योजना के लिए 80 करोड़ लोगों को गरीब बताकर उनकी संख्या को 60 प्रतिशत से ऊपर पहुंचा दिया है. यों, लाॅकडाउन के दौरान श्रमिक आबादी के छूटते एवं टूटते रोजगारों के कारण यह संख्या न सिर्फ सही, बल्कि गरीबों की वास्तविक संख्या से कुछ कम ही लगती है. बशर्ते गरीबी मापने के मापदण्ड में रोजगार के साधनों/अवसरों की उपलब्धता, सुरक्षा, स्थायित्व एवं विकास को शामिल कर लिया जाये.
जानना जरूरी है कि 2015 में मानव विकास के आकलन में शामिल मानवनिर्धनता सूचकांक में मानव के स्वास्थ्य, शिक्षा तथा जीवन स्तर को ही शामिल किया गया है, जबकि इन तीनों की बेहतरी के लिए जीवकोपार्जन (यानि रोजगार) के साधनों/अवसरों की अनिवार्य आवश्यकता, सुरक्षा एवं विकास को प्रमुखता नहीं दी गई है.
हम जानते हैं कि लाॅकडाउन के दौरान बहुतेरे रोजगारों, खासकर अनियमित रोजगार के अवसरों के खत्म होने से बेरोजगारी में तीव्र वृद्धि हुई है जिसके फलस्वरूप गरीबी भी बढ़ी है. रोजाना कमाने-खाने वाले लोगों में बढ़ती गरीबी की वजह से खाद्यान्न का भी संकट बढ़ा है. कहना होगा कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना इस बड़ी आबादी के लिए राहतकारी भी तभी तक सिद्ध होगी, जब तक वह चलेगी, लेकिन जब तक गरीबों के रोजगार के अवसरों व साधनों में वृद्धि नहीं होगी और उनमें स्थायित्व नहीं आ जायेगा, गरीबों का कल्याण तो होने से रहा.
अनियमित रोजगार में लगे लोग और रोजगारविहीन हो सकते हैं
चिंता की बात इसलिए भी है कि अभी तो उल्टे यही आशंका ज्यादा है कि कहीं भविष्य में अनियमित रोजगार में लगे लोगों की और बड़ी संख्या रोजगारविहीन न हो जाये. ध्यान देने की बात है कि 80-85 प्रतिशत गरीब अनियमित रोजगार के अवसरों तथा छोटे-छोटे संसाधनों से जुड़े हैं और उनके इन अवसरों के घटने व साधनों के टूटने का कारण केवल कोरोना व लाॅकडाउन नहीं हैं. इन दोनों ने तो सिर्फ इस समस्या को तात्कालिक रूप से बढ़ाने और सतह पर लाने का काम किया है. इसलिए लोगों को यह कहते सुना जा सकता है कि कोरोना से बड़ी महामारी रोजगार जाने की है और इसे रोका नहीं गया तो यह कोरोना से ज्यादा लोगों को परिवार समेत मार देगी. बढ़ती आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्याओं व आर्थिक-सामाजिक अराजकताओं की बढ़ती आशंकाओं से भी वे कम त्रस्त नहीं हैं.
यकीनन, लाॅकडाउन के दौरान रोजगारों के खात्मे की प्रक्रिया अपने विकरालतम रूप में प्रकट हुई है और कहा नहीं जा सकता कि कोरोना से जंग की समाप्ति के बाद भी अपने कामों से हटे या हटाए गए लोगों की पूरी तरह से वापसी नहीं हो पाएगी. हां, उनकी एक संख्या वापस जरूर होगी लेकिन उन पर दूसरे रूपों में रोजगारमारक आर्थिक या रोगाणुजनित महामारी की मार पड़ने का खतरा मौजूद और बढ़ता भी रहेगा. साफ कहें तो यह उनके लिए पिछले 30 सालों में बढ़ते रहे रोजगारविहीन विकास की एकमुश्त कीमत चुकाने का वक्त है. चाहे वे किसान हों, दस्तकार, छोटे उद्यमी या कारोबारी.
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यह गरीब के बजाय प्रधानमंत्री को ज्यादा राहत पहुंचाएगी
यह गरीब कल्याण अन्न योजना इस मायने में गरीबों से कहीं ज्यादा प्रधानमंत्री को राहत पहुंचायेगी कि यह गरीबों की उदरपूर्ति के साथ उनके रोजगारों के टूटने-छूटने से उत्पन्न असंतोष एवं अत्यन्त कष्टप्रद पलायन से जन्मे आक्रोश को कुछ हद तक ठंडा कर देगी. काश, ये गरीब इस दौरान वे ठंडे दिमाग से सोच पाते कि उनकी पहले के पिछड़ेपन से जुड़ी अभावग्रस्तता में कुछ कमी आई है तो उच्च वर्गों की आर्थिक संवृद्धि एवं विकास के साथ बढ़ती रोजगारहीनता, साधनहीनता व मंहगाई ने गरीबी का बहुआयामी विस्तार भी कर दिया है. आखिर ऐसा क्यों है? इस सवाल का जवाब इसी काल खंड में अधिकाधिक साधन, सुविधा व अधिकार संपन्न होते इस देश के धनाढ्य एवं उच्च वर्गों तथा बेहतर आय एवं वेतन पाते मध्यम वर्गों की तीव्र चढ़त-बढ़त में निहित है.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)