झारखंड में हुए चुनाव की समझ में चूक के दो तरीके हैं. पहली चूक तो बीजेपी से हुई और चुनाव के पहले ही हो गई. बीजेपी ने मान लिया कि लोकसभा चुनाव में झारमझार जीत हुई है तो फिर झारखंड के विधानसभा के चुनाव में यह जीत अपने को दोहरायेगी ही. इससे अहंकार बढ़ा, साथी दल पाले से छिटक गये और आखिर में पार्टी चुनाव में हार गई. और, जहां तक दूसरी चूक का सवाल है, बहुत मुमकिन है कि ये चूक चुनाव-परिणाम के बाद के इस वक्त में गैर-बीजेपी पार्टियां करें. हो सकता है वे मान लें कि बीजेपी विधानसभा चुनाव में हारी है तो इसे लोकसभा चुनाव में उसकी होने जा रही हार की दिशा में बढ़ते हुए एक कदम के रूप में देखा जाय. समझ की इस चूक से विपक्षी दलों में एक किस्म का इत्मीनान घर कर लेगा और ऐसा इत्मीनान गैर-बीजेपी पार्टियों के लिए बड़ा घातक साबित होगा.
लोकसभा चुनावों में हुई भारी-भरकम जीत के बात बीजेपी की समझ में चूक का होना लाजिमी था और ऐसा हुआ भी. दरअसल झारखंड में 81 निर्वाचन क्षेत्रों में से 63 में बीजेपी को वोट शेयर के मामले में बढ़त हासिल थी. तो, ऐसे में बीजेपी किसी भी विपक्षी दल की तुलना में चुनावी मुकाबले में कोसों आगे थी. कोई और वक्त होता और लोकसभा चुनावों में ऐसी बढ़त के बाद 6 माह के भीतर विधानसभा चुनाव होते तो फिर परिणाम एकदम ही साफ-साफ दिखते कि बाजी बीजेपी के हाथ लगने वाली है.
दरअसल, 2014 के चुनावों में मोदी की जीत के बाद बिल्कुल ऐसा ही हुआ था लेकिन झारखंड के विधानसभा चुनाव के परिणाम कह रहे हैं कि 2014 और 2019 के दरम्यान कोई चीज बड़े निर्णायक ढंग से बदल गई है. बदलाव के संकेत तो ओडिशा में हुए विधानसभा चुनाव से ही मिल गये थे. यह चुनाव लोकसभा के चुनाव के साथ हुआ था. बीजेपी को ओडिशा में लोकसभा के चुनाव में 21 में से 8 सीटें मिली थीं लेकिन बीजेडी विधानसभा के चुनाव में एक आसान बहुमत से बाजी जीतने में कामयाब रही.
लेकिन, उस घड़ी यह चुनाव परिणाम लीक से कुछ हटकर प्रतीत हुआ था. महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा के चुनाव हुए तो परिणामों ने जताया कि ओडिशा का उदाहरण दरअसल अब एक रुझान में परिवर्तित हो चला है. हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों ही राज्यों में बीजेपी की सीटें और वोट लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बीच घटे हैं. झारखंड के विधानसभा चुनाव के नतीजों से इस रुझान पर अब एक तरह से मुहर लग गई है. अगर पीछे पलटकर देखें तो जान पड़ेगा कि गुजरात तथा कर्नाटक के विधानसभा चुनाव और इसके बाद के तेलंगाना, राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव भी इसी पैटर्न पर फिट बैठते हैं.
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यों पिछले विधानसभा चुनाव से तुलना करें तो वोट के मोर्चे पर बीजेपी को कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ है लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव की तुलना में विधानसभा चुनाव में बीजेपी के वोटों में अच्छी खासी गिरावट आयी है. साफ है कि मोदी का जादू नहीं चला, कश्मीर, रामजन्मभूमि तथा एनआरसी सरीखे दूर-दराज के जान पड़ने वाले राष्ट्रीय मुद्दों के सहारे मतदाता को भटकाने की कोशिश कामयाब ना हुई. बीजेपी को अब इस कड़वी सच्चाई का सामना करना होगा कि जब भी उसके शासन वाले राज्यों में सरकार की परीक्षा होती है, सरकार औंधे मुंह गिरी नजर आती है. बीजेपी को अब सोचना होगा कि उत्तर प्रदेश में वह सत्ताविरोधी लहर से कैसे निपटे और दिल्ली तथा पश्चिम बंगाल में दमदार विरोधी पार्टियों के मुकाबले के लिए क्या सूरत अख्तियार करे.
झारखंड विधानसभा के चुनाव के नतीजों के तुरंत बाद जैसी प्रतिक्रियाएं आयी हैं उनको देखते हुए लगता यही है कि गैर-बीजेपी पार्टियां समझ के मामले में दूसरे किस्म की चूक का शिकार हो जायेंगी. विपक्ष के बहुत से नेता और कुछ टिप्पणीकार मानकर चल रहे हैं कि मोदीराज के अंत की शुरुआत हो चुकी है. कई नेताओं का ये भी कहना है कि झारखंड में जो जनादेश आया है वह दरअसल मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों, इसके सांप्रदायिक अजेंडे तथा एनआरसी पर इकट्ठे एक प्रतिक्रिया के समान है.
लेकिन, ये बात सच्चाई से कोसो दूर है. यह सोचना बस खामख्याली है कि सुदूर पलामू के गांव में रह रहे मतदाता ने सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) पर चल रही बहस को सुनकर वोट डालने के बारे में अपना मन बनाया होगा. फिलहाल तो ऐसा कोई दमदार कारण नहीं दिखता जो लगे कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में बड़ी गिरावट आयी है या फिर मोदी सरकार की कुछ विवादास्पद नीतियों (जैसे कश्मीर मसला) की स्वीकार्यता में भारी कमी हुई है. मन में इस किस्म के खयाल बैठाना सियासी तौर पर आत्मघाती होगा और विपक्ष एक भ्रम के चक्कर में सियासी मैदान में हाथ पर हाथ धरे बैठ जायेगा.
चुनाव परिणाम के एतबार से जो कुछ नजर आ रहा है उसे राजनीति विज्ञान की भाषा में ‘टिकट स्पिलिटिंग’ कहा जाता है. यह टिकट स्पिलिटिंग मतदाता के निर्णय की चतुराई का संकेतक है. पहले के दो दशकों में भारतीय मतदाता ने जिस पार्टी को लोकसभा के चुनाव में वोट दिया उसे ही विधानसभा के चुनाव में भी वोट डाला, चाहे पार्टियों के बीच प्रतिद्वन्द्विता कितनी भी तगड़ी क्यों ना हो. इसके बाद के दो दशक यानि 1970 तथा 1980 के दशक में मतदाताओं ने कुछ इस तरह वोट किया मानो वे प्रधानमंत्री का चुनाव कर रहे हों. 1990 तथा 2000 के दशक में ये रीत उलट गई और मतदाताओं पार्लियामानी चुनावों में कुछ इस तरह वोट डाला मानो अपने सूबे का मुख्यमंत्री चुन रहे हों. अब हम वक्त एक ऐसे मुकाम पर आ गये हैं जहां वोटर अपना वोट डालने के पहले स्थानीय स्तर की अपनी पसंद और उस ठौर को देखने लगा है जहां के लिए वोट डाले जा रहे हैं. कोई आम वक्त होता तो इसे भारत के मतदाता परिपक्व होने की सूचना के रूप में पढ़ा जाता.
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लेकिन, ये कोई आम वक्त नहीं है, हम एक निहायत ही गैरमामूली वक्त में रह रहे हैं. चुनावी प्रतिद्वन्द्विता का खेल उस घड़ी खेला जा रहा है जब हमारे गणतंत्र का सांस्थानिक ढांचा एकबारगी चरमरा चुका है. ऐसे वक्त में सत्तापक्ष तनिक भी कमजोर होता दिखे तो लोगों को राहत महसूस होगी. लेकिन सकून का ये अहसास गुमराह करने वाला हो सकता है. राज्य स्तर पर अपने लिए समर्थन को घटता देखकर सत्तापक्ष टिकट स्पलिटिंग के तर्क का इस्तेमाल करते हुए केंद्र के स्तर पर अपनी पकड़ कायम रखने की चाल चल सकता है. ऐसे में बहुत संभव है कि सत्ता निरंतर केंद्र सरकार के हाथ में सिमटती चली जाये और राज्य सरकारों की हैसियत चमकदार म्युनिस्पैल्टीज से ज्यादा ना रह जाय. क्षेत्रीय दल अपनी कूबत और दूर तक सोच पाने की काबिलियत के लिहाज से कमजोर हैं और इस कमजोरी के पेशेनजर बहुत संभव है कि राज्यों में अपने लिए समर्थन की जमीन के सिकुड़ने के बावजूद सत्तापक्ष हमारे गणतंत्र की बुनियाद को कमजोर करते जाने के अपने खेल में आगे बढ़ता जाय. एक वाक्य में कहें तो मामला ये है कि राज्यों में हो रही चुनावी जीत को विकल्प के रूप में नहीं देखा जा सकता, सत्तापक्ष को राष्ट्रीय राजनीति की जमीन पर पटखनी देनी होगी.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)
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