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Saturday, 23 November, 2024
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संरक्षणवादी लॉबी का साथ देकर मोदी सरकार भारत को 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था नहीं बना सकती

देश अब अपने अंदर ज्यादा देख रहा है. तो सिस्टम उदार और ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी कैसे होगी? प्रतिस्पर्द्धी जो प्रतिस्पर्द्धी नहीं उन्हें बाज़ार से बाहर कर रहे हैं. इस तरह तो अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन की नहीं होने वाली!

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इस तथ्य से पीछा छुड़ाना मुश्किल है कि अर्थव्यवस्था पर मंडराते बादल और काले होते जा रहे हैं. इसकी वजह सिर्फ वे घटनाएं नहीं हैं, जो सामने घट रही हैं बल्कि वे कदम भी हैं जो सरकार उनके जवाब में उठा रही है. भारत की अपनी रेटिंग को लेकर मूडी ने जो चेतावनी जारी की है वह सिर्फ आर्थिक संभावनाओं में आ गए बदलावों का संज्ञान भर लेना हो सकता है क्योंकि रेटिंग एजेंसियां प्रायः सुस्ती से प्रतिक्रिया करती हैं और बदलाव के संकेतों से पीछे-पीछे चलती हैं.

ज़्यादातर भविष्य वक्ताओं (और हर किसी को) को उस जोखिम की चिंता करनी चाहिए जो जुलाई-सितंबर वाली तिमाही में आर्थिक वृद्धि में मामूली उछाल की (जो कि भले ही आधार-अवधि से संबन्धित तुलना में निरंतर परिवर्तन के चलते हो) उनकी उस उम्मीद से जुड़ी होती है जो पूरी नहीं हो सकती है. और इसकी वजह वह गिरावट होती है जो कई कारणों से खुद-ब-खुद बढ़ती जाती है.


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एक वित्तीय संकट मजबूत होता जा रहा है, जो वित्त आयोग की रिपोर्ट आने पर स्पष्ट हो जाएगा— खासकर तब जब यह राज्यों के टैक्स शेयर में हाथ डालने के लिए केंद्र सरकार के बकाया विशाल बिलों, छिपे हुए खर्चों, राजस्व में कमी, आदि के आंकड़ों को प्रस्तुत करेगी. सरकार वोट की खातिर लोकहित कार्यक्रमों पर खर्च कर रही है तो कोई आपत्ति क्यों करेगा, लेकिन सवाल यह है कि इन सबके लिए पैसे जुटाने के क्या कदम उठाए जा रहे हैं?

साथ ही पूंजी का गलत उपयोग हो रहा है या उसे बर्बाद किया जा रहा है. वित्त सेक्टर एक गड्ढा है. सार्वजनिक क्षेत्र और ज्यादा नकदी हड़प लेता है. ताजा उदाहरण दो दिवालिया फोन कंपनियों को मोटी गड्डी दिए जाने का है, जो अपने कर्मचारियों को वेतन तक नहीं दे पा रही हैं. रेलवे ने भारी नकदी ले ली है लेकिन अपनी ट्रैफिक और कमाई में वह अब तक शायद ही कोई वृद्धि दिखा पाया है. उधर, दिवालिया घोषित होने की प्रक्रिया अपनी कीमत वसूल रही है.

गैरजिम्मेदार मुख्यमंत्री ऊर्जा करारों को रद्द करके भी पूंजी बर्बाद कर रहे हैं. सेक्टरों का कुप्रबंधन करने वाले रेगुलेटर (जैसा कि टेलिकॉम में हुआ) भी पूंजी को थोक रूप में बर्बाद करते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी मदद नहीं की है. आर्थिक वृद्धि की संभावनाओं को बचत और निवेश की अभी भी ऊंची दरों ने सहारा दे रखा है लेकिन अगर निवेश का पैसा विभिन्न गड्ढों में— जिनमें से एक है रियल एस्टेट— गायब हो जाता है तो इसका कोई मतलब नहीं है.

चिंता की बड़ी बात यह है कि जिम्मेदार लोग निरंतर खंडन कर रहे हैं, शायद उन्हें स्थिति की गंभीरता का एहसास भी नहीं है. बड़े क्षेत्रीय व्यापार करार से बाहर रहने का फैसला शायद मजबूरी में ही किया गया. लेकिन यह दिखावा बेवकूफी ही है कि यह फैसला साहसी नेतृत्व का सबूत है. जब ढाका के पूरब के सारे देश करार करने को राजी हैं और भारत नहीं राजी है, तो साफ है कि भारत के साथ कुछ गड़बड़ है. यह पिछले पांच साल में नेतृत्व की नाकामी को ही दिखाता है— सुधारों के मामले में नाकामी, उदारीकरण के लिए तैयार होने में नाकामी, और दुनिया में सबसे तेजी से वृद्धि कर रहे सबसे बड़े क्षेत्र से जुड़ने में नाकामी को.

यह तर्क झूठा है कि पिछले मुक्त व्यापार समझौते भारत के हक में नहीं रहे हैं; उनसे थोड़ा फर्क पड़ा. यह डर वास्तविक या नकली हो सकता है कि हमारा बाज़ार चीनी माल से पट जाएगा, लेकिन चीन के साथ व्यापार असंतुलन पूरी कहानी नहीं कहता. इस क्षेत्र के लगभग सभी देशों के साथ भारत का व्यापार असंतुलन है. विकल्प के तौर पर द्विपक्षीय वार्ता की जो बातें की जा रही हैं वे अभी शुरू भी नहीं हुई हैं. ऑस्ट्रेलिया के साथ खुलेपन का अर्थ है कृषि क्षेत्र को खोलना; न्यूजीलैंड के मामले में डेरी क्षेत्र को खोलना; और आशियान देशों के मामले में कृषि के अलग-अलग क्षेत्रों को खोलना. जहां तक ‘ऐक्टिंग ईस्ट’ से ‘लूकिंग वेस्ट’ की ओर मुड़ने की बात है, अमेरिका के साथ व्यापार करना आसान नहीं होगा, भले ही वह विश्व व्यापार संगठन में व्यापारिक विवादों में मुंह की खा रहा है.


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दावा किया जा रहा है कि हम बाद में जुड़ जाएंगे, लेकिन जिन घरेलू लॉबियों की जीत हुई है वे संरक्षणवादी हैं और वे सरकार के नीति निर्धारकों के आगे हथियार क्यों डालेंगी? शुल्कों को कम करने, कृषि उत्पादन को बढ़ाकर दोगुना करने, बिजली दरों में क्रॉस सब्सिडियों को खत्म करने का— जिससे उद्योगों पर बोझ न पड़े— समयबद्ध ऐक्शन प्लान कहां हैं? या संगठित रिटेलरों को निरुत्साहित करके क्षेत्रीय सप्लाई चेन में शामिल होने की योजना कहां है? सरकार ने शुल्कों को बढ़ा दिया और एंटी डम्पिंग का मसीहा बन गई. देश अब अपने अंदर ज्यादा देख रहा है. तो सिस्टम उदार और ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी कैसे होगी? प्रतिस्पर्द्धी जो प्रतिस्पर्द्धी नहीं हैं उन्हें बाज़ार से बाहर कर रहे हैं. घाटा उठाने वाले जीत रहे हैं. इस तरह तो अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन की नहीं होने वाली!

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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