अगर अनुमान लगाने वाले सही हुए और तेल कीमत 100 या 120 डॉलर तक पहुंची तो हम छठी बार इस झटके के शिकार हो सकते हैं. यानी अर्थव्यवस्था को छठा झटका लगेगा.
जब वर्ष 2014 के मध्य में नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने, उस समय कच्चा तेल 120 डॉलर प्रति बैरल पर था. जनवरी 2016 में यह घटकर 29 डॉलर प्रति बैरल तक आ गया. दामों में तेज़ी आने से एक वर्ष पहले यह 50 डॉलर प्रति बैरल के स्तर को पार कर गया था.
दिसंबर 2017 तक यह 60 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर चला गया था. मई में यह 70 डॉलर और अभी 80 डॉलर प्रति बैरल को पार कर चूका है. तमाम लोग अनुमान लगा रहे हैं कि ईरान पर प्रतिबंध लागू होने के बाद यह 100 डॉलर का स्तर पार कर जायेगा. कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि 2019 में यह 120 डॉलर प्रति बैरल तक जा सकता है. अगर ऐसा होता है तो हम एक बार फिर वहीं पहुंच जाएंगे जहां पर थे. इसी बीच डॉलर के मुकाबले रुपया गिरा है और करों में इज़ाफा हुआ है, ऐसे में पेट्रोल ही नहीं डीज़ल की कीमतें भी तीन अंक के आंकड़े तक पहुंच सकती है.
जब भी तेल कीमतों में तेज़ी आयी है, तब देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है. अक्सर यह अन्य कारकों के कारण से हुआ है. वर्ष 1973-74 में जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत खराब फसल उत्पादन वाले वर्ष में अचानक एक साल के भीतर दोगुनी बढ़ गई थी और मौजूदा मूल्य के हिसाब से 46 डॉलर हो गई थी (सारे मूल्य डॉलर के 2017 के मूल्य से हैं ताकि तुलना आसानी से हो सके). उस समय भारत की वृद्धि दर में गिरावट हुई थी और मंहगाई दर में तेज़ी से इज़ाफा हुआ था. तेल का दूसरा झटका सन 1979-80 में लगा जब तेल कीमत 111 डॉलर तक गई थी. उस वर्ष भी फसल पैदावार खराब थी और जीडीपी पर नकारात्मक असर पड़ा. जीडीपी 5 प्रतिशत तक काम हो गया था.
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तीसरा झटका प्रथम इराक युद्ध के समय अल्पावधि की मूल्य वृद्धि से लगा था. सन 1990 में कच्चे तेल का औसत मूल्य 43 डॉलर प्रति बैरल था लेकिन उतना भर देश को 1990-91 के विदेशी मुद्रा विनिमय के संकट में डालने के लिए काफी था. वर्ष 2008 का तेल का झटका (औसत मूल्य 104 डॉलर, जबकि उच्चतम स्तर कहीं अधिक था) उसी वर्ष आए वित्तीय संकट के साथ आया था. इन्ही दोनों वजह से जीडीपी वृद्धि में तेज़ी से गिरावट आयी थी. तेल कीमतें वर्ष 2011 से 2014 तक लगातार उच्चतम स्तर पर थी इस पुरी अवधि में कीमतें 90 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर हो रहीं और देश का चालू खाते का घाटा वर्ष 2012-13 में जीडीपी का 4.8 फीसदी तक जा पहुंचा. यह एक दशक का सबसे निम्नतम स्तर था.
अगर अनुमान लगाने वाले सही हुए और तेल कीमत 100 या 120 डॉलर तक पहुंची तो हम छठी बार इस झटके के शिकार हो सकते हैं. यानी अर्थव्यवस्था को छठा झटका लगेगा. व्यापार घाटा, महंगाई, रुपये का बाह्य मूल्य और आर्थिक सभी दबाव में आ सकते है. चालू खाते का घाटा पहले ही ज़ोखिम भरी स्थिति में है जो जीडीपी के 3 फीसदी के आसपास है आगे और बढ़ सकता है. रुपये में और भी गिरावट आ सकती है. अगर सरकार पेट्रोलियम उत्पादों पर कर कम करके उपभोक्ताओं पर से दबाव हटाती है तो राजस्व का नुकसान राजकोषीय आंकड़ों को नुक्सान पहुंचाएगा. अगर महंगाई दर बढ़ी और आरबीआई अपने महंगाई लक्ष्य पर टिकी रही तो उच्च ब्याज दर निवेश और खपत को प्रभावित करेगी. इसके कारण वृद्धि दर में कमी आएगी. तेल की कीमतों और समस्याओं से निपटना ही सरकार की क्षमता का परीक्षण करेगा.
तेल के कारण हुए हर संकट के वक्त या तो सरकार बदली या राजनीतिक संकट उत्पन्न हुआ. सन 1973-74 में तेल के संकट के कारण कई घटनाएं घटी, महंगाई बढ़ी, फिर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन हुआ बाद में सन 1975 में आपातकाल भी लगा. केवल 2009 के संकट के वक्त राजनीतिक बदलाव नहीं हुआ, उस वक्त मनमोहन सिंह दोबारा प्रधानमंत्री बने.
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क्या सरकार उठापटक के लिए तैयार है? कम समय में कुछ ख़ास कर पाना मुश्किल है. यही वजह है कि अब तक उठाये गए कदम सीमित हैं. इस वर्ष की शुरुआत में की गई शुल्क वृद्धि जैसे कुछ कदम अनावश्यक भी थे. जनवरी से अब तक डॉलर के मुकाबले रुपया 13 फीसदी गिर चुका है और घरेलू उत्पादकों को आयात से पहले ही अच्छा संरक्षण मिल रहा है.
ऐसे में उच्च शुल्क दर फायदा नहीं, नुकसान ही पहुंचाएगी. यह बात पहले से ही संकटग्रस्त विमानन क्षेत्र को और परेशानी में डाल रही है. सबसे अहम बात यही है कि ईरान से तेल खरीदना जारी रखा जाना चाहिए या नहीं. ईरान पर लगे प्रतिबंध के कारण तेल की कीमतों में इजाफ़ा हो रहा है. ईरान से तेल खरीदना जारी रखने से कीमतों में नरमी आ सकती है लेकिन यह अमेरिकी प्रतिबंधों को न्यौता दे सकता है. क्या और देश इसके लिए तैयार है?
बिज़नेस स्टैंडर्ड के साथ विशेष व्यवस्था द्वारा.
Read in English : Modi govt better be prepared for a big oil shock