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Sunday, 22 December, 2024
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नागरिकता संशोधन कानून पारित कराने के पीछे मोदी सरकार की विचारधारा और तत्परता

अपने इस कार्यकाल में मोदी-शाह वाजपेयी 2 नहीं बनना चाहते और न ही कोई काम अधूरा छोड़ना चाहेंगे. यही कारण है कि वो अपने अजेंडे पर तेजी से बढ़ रहे हैं.

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पहले तीन तलाक, फिर अनुच्छेद 370, फिर राम मंदिर पर अदालती फैसले का रास्ता साफ करना, और अब नागरिकता संशोधन कानून, राजनीतिक विश्लेषकों समेत देश के आम लोग विचारधारा के मुद्दों पर मोदी सरकार की तत्परता से हैरान हैं. एक तरफ संघ व भाजपा से जुड़े काडर में उत्साह है तो दूसरी ओर राजनीतिक रूप से खुद को निष्पक्ष कहने वाले लोग सवाल उठा रहे हैं कि आगे पता नहीं और क्या होने वाला है. इस संदर्भ में समान नागरिक संहिता और जनसंख्या कानून का ज़िक्र भी हो रहा है. जो स्पष्ट रूप से मोदी सरकार के आलोचक हैं वे इन मुद्दों के बहाने सरकार की बखिया उधेड रहे हैं और भविष्य को लेकर आशंकाएं भी फैला रहे हैं.

आखिर दूसरे कार्यकाल में सरकार इस अप्रत्याशित गति से काम क्यों कर रही है? सभी जानते हैं कि केंद्र सरकार पर दूर दूर तक कोई खतरा नहीं है. अभी नरेंद्र मोदी की कैबिनेट ने संसद के सिर्फ दो ही सत्रों का सामना किया है. और कुल छह महीने का समय पूरा हुआ है. आम तौर पर सरकारें अपने एजेंडा को लेकर तब चिंतित होती हैं जब कार्यकाल अपने अंतिम पड़ाव पर हो और चुनाव से पहले काम पूरा करने का दबाव बढ़ने लगे.

संघ की सोच और दिशा

इसके कई कारण हैं और ऐसा नहीं है कि सभी कारण चुनावी रणनीति से प्रभावित हैं. इनका संबंध भाजपा-संघ की दूरगामी दिशा और दशा से ज़्यादा है. बेशक इसमें पार्टी का राजनीतिक और सामाजिक विस्तार भी शामिल है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने विचारों को सरकारी नीति-निर्धारण से जोड़ने का पहला मौका मिला वाजपेयी सरकार के दौरान. लेकिन वह सरकार भाजपा-नीत होते हुए भी एनडीए की सरकार ही बनी रही. यानी उसमें संघ के दिल के करीब जो मुद्दे थे उन्हें परे हटा दिया गया. थोड़े बहुत प्रयास मानव संसाधन मंत्रालय में किए गए लेकिन यूपीए के दस दाल में उनका प्रभाव पूरी तरह खत्म कर दिया गया.

आंकड़ों से यह विश्लेषण सिद्ध करना संभव नहीं है कि वाजपेयी सरकार के हारने में कितनी भूमिका विचारधारा के मुद्दों की थी लेकिन भाजपा-संघ के काडर और समर्थक वर्ग में यह चर्चा आम है कि विचारधारा के डगर पर वाजपेयी सरकार कुछ कदम भी नहीं चल पाई और लड़खड़ा गई.

संसद में अनुकुल परिस्थिति

अपने पहले कार्यकाल में भी नरेंद्र मोदी के पास इतना संख्याबल था कि वे विचारधारा से जुडे मुद्दों पर काम करें और कुछ हद तक किया भी. मगर उससे बड़ी चुनौती देश को यह भरोसा दिलाने की थी कि उनके नेतृत्व में जो गैर-कांग्रेसी सरकार बनी है वह केवल एक कार्यकाल वाली चार दिन की चांदनी नहीं है बल्कि एक लंबी अवधि का शासन है. इसीलिए उन्होंने पहले पांच साल प्रशासनिक मज़बूती, सरकारी तंत्र को चुस्त-दुरूस्त करने, विदेश नीति का प्रभाव बढ़ाने और देश भर में भाजपा के भौगोलिक विस्तार में लगाया. अब संख्याबल तो ज़्यादा मजबूत है ही, राज्यसभा में भी स्थितियां पहले से कुछ अनुकूल हैं. इसके अलावा गैर एनडीए क्षेत्रीय दलों को भी लगने लगा है कि यह सरकार जल्दी जाने वाली नहीं है लिहाजा उनका भी बिलों पर सहयोग मिलने लगा है.


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ऐसे में केंद्र की मोदी सरकार एक दिन का समय भी व्यर्थ नहीं गंवाना चाहती क्योंकि अनुच्छेद 370 हटाना हो या नागरिकता संशोधन विधेयक – ये ऐसे मुद्दे हैं जिनपर विधेयक पारित कर देने से ही काम खत्म नहीं हो जाता. बल्कि वास्तविक काम तो अब शुरू होता है. सीएबी का एजेंडा तब तक पूरा नहीं होता जब तक राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार न हो जाए. और इसके लिए गृह मंत्रालय समेत हर राज्य प्रशासन को काफी समय की ज़रूरत होगी. इसी प्रकार सीएबी के बाद उन छह चिन्हित वर्गोंं को नागरिकता देने की प्रक्रिया को भी संभालना होगा. जबकि जम्मू कश्मीर में कम से कम पांच लाख जनसंख्या ऐसी है जो अब स्टेट सबजेक्ट खत्म होने के बाद वोट देने की हकदार है. वहां की जनसांख्यिकी और भौगोलिक संतुलन के लिहाज से नया परिसीमन भी कराना होगा और नए मतदाताओं का नाम दर्ज भी.

इन नए कानूनों से एक ओर जहां संघ के वैचारिक परिकल्पना को ज़मीन पर उतारने में ज़बरदस्त बढ़त मिली है वहीं भाजपा को नए समर्थक मिलना भी तय है. जैसे बांग्लादेश से आए हिंदू, पाकिस्तान से आए हिंदू व सिख और कुछ ऐसे वर्ग जो जम्मू कश्मीर के निवासी होकर भी 370 के कारण स्टेट सबजेक्ट से वंचित थे. शुद्ध चुनावी दृष्टि से देखें तो यह भी अच्छी रणनीति कही जाएगी.

कार्यान्वयन पर होगी नज़र

लेकिन सवाल सिर्फ इन कानूनों को मजबूती से ज़मीन पर लागू करना ही नहीं है. इसके साथ साथ मोदी को गवर्नेंस यानी प्रशासनिक सुदृढ़ता और विकास पर भी ध्यान देना है. यही कारण है कि सरकार विचारधारा से जुडे मुद्दे, जो राजनीतिक रूप से विवादास्पद हो सकते हैं, उन्हें जहां तक संभव हो पहले साल में ही निपटा देना चाहती है ताकि आने वाले चार साल प्रशासन और विकास पर फोकस कर सके. दूसरा कारण यह भी है कि राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजों में फेरबदल होने से राज्यसभा में भी संख्याबल प्रभावित होता रहता है.

2019 के लोकसभा चुनाव के समय भाजपा के घोषणापत्र में पहला विषय लिखा था राष्ट्र सर्वप्रथम. इस विषय के अंतर्गत पार्टी ने राष्ट्रीय सुरक्षा, आंतरिक सुरक्षा और उन मुद्दों को सूचीबद्ध किया था जो विचारधारा का एजेंडा कहे जाते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि छह महीने में ही सरकार ने साबित कर दिया है कि घोषणापत्र का पहला विषय सरकार की भी पहली प्राथमिकताओं में है. इन कठोर फैसलों के ज़रिए मोदी-शाह की जोड़ी ने वैचारिक स्तर पर उन काडरों और समर्थकों को मज़बूती से अपने साथ कर लिया है जो इस सरकार को केवल एक शासनिक व्यवस्था ही नहीं बल्कि सभ्यता और ऐतिहासिक बदलाव के हथियार के रूप में देख रहे हैं. मोदी सरकार बार-बार यह साबित कर रही है कि संख्याबल उसी को मिलता है जिसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति हो और दूरगामी परिवर्तन के लिए कठोर फैसले ही विकल्प है.

(लेखक प्रसार भारती में सलाहकार हैं और करंट राजनीति पर लिखती हैं, यह लेख उनके निजी विचार हैं )

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