बुलंद नवाब मीर उस्मान अली खान बेलजियम झाडफ़नूस से रोशन तख्त-ए-निशान से हताशा और गुस्से में अपने राज में चारों ओर धूसर लाल क्रांतिकारी झंडों को फहराते देख रहे थे. 1948 की गर्मियों में भारतीय सेना की दो ब्रिगेड उनके बचे-खुचे तबाह राज में घुस आई. उसके बाद फिर कार्रवाई हुई. इस बार कम्युनिस्ट अलगाववादियों को रौंदने के लिए, जो निजाम के राज को तबाह कर चुके थे और अब पूरे तेलंगाना में भारतीय सत्ता को भी चुनौती दे रहे थे.
इतिहासकार जोनाथन कनेडी और सुनील पुरुषोत्तम ने अपने प्रतिष्ठित अध्ययन में लिखा है, उस क्रूर अभियान में हजारों लोग मारे गए. फर्जी मुठभेड़ और लोगों का गयाब हो जाना आम बात हो गई थी. पूरे के पूरे आदिवासी गांवों को बंदूक की नोंक पर शिविरों में लाकर बसा दिया गया, जिनमें, 1951 की सैन्य खुफिया निदेशालय की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘जीवन की आम जरूरतों’ का इंतजाम तक नहीं था.
पिछले हफ्ते नरेंद्र मोदी सरकार ने असम, मणिपुर और नगालैंड के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (एएफएसपीए या आफ्सपा) को हटाने का फैसला किया. इस ऐतिहासकि पहल से कश्मीर सहित दूसरे अशांत क्षेत्रों से भी आफ्सपा को उठाने की मांग नए सिरे से उठ सकती है. नई दिल्ली को उन पर भी गौर करना चाहिए.
भारत के अपने दर्दनाक अनुभवों और दुनिया भर के सबक से आफ्सपा के फैसले पर तीन बुनियादी सवालों के जवाब जरूरी हो जाते हैं. क्या भारत की दशकों पुरानी अलगाववाद विरोधी मुहिम से वाकई राजनैतिक हिंसा के खात्मे में मदद मिली है? क्या हिंसक विचारधारा संबंधी टकरावों से निपटने के लिए सेना का इस्तेमाल सही है? और, आखिर में, क्या विकल्प हो सकते हैं?
अलगाव विरोधी कार्रवाइयों का संदिग्ध फायदा
पीढिय़ों से अलगाववाद विरोध पर भारत में बहस अजीब ढंग से भुला-सी दी गई है. मसलन, मिजोरम को कामयाब कहानी की तरह पेश किया जाता है, जहां वर्षों की अलगाववाद विरोधी मुहिम से एक टिकाऊ राजनैतिक सुलह हुई. हालांकि इस दौरान हुई क्रूरताएं सिर्फ फुटनोट का हिस्सा बन गईं. मसलन, अफसरशाह विजेंद्र सिंह जाफा ने दर्ज किया कि कैसे गांववालों को अपनी फसल और घरों में आग लगाने पर मजबूर किया गया, ताकि अलगाववादियों से समुदाय का नाता तोड़ा जा सके.
हालांकि निर्मम सैनिक उपायों से बेहद खराब किस्म की स्थिति पैदा हुई. जाफा ने दर्ज किया कि 1986 में सरकार ने शांति समझौते पर दस्तखत किए, जिसमें ‘अलगाववादियों को कांग्रेस (आइ) के पाले में शामिल किया गया और उस तबके की समृद्धि के अकूत पैसे दिए गए.’ इसी तरह पूर्वोत्तर में शांति की कीमत भ्रष्टाचार और बेतुकी राजनीति थी.
सैन्य ताकत के सीमित नतीजे का तेलंगाना और स्पष्ट उदाहरण है. 1946-1951 में माओवादी बगावत को रौंदने से 1960 और 1970 के दशक में उसके दूसरे चरण को नहीं रोका जा सका, इस बार वह पश्चिम बंगाल और बिहार में भडक़ उठा. 1990 के दशक में शुरू हुए उसके तीसरे चरण को सीमित तो किया जा सका, लेकिन अभी भी बहुत जानें जा रही हैं.
ऐसे सबूत काफी हैं कि बलों के भारी इस्तेमाल से नतीजे उलटे ही होते हैं. नवंबर 2009 में तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिंदबरम ने संपूर्ण नियंत्रण और निर्माण करने के चर्चित उग्रवाद विरोधी सिद्धांत के तहत बस्तर में बड़ी मात्रा में केंद्रीय बल भेजा. उनके गृह सचिव कृष्ण पिल्लै ने ऐलान किया, ‘सुरक्षा बलों के वहां पहुंचने और इलाके में दबदबा कायम करने के 30 दिनों के भीतर हमें नागरिक प्रशासन बहाल करने के काबिल हो जाना चाहिए.’
2009 में मृतकों की संख्या 359 हो गई, जो 2008 में दर्ज 169 से काफी ज्यादा थी. उस ऐलान का नतीजा यह हुआ कि हिंसा के खात्मे के अभियान में और हिंसा हुई.
कश्मीर में 1990 के दशक में आम लोगों के खिलाफ भारी हिंसा हुई थी, मगर 2003 के बाद से हिंसा में काफी कमी आ गई थी. हालांकि कोई यह पूछ सकता है कि उसकी प्राथमिक वजह सैन्य ताकत का इसतेमाल था, या सीमा पार जेहादियों का समर्थन घटाने का पाकिस्तानी फौज का रणनीतिक फैसला था. 1990 से 1996 और फिर 1999 से 2003 तक हिंसा में इजाफा पाकिस्तानी फैसले की वजह थी. भारतीय सेना की मौजूदगी से कोई फर्क नहीं आया था.
इससे भी अहम यह है कि हिंसा के स्तर में कमी से सामाजिक और राजनैतिक स्थिरता नहीं आई, जिसे अलगाव विरोधी कार्रवाइयों का अंतिम मकसद बताया गया. 2003 में हिंसा घटने के बाद तीन दफा 2008, 2010 और 2016 में सरकार को इस्लामी जेहादियों के बड़े पैमाने पर हिंसक घटनाओं की चुनौती झेलनी पड़ी.
आजादी के बाद कई दशक तक राज्य का सुरक्षा तंत्र कमजोर बना हुआ था. कूछ ही राज्यों में सक्रिय पुलिस बल है और खुफिया तंत्र पर काफी दबाव है. कश्मीर जैसा कोई संकट भडक़ उठे तो व्यवस्था बनाए रखने के लिए सेना ही एकमात्र विकल्प है. फिर भी सरकार के दमनकारी औजार तो बढ़े, उसकी सोच विकसित नहीं हुई.
‘दिल और दिमाग’ का मिथक
भारतीय सेना और पुलिस अकादमियों की शिक्षा लंबे वक्त से अंग्रेजी दौर की बगावत विरोधी अनुभव पर आधारित है. उस सिद्धांत के मुताबिक भारी मात्रा में बल की तैनाती की जानी चाहिए, ताकि उग्रवादी आबादी में घुस कर अपनी गतिविधियों का संचालन न करें. उसके बाद सेना के कमांडरों को विकास और इंसाफ के जरिए स्थानीय लोगों का समर्थन हासिल करना चाहिए. कई मामले इस सिद्धांत से एक ही साझा समस्या से नतीजे निकले कि यह सब झूठ है.
इतिहासकार कैरोलिन एल्किंस ने दिखाया है कि केन्या में ब्रितानी उग्रवाद विरोधी मुहिम से आखिरकार बड़ी संख्या में आबादी कंसन्ट्रेशन कैंप में पहुंच गई और दमन तथा बलात्कार का शिकार हुई. ‘दिल और दिमाग’ रणनीति के पैरोकार गेराल्ड टेंपलर पर पॉल डिक्सन के काम से जाहिर होता है कि मलाया में वहशी दमन ही आम बात थी.
केन्या में एक माउ-माउ उग्रवादी की अपनी पूछताछ के बारे में ब्रिटिश स्पेशल फोर्स के एक अफसर ने यादकर बताया, ‘मैंने उसके अंडकोष काट दिए. उसके कान कट गए थे और दाहिनी आंख बाहर झूल रही थी. बहुत गलत था, हम कुछ उससे निकाल पाते, उसके पहले ही वह मर गया.’
उस वहशी रवैए से अफ्रीका से अंग्रेज हुकुमत के खत्म होने में थोड़ी देर जरूर हुई और मलाया पर कब्जा बनाए रखने में मदद नहीं मिली. ब्रितानी बगावत विरोधी कार्रवाइयां रणनीतिक रूप से नाकाम रहीं.
अल्जीरिया में स्पेशल फोर्स के अफसर रोजर ट्रिंक्यूर ने बताया कि फ्रांस का सामना ‘उन्हीं हथियारों और तरीकों के साथ दुश्मन से हुआ, जिनकी उसकी फौज ने अनदेखी की थी.’ उन्होंने बताया, ‘हमारी मिलिट्री मशीन हमें याद दिलाती रही कि एक पाइल ड़ाइवर एक मक्खी को मारने में ही जूझता रहा.’
ऐसी चुनौती से सामना पड़ा तो ट्रिंक्यूर ने दमन के साथ अनियमित उपायों के इस्तेमाल की दलील दी. फ्रांस ने नतीजे में अपनी सैनिक कामयाबी को दर्ज किया लेकिन लोग इस कदर खिलाफ हो गए कि रणनीतिक हार अनिवार्य हो गई. पत्रकार नील शीहान ने अपनी किताब ए ब्राइट शाइनिंग लाई में विएतनाम के ऐसे ही अनुभवों का जिक्र किया.
कानून के राज की ओर
दुनिया भर के अनुभव यही दिखाते हैं कि समस्या आफ्सपा में नहीं है. उससे भारतीय सेना को कुछ बचाव मिलता है, जो उन्हीं स्थितियों में पुलिस बलों को नहीं हासिल होता. आफ्सपा का सबसे विवादास्पद प्रावधान सैनिकों का मुकदमे या मानवाधिकार उल्लंघनों से बचाव करता है, लेकिन लगभग ऐसे ही प्रावधान देश भर में पुलिस के लिए भी हैं. असली समस्या यह है कि सेना विचाराधारात्मक अभियानों, आबादी में घुलेमिले दुश्मनों से लोहा लेने के लिए नहीं होती है.
मोदी सरकार अगला कदम कश्मीर में उठाने की तैयारी कर रही है तो उसे खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि सैनिकों की इतनी भारी तैनाती से क्या कोई सार्थक नतीजा निकल रहा है.
एक तो कश्मीर में तैनात सैनिकों की तादाद में हिंसा के स्तर में गिरावट के साथ कोई बदलाव नहीं आया है. कितनी तैनाती है, इस बारे में कोई सरकारी आंकड़े नहीं हैं, लेकिन 2007 में तत्कालीन उत्तरी कमान प्रमुख एच.एस. पनाग ने कहा था कि राज्य में तैनात 3,37,000 जवानों में एक-तिहाई उग्रावद विरोधी मुहिम से जुड़े हैं. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, महज पिस्तौल से लैश करीब 250 आतंकी ही सक्रिय हैं, तब इतनी बड़ी तादाद में सेना की तैनाती का कोई तुक नहीं बनता है.
दूसरे, जम्मू-कश्मीर पुलिस ने राज्य के शहरों में आतंकवाद से लडऩे की अच्छी काबिलियत दिखाई है, जहां फौज तैनात नहीं है.
तीसरे, केंद्रीय और राज्य पुलिस बल ने दिखाया है कि वे सरकार को दी जाने वाली चुनौतियों से निपट सकते हैं. राज्य पुलिस केंद्रीय बलों की मदद से कश्मीर में अगस्त 2019 में विशेष दर्जा हटाए जाने के बाद शांति कायम करने में कामयाब हुई है.
अलबत्ता खतरे मौजूद हैं और आशंका यह भी है कि पाकिस्तान जेहादियों की बड़े पैमाने पर मदद शुरू कर दे, लेकिन भारत की खुफिया एजेंसियां 1990 जैसे संकट के आने के पहले आगाह करने के काबिल हैं. फिर, उग्रवाद विरोधी मुहिम से हटाए गए बलों को नियंत्रण रेखा पर लगाया जा सकता है और जरूरत पडऩे पर फौरन बुलाया जा सकता है.
कश्मीर में उग्रवाद विरोधी मुहिम में सेना की बड़े पैमाने पर तैनाती से कोई मकसद नहीं सधता. उलटे, अलगाव को बढ़ावा मिलता है और लोगों में गुस्सा भडक़ता है. इसके अलावा नागरिक प्रशासन और संस्थाएं भी अपनी जिम्मेदारियों से हाथ झाड़ लेती हैं. देश के ऊंच-नीच भरे उग्रवाद विरोधी मुहिम के इतिहास से सबक लेकर अब वक्त आ गया है कि ऐसी व्यवस्था पर ध्यान दिया जाए जो आपराधिक न्याय प्रणाली और कानून के राज पर केंद्रित हो.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @praveenswami. विचार निजी हैं.
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