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Monday, 18 November, 2024
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मोदी सरकार को योगदान के लिए जैम को खोलने की जरूरत, पीएम केयर अकेले डिलीवर नहीं कर सकता है

जन धन, आधार, मोबाइल के साथ न केवल भारत सरकार कोरोनोवायरस-संबंधी राहत को कुशलतापूर्वक वितरित कर सकती है, बल्कि नागरिक भी दूसरों की मदद कर सकते हैं.

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यदि हम इस समय कोरोनावायरस के प्रकोप को प्राथमिक राष्ट्रीय नीति की जरुरत माने तो हमारा पहला कर्त्तव्य उन लोगों को राहत देने का काम है, जो लॉकडाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं. वित्तीय समावेशन, विश्वसनीय पहचान और बड़े पैमाने पर मोबाइल इंटरनेट में हुई तरक्की और जैम यानि जनधन, आधार और मोबाइल की ‘त्रिमूर्ति’ के साथ भारतीय समाज के पास उन लोगों को सहायता पहुंचाने का तरीका है, जिसको इसकी ज्यादा जरुरत है.

देश को कमी झेलनी पड़ सकती है

कोरोनावायरस के प्रकोप से होने वाली आर्थिक क्षति इतनी बड़ी होगी कि अकेले सरकार समाज की सभी समस्याओं
को दूर नहीं कर पाएगी. भारतीय अर्थव्यवस्था पर इतनी बड़ी और जटिल है और महामारी का लंबे समय तक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष परिणाम होगा.

इसका मतलब यह है कि भारत एक समाज के रूप में सरकार एक घटक है. सरकार के पास समाज के कमजोर और उत्पादक वर्ग दोनों क्षेत्रों में मदद करने के तरीकों और साधनों को खोजने की एक लंबी चुनौती है, जैसा कि मैंने हाल ही में मिंट में लिखा है, हमें महामारी के बाद पुनर्निर्माण की मध्यम अवधि की चुनौती के साथ राहत और आर्थिक विकास प्रदान करने के विभिन्न कार्यों को संरेखित करने की आवश्यकता है.

नरेंद्र मोदी सरकार ने 1.7 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की है जो कि निश्चित रूप से अपर्याप्त होगी और शायद इस वर्ष इसके चार गुने की आवश्यकता होगी. दूसरे शब्दों में, इस वर्ष राहत के लिए जीडीपी के कम से कम 5 प्रतिशत की आवश्यकता हो सकती है जोकि आम तौर पर केंद्र सरकार द्वारा रक्षा, स्वास्थ्य और मनरेगा पर खर्च की गई राशि से ज्यादा है.

भले ही सरकार को विवेकाधीन खर्चों को कम करना पड़े जैसे राष्ट्रीय राजधानी की रीमॉडलिंग, फिर भी उसके लिए 10 लाख करोड़ रुपये जुटाना मुश्किल होगा. करों में वृद्धि या सेस बढ़ाना उलटा पड़ेगा और वो विकास को सबसे ज्यादा बाधित करेगा जिसकी अभी सबसे ज्यादा जरूरत है.

पीएम केअर के नामकरण को लेकर जहां उत्साह और बेकार का विवाद उत्पन्न हुआ है, वहीं कोविड -19 राहत के लिए ये एक नया सार्वजनिक कोष बनाया गया.  कई राज्यों ने अपने संबंधित मुख्यमंत्री राहत कोष में सार्वजनिक दान की याचना की है, पर सरकार द्वारा प्रशासित इस राहत राशि की सीमित उपयोगिता ही होगी. इस तरह के फंड उस जमाने की देन है जब हमारे पास ऐसी तकनीक नहीं थी कि हम सबसे जरूरत वालों को चिंहित कर उन तक सहायता पहुंचाते.

जैसा कि अर्थशास्त्री अजय शाह ने बताया है कि भारत की प्रशासनिक दक्षता का स्तर ऐसा है कि समाज को तीन रुपये खर्च करने पड़ते जब सरकार एक रुपया करती है . चूंकि पैसा है, भले ही पीएम और सीएम की राहत कोश  सामान्य सरकारी खर्च  की तुलना में अधिक कुशल हैं फिर भी  यह अनुपात नहीं बदलता. सरकार द्वारा चालित कोश लोगों को राहत के लिए धन पहुंचाने का सबसे अक्षम तरीका है.  पर इसका मतलब नहीं है कि हमे इसकी ज़रूरत नहीं है. हमें इसकी ज़रूरत कुछ महत्वपूर्ण कारणों से हैं. इसका मतलब बस ये हैं कि जब भी और जहां भी संभव हो, हमें धन के पुनर्वितरण के लिए कम अक्षम तरीकों का उपयोग करना चाहिए.

लेकिन हमें केंद्रीकृत धन की आवश्यकता है

मैं क्यों कहता हूं कि हमें केंद्रीकृत राहत निधियों की आवश्यकता है? ऐसी स्थितियां हैं जहां भेजे गए एक रुपये के सामाजिक लाभ की लागत तीन रुपये से अधिक होगी और उसे वितरित करने के लिए केवल सरकार के पास आवश्यक मशीनरी है. उदाहरण के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य, टीकाकरण, आपातकालीन खाद्य प्रावधानों, सार्वजनिक आश्रयों और सूचनाओं पर खर्च है, इस मद में आते हैं.

दूसरा कारण यह है कि कुछ संदर्भों में- दूरदराज के स्थानों में या आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों में सरकार शायद एकमात्र एजेंसी है जो सामान वितरित कर सकती है. इसलिए इस तरह की निधियों केअस्तित्व का कारण है, विशेष रूप से इस समय में. और लोगों को, चैरिटीज़ को और व्यवसायों को सरकारों के राहत कोष में योगदान करने का अच्छा कारण है.

नागरिक-से-नागरिक को स्थानांतरण

इस पारंपरिक तरीके से परे, संकट से राहत के लिए एक जरूरी, कुशल और व्यवहार्य तंत्र समाज के सभी घटकों को सीधे जरूरतमंदों की मदद के लिए सक्षम बनाना है. मोदी सरकार को एक नागरिक-से-नागरिक हस्तांतरण योजना शुरू करनी चाहिए जो व्यक्तियों, धर्मार्थों और कंपनियों को सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में पैसा डालने की अनुमति देती हो. हम पहले से ही यह काम अनौपचारिक रूप से करते रहे हैं, जब हम अपने घर में काम करने वालों और पड़ोसियों को कुछ अतिरिक्त पैसा देते हैं. जैम हमे इसे बड़े पैमाने पर करने देता है.

वास्तव में, हमारे पास पहले से ही एक सामाजिक सुरक्षा प्रणाली के लिए सभी आवश्यक सामग्री मौजूद हैं जो कि अनौपचारिक क्षेत्रों के सैकड़ों-लाखों लोगों के लिए भारतीय संदर्भ में समावेशी और व्यावहारिक हैं.

मैंने पहले यह तर्क दिया है कि ’21 वीं सदी के लिए हमें फिर से कल्पना की गई सामाजिक सुरक्षा प्रणाली को बीमा और सेवानिवृत्ति खातों के लिए सरकार को कॉर्पोरेट और सामाजिक योगदान का लाभ उठाना चाहिए. एक सामाजिक सुरक्षा खाते की कल्पना करें, जहां राज्य सरकारें केंद्र के योगदान  में और पैसा डाल सकती है. जहां कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) फंड्स को कर्मचारियों के योगदान  के अलावा इस्तेमाल किया जा सकता है. इसमें धर्मार्थ  संगठन  किसी व्यक्ति के योगदान का पूरक हो सकते हैं. आज ऐसी बहु-योगदान प्रणाली संभव है.’

जरा सोचिए: आप, आपका एनजीओ या आपकी कंपनी आपके जान-पहचान वाले व्यक्ति के जन धन खाते में सीधे कुछ पैसे डालती है, या एक अज्ञात व्यक्ति जिसे आप जनसांख्यिकीय मानदंडों (आयु, स्थान, आय) के आधार पर परिभाषित कर सकते हैं और पैसे डालते हैं और ऐसा कर के कर कटौती को प्राप्त कर सकते हैं. सामाजिक रूप से हस्तांतरित इस रूपये की लागत मूल्य 3 रुपए से कम होगी जोकि एक सरकारी चैनल के माध्यम से किए जाने वाले ट्रांस्फर से होती. यह हमे बेहतर लक्ष्यीकरण की ओर ले जाएगा क्योंकि आप एक सामान्य नौकरशाह की तुलना में जरूरतमंदों की बेहतर पहचान कर सकते हैं.

यह एक मूल विचार है, लेकिन इसके लिए सुरक्षा उपायों की आवश्यकता होगी, जिसे आसानी से लागू किया जा सकता है. कर कटौती की सीमा तय की जा सकती है, एक निश्चित सीमा से ऊपर के दान को सेवानिवृत्ति / स्वास्थ्य सेवा खातों में ले जाया जा सकता है और मानदंड-आधारित दान योजनाओं की पेशकश भी की जा सकती है. मुझे यकीन है कि ऐसे सौ तरीकों के बारे में सोचना संभव है जिनसे  इस तरह की व्यवस्था का दुरुपयोग किया जा सकता है. लेकिन इसे हमें सामाजिक सुरक्षा प्रणाली स्थापित करने से से रोकने का कारण नहीं बनने देना चाहिए, क्योंकि ये मौजूदा स्थिति से बेहतर है.

समाज को सक्षम करें

वास्तव में, स्वयं समाज को बेहतर मदद के लिए सक्षम करना भारतीय परंपरा के अनुरूप रहा है. राजनीतिक सिद्धांतकार पार्थ चटर्जी  रवींद्रनाथ टैगोर के दृष्टिकोण को कुछ इस तरह से पेश करते हैं: ‘भारत में अंग्रेजों के आने से पहले, समाज अपनी पहल के माध्यम से लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए सभी जरूरी कार्यों को पूरा करता था. वह किसी जरूरी कार्यों को करने के लिए राज्य की ओर नहीं देखा करता था. राजा युद्ध या शिकार करने जाते थे, और राज-काज का काम देख रहे कुछ लोग अपने आनंद और मनोरंजन में व्यस्त रहते थे और रियासतों की जरूरतों को उसके हाल पर छोड़ देते थे ऐसे समय में भी समाज अपनी जरूरतों के दौरान परेशान नहीं हुआ करता था. क्योंकि समाज के इन कर्तव्यों को अलग-अलग व्यक्तियों के बीच में ही आवंटित कर दिया जाता था. जिस व्यवस्था से यह सारा काम किया जाता था उसे धर्म कहते थे.’

कोरोनोवायरस महामारी ने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी हैं कि जो अभी तक एक आवश्यकता थी वह अब एक अनिवार्यता में बदल गई है. मोदी सरकार को अपने विचारों को अपने तार्किक निष्कर्ष पर ले जाना चाहिए: सामाजिक सुरक्षा को वास्तव में सामाजिक बनाना चाहिए, केवल सरकार और नियोक्ता के दायित्वों के विपरीत. यह कोरोनोवायरस और लॉकडाउन द्वारा सबसे ज्यादा प्रभावितों को राहत दे कर शुरु की जा सकती है.

(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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