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Wednesday, 18 December, 2024
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जाति आधारित जनगणना नहीं कराने को नीतिगत निर्णय बताकर मोदी सरकार ने अपनी मंशा जाहिर की

नरेन्द्र मोदी सरकार ने जाति आधारित जनगणना नहीं कराने को एक नीतिगत निर्णय बताते हुए अपनी ओर से ऐसे किसी विचार पर विराम लगा दिया है. लेकिन कई राजनीतिक दल इसे आगामी विधानसभा चुनाव में एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना रहे हैं.

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नरेन्द्र मोदी सरकार ने जाति आधारित जनगणना नहीं कराने को एक नीतिगत निर्णय बताते हुए अपनी ओर से ऐसे किसी विचार पर विराम लगा दिया है. लेकिन सत्तारूढ़ राजग गठबंधन के कुछ घटक दलों सहित कई राजनीतिक दल इसे आगामी विधानसभा चुनाव में एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना रहे हैं.

जहां तक किसी नीतिगत मामले में न्यायिक हस्तक्षेप या न्यायिक समीक्षा का सवाल है तो इससे संबंधित अनेक मामलों में शीर्ष अदालत अपनी व्यवस्था दे चुकी. इनमें न्यायालय ने नीतिगत मामले की न्यायिक समीक्षा से जहां इनकार किया है वहीं ऐसे नीतिगत फैसले से मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में इसमें हस्तक्षेप की संभावना से इनकार नहीं किया है.

देश में विनिवेश की प्रक्रिया शुरू होने पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम बाल्को एल्यूमीनियम के विनिवेश से संबंधित Balco Employees Union (Regd.) vs Union Of India & Ors मामले में शीर्ष अदालत की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 10 दिसंबर, 2001 को महत्वपूर्ण व्यवस्था दी थी. पीठ ने कहा था कि सामान्यतः आर्थिक नीतियों से जुड़े मामले की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती. किसी भी नीति के सही होने की परख के लिए उचित मंच न्यायालय नहीं बल्कि संसद है, जहां एक मार्च 2001 को लोकसभा में इस पर एक प्रस्ताव गिर गया था.

इसी तरह, सांसदों और विधायकों की पेंशन के मामले में भी गैर सरकारी संगठन ‘लोक प्रहरी’ की जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2018 में कहा था कि यह निर्णय करने योग्य विषय नहीं है और किसी नीति का चयन करने या उसमें बदलाव करना संसद के दायरे में आता है.


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 सरकार, अदालत और संसद

जाति आधारित जनगणना का मुद्दा इस समय शीर्ष अदालत में लंबित है. सरकार ने एक हलफनामे में जाति आधारित जनगणना नहीं करने के निर्णय को नीतिगत मामला बताया है, इसलिए देखना होगा कि न्यायपालिका अब इस संवेदनशील विषय पर क्या रुख अपनाती है. उत्सुकता की एक वजह इसी विषय पर 2014 का शीर्ष अदालत का निर्णय है जिसमें न्यायालय ने इसे नीतिगत मामला करार दे दिया था.

जाति आधारित जनगणना कराने से संबंधित Census Commissioner & Ors vs R.Krishamurthy प्रकरण में सात नवंबर, 2014 को शीर्ष अदालत ने मद्रास उच्च न्यायालय का आदेश निरस्त कर दिया था. न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने इसे सरकार का नीतिगत मामला बताते हुये अपने फैसले में कहा था कि इस नीति को चुनौती दिए जाने की स्थिति में ही न्यायालय इसमें हस्तक्षेप कर सकता है.

उच्च न्यायालय ने इस मामले में अपने दो आदेशों में कहा था कि 1931 के बाद कभी भी जाति आधारित जनगणना नहीं हुई है जबकि इस दौरान अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गो की आबादी में कई गुना वृद्धि हुई है. ऐसी स्थिति में कमजोर वर्गो के हितों के मद्देनजर 1931 की जनगणना के आधार पर निर्धारित आरक्षण के प्रतिशत में वृद्धि होनी चाहिए.

अब नये सिरे से यह मामला न्यायालय में आने पर सरकार ने कहा है 2011 के सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) सर्वेक्षण के आंकड़ों में काफी विसंगतियां और अशुद्धियां हैं और ये आंकड़े विश्वसनीय नहीं हैं.

केन्द्र सरकार ने इसे प्रशासनिक रूप से अव्यावहारिक बताया है. हो सकता है कि सरकार की नजर में यह अव्यवहारिक हो लेकिन इस जनगणना के हिमायती दलों का सरकार पर दबाव बनाने के प्रयास जारी हैं.

केन्द्र सरकार ने इस 2011 की रिपोर्ट को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया है. महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार 2011 में कराई गई सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग करते हुए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की तो केंद्र को न्यायालय के निर्देश पर यह हलफनामा दाखिल करना पड़ा है.

इस समय THE STATE OF MAHARASHTRA VS UNION OF INDIA & ORS नाम से यह मामला न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष लंबित है जिस पर 26 अक्टूबर को आगे सुनवाई होगी.

महाराष्ट्र सरकार की इसी याचिका के जवाब में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने यह हलफनामा दाखिल किया है. जहां तक 2011 के सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना का सवाल है तो सरकार का दावा है कि यह ‘ओबीसी सर्वेक्षण’ नहीं है जैसा कि आरोप लगाया जाता है, बल्कि यह देश में सभी घरों में जातीय स्थिति का पता लगाने की एक व्यापक प्रक्रिया थी.

सरकार का कहना है कि उसने जनवरी, 2020 में एक अधिसूचना करके जनगणना 2021 के लिए जुटाई जाने वाली सूचनाओं का ब्यौरा तय किया था और इसमें अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति से जुड़े सूचनाओं सहित कई क्षेत्रों को शामिल किया गया लेकिन इसमें जाति की किसी अन्य श्रेणी का जिक्र नहीं किया गया था.

यही नहीं, सरकार का यह भी तर्क है कि 2011 की जनगणना में अनेक विसंगतियों के मद्देनजर ही कैबिनेट ने नीति आयोग के उपाध्यक्ष की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति गठित की थी लेकिन इसके अन्य सदस्यों को कभी नामित नहीं किया और इसका नतीजा यह हुआ कि पिछले पांच साल से इन आंकड़ों पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी.

वैसे देश में जातिगत आधारित जनगणना कराने के लिए पहले से ही एक याचिका शीर्ष अदालत में लंबित है. न्यायालय ने तेलंगाना के एक सामाजिक कार्यकर्ता जी मलेश यादव की इस याचिका पर 26 फरवरी, 2021 को केंद्र और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को नोटिस भी जारी किये थे.

महाराष्ट्र में मराठों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण का प्रावधान करने के लिए बनाया गया कानून निरस्त होने के बाद से उद्धव ठाकरे सरकार भी जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर बहुत ज्यादा सक्रिय हो गयी है.


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विधानसभा चुनाव और जाति की राजनीति

इस मुद्दे पर राजनीति भी गरमा रही है क्योंकि अगले साल उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर विधान सभाओं के चुनाव हैं. इन राज्यों में अन्य पिछड़ी जातियों के मतदाताओं को लुभाने के मकसद से अचानक ही देश में जाति आधारित जनगणना कराने और सरकारी नौकरियों तथा शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से बढ़ाने की मांग तेज हो गयी है.

इन मांगों के जोर पकड़ने में संसद द्वारा हाल ही में संपन्न मानसून सत्र में पारित 127वें संविधान संशोधन का भी योगदान रहा है. इस संविधान संशोधन के माध्यम से अन्य पिछड़े वर्गो की सूची में जातियों को जोड़ने का अधिकार राज्यों को दिया गया है.

केन्द्र सरकार बार बार दोहरा रही है कि उसने जनगणना के दौरान अनुसूचित जाति और जनजातियों के अलावा किसी अन्य आबादी की जाति के आधार पर गणना नहीं करने के 1951 के फैसले के अनुरूप नीतिगत फैसला लिया है. यही नहीं, इसी नीति के अंतर्गत जातियों और जनजातियों की गणना का संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 और संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश 1950 में स्पष्ट उल्लेख है.

जनगणना के संबंध में 1951 से ही नीतिगत मामले के रूप में जाति आधारित जनगणना समाप्त कर दी गयी. इस निर्णय के आलोक में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अलावा किसी अन्य जाति की गणना नहीं की जा रही है.

शीर्ष अदालत में नये सिरे से यह मामला पहुंचा है और उसने केन्द्र तथा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को नोटिस जारी किये थे. जाति आधारित जनगणना नहीं कराने के निर्णय को सरकार भले ही नीतिगत मामला बता रही है लेकिन अगर इस नीति की न्यायिक समीक्षा करने का निश्चय करता है तो बहुत संभव है कि इस प्रकरण को सुविचारित न्यायिक व्यवस्था के लिए संविधान पीठ को सौंप दिया जाए.

स्थिति 26 अक्टूबर को ज्यादा स्पष्ट होने की संभावना है. लेकिन अगर न्यायालय इस पर विचार करने का निश्चय करता है तो निश्चित ही न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से इस विवाद का समाधान संभव हो सकेगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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