लॉकडाउन में पांचवां महीना बीत रहा है मगर कोविड-19 की महामारी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है और अर्थव्यवस्था निरंतर नीचे फिसलती जा रही है. आधुनिक भारत ने ऐसी महामारी पहले नहीं झेली थी, लेकिन इसका आर्थिक प्रभाव जाना-पहचाना है— सुस्त आर्थिक वृद्धि, ऊंची मुद्रास्फीति, और बेहिसाब बुरे कर्जों का घातक मेल. 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट (जीएफसी) के बाद के दौर में भी यही स्थिति थी. इसका अर्थ यह हुआ कि हम ‘जीएफसी’ से सबक लेकर नीतिगत गलतियां करने से बच सकते हैं, खासकर मुद्रस्फीति और बुरे कर्ज़ों के मामलों में.
मुद्रास्फीति का दबाव
पहले मुद्रास्फीति पर विचार कर लें. जीएफसी के बाद भारतीय रिजर्व बैंक ने तेजी से कदम उठाते हुए केवल एक साल में पॉलिसी रेट (केंद्रीय बैंक द्वारा दिए जाने वाले उधार की दर) में 4 प्रतिशत-अंक की कमी कर दी और अक्टूबर 2009 में उसे 4.75 प्रतिशत पर ला दिया. उस समय रिजर्व बैंक को लगा कि वह अपनी मौद्रिक पॉलिसी रेट कम कर सकता है क्योंकि थोक मूल्य सूचकांक (डब्लूपीआइ) काफी गिर गया है. लेकिन मुद्रास्फीति में राहत थोड़े समय के लिए ही रही, डब्लूपीआइ फिर दहाई अंक की रफ्तार से ऊपर चढ़ने लगा और मुद्रास्फीति भी बढ़ने लगी. इन स्थितियों पर काबू पाना मुश्किल साबित होने लगा. अंततः 2013 में ही, जब पॉलिसी रेट्स तकलीफदेह स्तरों पर पहुंच गईं, मुद्रास्फीति कम होने लगी.
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देखा जाए तो तब रिजर्व बैंक ने दो गलतियां की थी. पहली यह कि उसने डब्लूपीआइ पर ज्यादा ध्यान दिया था, जबकि तमाम व्यापक सूचकांक मुद्रास्फीति के मामले में दबाव बढ़ने के संकेत दे रहे थे. 2009-10 में ही, पूर्व उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) एवं औद्योगिक कामगार सीरीज़ 12 प्रतिशत से ऊपर चला गया था. दूसरी और अधिक महत्वपूर्ण गलती यह थी कि डब्लूपीआइ जब ऊपर चढ़ने लगा था तब रिजर्व बैंक ने इसके मद्देनजर कदम उठाने में सुस्ती की, जबकि उसे यह उम्मीद करनी चाहिए थी कि यह वृद्धि अस्थायी रहने वाली थी.
नरेंद्र मोदी की सरकार 2014 में जब सत्ता में आई तो ऐसा लगा था कि वह इस खौफनाक प्रकरण को दोहराने से रोकेगी. उसने मौद्रिक उधार की दरों की एक नयी व्यवस्था लागू की और रिजर्व बैंक से कहा कि वह मुद्रास्फीति को डब्लूपीआइ के बदले ‘सीपीआइ’ के आधार पर तय करते हुए उसे 4-6 प्रतिशत के बीच रखे. उसे यह भि कहा गया कि अगर मुद्रास्फीति लगातार तीन साल 6 प्रतिशत से ऊपर रहती है तो वह सरकार को इसकी वजह बताने की रिपोर्ट देकर बताए कि वह इसे लक्ष्य के दायरे में रखने के लिए क्या कर रहा है.
अब रिजर्व बैंक उस स्थिति से रू-ब-रू है जिससे उसे बचाने के लिए कहा गया था. पिछले 10 महीने से ‘सीपीआइ’ में 6 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि देखी जा रही है. लेकिन रिजर्व बैंक का रुख आज भी वैसा ही है जैसा वैश्विक वित्तीय संकट के समय था. वह ब्याज दरों को बढ़ाने से इस आधार पर कतरा रहा है कि सप्लाइ के मोर्चे पर दिक्कतों के कारण बढ़ी महंगाई अस्थायी है. बेशक ऐसा लॉकडाउन के कारण हुआ है और ये दिक्कतें दूर हो जाएंगी, लेकिन सप्लाइ चेन को दुरुस्त करने में एक साल का वक़्त लग सकता है, तब तक महंगाई जड़ जमा ले सकती है. इसलिए खतरा यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद वे गलतियां फिर दोहराई जा सकती हैं, जो वैश्विक वित्तीय संकट के बाद की गई थीं.
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बुरे कर्जों से संकट
मुद्रास्फीति का तो यह हाल है, बुरे कर्जों का हाल भी देख लें. वैश्विक वित्तीय संकट के बाद सुस्त वृद्धि और ऊंची ब्याज दरों के कारण वे कई निवेश योजनाएं अव्यावहारिक हो गईं, जिन्हें 2004-08 के तेजी वाले दौर में शुरू किया गया था. इसके चलते कई फ़र्मों के लिए बैंक कर्ज का भुगतान करना असंभव हो गया. रिजर्व बैंक ने इसके जवाब में, कर्जों के भुगतान के लिए कई स्कीम प्रस्तुत किए लेकिन समस्या नहीं दूर हुई. बल्कि इन स्कीमों ने ‘आगे बढ़ाओ, बहाने बनाओ’ की नीति को जन्म दे दिया जिसकी आड़ में बैंकों ने बुरे कर्जों को वर्षों तक छुपाए रखा.
दबाव में पड़ीं परिसंपत्तियों की समस्या दूर करने में देरी के कारण अर्थव्यवस्था में कम निवेश और कम वृद्धि का लंबा दौर आया, बैंकिंग सेक्टर ने बड़ा जोखिम उठाने से परहेज शुरू कर दिया. अर्थव्यवस्था इन सबसे अभी उबर भी नहीं पाई थी कि कोविड-19 की महामारी ने आ दबोचा. आशंकाओं के मद्देनजर मोदी सरकार ने ‘दिवाला एवं ऋण शोधन’ से संबंधित ‘इनसॉल्वेन्सी ऐंड बैंकरप्सी कोड’ (आइबीसी) लागू किया और दिवालिया फ़र्मों का मामला तेजी से और पारदर्शिता से निबटाने का निर्देश जारी किया. इसके तहत उन्हें नये तथा वित्तीय रूप से मजबूत मालिकों के हाथ नीलाम करने की व्यवस्था की गई.
आइबीसी के कारण बुरे कर्जों का अनुपात कुछ कम हुआ मगर कोविड के झटके ने समस्याग्रस्त परिसंपत्तियों की नयी लहर पैदा कर दी. रिजर्व बैंक की ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) का अनुपात मार्च 2021 में 12.5 प्रतिशत की नयी ऊंचाई को छू सकता है, भले ही हालात सुधार क्यों न जाएं.
आगे का रास्ता
यह पता नहीं लग रहा है कि इस समस्या से निबटने के लिए अधिकारीगण वास्तव में क्या करने जा रहे हैं. फिलहाल तो सरकार ने दिवालियापन की कार्रवाई एक साल के लिए रोक दी है, जबकि रिजर्व बैंक ने फ्रेमवर्क को दुरुस्त करने की घोषणा की है और इसके लिए वित्तीय दिशानिर्देश सुझाने के वास्ते एक कमिटी का गठन किया है.
अगर नये दिशानिर्देश वही ‘आगे बढ़ाओ, बहाने बनाओ’ की पुरानी नीति पर चले तो नतीजे भी पहले जैसे ही मिलेंगे, या उससे बुरे भी हो सकते हैं क्योंकि 2008 में कॉर्पोरेट और बैंकिंग सेक्टर आज से ज्यादा मजबूत स्थिति में थे लेकिन कोविड के हमले से पहले ही इन दोनों की हालत वर्षों से बैलेंसशीट संबंधी मुश्किलों के चलते काफी खराब हो चुकी है. इसलिए, समस्या समाधान में देरी इस बार ज्यादा महंगी पड़ सकती है. अगर बैंकिंग सेक्टर 2008 के संकट के बाद वाली स्थिति से उलट, निष्क्रिय हो गया तो कर्जदार गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियों (एनबीएफसी) की ओर नहीं मुड़ पाएंगे क्योंकि एनबीएफसी भी अब कमजोर स्थिति में होंगे.
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इसलिए, भारत एक चौराहे पर खड़ा है. मोदी सरकार और रिजर्व बैंक को जल्दी ही यह फैसला करना पड़ेगा कि कोविड-19 के चलते पैदा हुईं आर्थिक समस्याओं से तुरंत और निर्णायक रूप से निबटना है या इस उम्मीद में इंतज़ार करना है कि वे समय के साथ खुद-ब-खुद दूर हो जाएंगी. इस फैसले पर ऊंचे दांव लगे हैं क्योंकि इससे यह तय होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा अगले दशक में क्या रहने वाली है.
2008 के वैश्विक वित्तीय संकट की ओर मुड़ कर देखने से साफ हो जाता है कि निर्णायक रणनीति ही सबसे ज्यादा महत्व रखती है. लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इस सबक को सचमुच सीखा गया है या नहीं. यहां पर अमेरिकी विचारक जॉर्ज सांतायाना की यह हिदायत याद आती है—‘अगर हम इतिहास से सबक नहीं सीखते तो हम इतिहास को दोहराने को अभिशप्त हैं.’
(राजेश्वरी सेनगुप्ता मुंबई, में इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (IGIDR) में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)