मुझे नहीं मालूम आपमें से कितने लोगों ने वंशवादी राजनीति पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बदले विचारों पर गौर किया हो. मोदी लंबे समय से वंशवाद के खिलाफ बोलते रहे हैं. लेकिन, वंशवाद पर उनके विचार में मामूली बदलाव से बीजेपी को वंशवाद करने की छूट मिल जाती है.
न्यूज एजेंसी एएनआई के लिए स्मिता प्रकाश को दिए गए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री मोदी के वंशवाद पर बदले विचार की झलक मिलती है. उन्होंने कहा, जब कोई पार्टी एक परिवार द्वारा पीढ़ियों तक चलाई जाती है, तो सिर्फ़ वंशवाद होता है, गतिशीलता नहीं. जम्मू-कश्मीर से शुरू करें, जहां दो पार्टियां दो अलग-अलग परिवारों द्वारा चलाई जाती हैं, आप हरियाणा, झारखंड, यूपी और तमिलनाडु में इस परिपाटी को देख सकते हैं. वंशवाद की राजनीति लोकतंत्र की सबसे बड़ी दुश्मन है.’
क्या वंशवाद पर मोदी के विचार बदल गए हैं?
पूरी तरह नहीं. यह सीधे वंशवाद पर हमला नहीं था. जैसा कि उन्होंने इंटरव्यू में साफ तौर पर कहा कि वह परिवार की ओर से चलाई जा रही पार्टियों के खिलाफ हैं. वह यहां तक सही हैं. हालांकि, वह वंशवाद पर सीधा हमला करने से बच रहे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी के इंटरव्यू का यह मतलब निकलता है कि अगर आप वंशवाद की वजह से राजनीति में हैं और बीजेपी में शामिल होते हैं, तो यह सामान्य बात है. मोदी ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा जिससे ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह जैसे वंशवाद की पृष्ठभूमि से आने वाले पूर्व कांग्रेसी नेताओं को अपने मान-सम्मान को लेकर चिंतित होने की ज़रूरत है.
मोदी का विरोध सिर्फ़ उन पार्टियों से है जिन्हें वंशवादी परंपरा से आने वाले राजनेता और उनके परिवार चलाते हैं. किसी परिवारवादी पार्टी को छोड़कर वंशवाद के किसी दूसरे रूप से उन्हें कोई समस्या नहीं है. खासकर तब तो बिल्कुल भी नहीं जब कोई वंशवादी राजनेता बीजेपी में शामिल हो रहा हो.
यह भी पढ़ें : राष्ट्रीयकरण ने नहीं, राजनीति ने एयर इंडिया को मार डाला, टाटा की चुनौती उसे जिंदा करने से बड़ी
वंशवाद बुरा है, लेकिन तब नहीं जब…
वंशवादी राजनीति के सीमित विरोध के बावजूद भी मोदी की कथनी और करनी में फर्क दिखता है. अगर वंशवाद की नींव पर खड़ी पार्टियां इतनी ही बुरी हैं, तो बीजेपी अकाली दल से गठबंधन में क्यों थी? और अकाली दल के सुप्रीमो प्रकाश सिंह बादल की बहू हरसिमत कौर को मंत्री पद क्यों दिया गया? बीजेपी महाराष्ट्र में अबतक शिवसेना के साथ गठबंधन में क्यों थी. शिवसेना जिसके संस्थापक के बेटे पार्टी को चलाते हैं. दोनों पार्टियां वंशवाद के उदाहरण हैं. ये दोनों पार्टियां गठबंधन से निकल गईं. क्या यह सच नहीं है कि बीजेपी इन पार्टियों को गठबंधन में जोड़े रखना चाहती थी.
परिवारवादी पार्टियों पर प्रधानमंत्री मोदी के बयान के ठीक एक दिन बाद ही गृहमंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) सुप्रीमो जयंत चौधरी को उत्तर प्रदेश चुनाव में बीजेपी का साथ देने का आग्रह किया था. हालांकि, उन्होंने उस आग्रह को ठुकरा दिया था. जयंत चौधरी आरएलडी के संस्थापक के बेटे हैं और पार्टी पर नियंत्रण रखते हैं.
इससे साबित होता है कि परिवारवादी पार्टियां बहुत बुरी है अगर वह बीजेपी की सहयोगी नहीं हैं.
मोदी वंशवाद पर अपनी स्थिति क्यों बचाव वाली रख रहे हैं और क्यों परिवारवादी पार्टियों के साथ गठबंधन की हकीकत से मुंह मोड़ रहे हैं?
यह भी पढ़ें : कांग्रेस को बचाए रखने का समय आ गया है, यह बात मोदी तो जानते हैं लेकिन गांधी परिवार बेखबर नजर आ रहा है
चुनावी जीत वंशवाद से बड़ी है
मुझे विश्वास है कि मोदी खुद वंशवाद को पसंद नहीं करते. लेकिन, वे चुनाव जीतने के पक्ष में हमेशा रहते हैं. हमेशा उनकी कोशिश यही रहती है कि वह बीजेपी को सत्ता में बनाएं रखें.
अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया को मध्य प्रदेश में कांग्रेस पर चोट करने के लिए बीजेपी में लाना जरूरी है और राज्य में कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना है, तो मोदी ऐसा कर सकते हैं. हो सकता है कि उनका तर्क हो कि सिंधिया पारिवारिक पार्टी नहीं चलाते हैं. अगर बीजेपी को जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह से पार्टी को फ़ायदा मिलता है, तो मोदी को कोई हिचक नहीं होगी. वंशवाद के विरोध से ज़्यादा ज़रूरी चुनाव जीतना है.
परिवारों की ओर से चलाई जा रही पार्टियों से उन्हें परहेज है. पंजाब में अकालियों के बिना बीजेपी का कोई वजूद नहीं था. महाराष्ट्र में सत्ता में आने के लिए शिवसेना की जरूरत थी. बीजेपी के नेतृत्व वाला अकाली गठबंधन जब टूटा तब पंजाब में बीजेपी का कोई भविष्य न रहा. महाराष्ट्र के पिछले विधान सभा चुनावों में जब शिव सेना ने भाजपा के गठबंधन को खारिज कर दिया तब बीजेपी का राज्य में सरकार बनाने का सपना चूर-चूर हो गया.
सवाल है कि जब बीजेपी का वंशवाद विरोध ही विरोधाभासी है, तो पार्टी इसका विरोध ही क्यों करती है. यह भी सच है कि पार्टी इसी गुंजाईश का फ़ायदा उठाती है.
ठीक है कि वंशवाद के कोटे से निश्चित तौर पर मोदी का प्रवेश राजनीति में नहीं हुआ है. हर बार जब वे वंशवाद और पारिवारिक पार्टियों का विरोध करते हैं, तो वे हमें याद दिलाते हैं कि वे चायवाले हैं. वे बताते हैं कि उन्होंने यह सुविधाएं विरासत में नहीं पाई हैं, उनका राजनीति में प्रवेश नए भारत के निर्माण में बहुत ही सामान्य पृष्ठभूमि से हुआ है. और यह एक तरह से सच भी है. तमाम वर्तमान राजनेताओं के विपरीत मोदी एक स्व-निर्मित नेता हैं. इसलिए उन्हें शायद लगता होः क्यों न इसका लाभ लेते हुए सैद्धान्तिक तौर पर वंशवाद का पुरजोर विरोध किया जाए.
साथ ही, मोदी के भाषणों पर गौर करने वालों को पता है कि वे अपनी परिभाषा कांग्रेस को आधार बनाकर गढ़ते हैं. वे नेहरू विरोधी हैं. मोदी खुद को दशकों से चले आ रहे इस भ्रष्ट परिवार का विकल्प मानते हैं. इसलिए, उन्हें हमेशा ही वंशवादी राजनीति का विरोध करना है, भले ही बीजेपी ऐसे तमाम वंशवादी को भर्ती करे. या फिर जिनको वे पारिवारिक पार्टियां बताते हैं उनसे भाजपा का गठबंधन हो.
विडंबना यह है कि मोदी ने पहले ही इस बात को पकड़ लिया था. वंशवाद, भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी खामी है. हमने देखा कि इससे कांग्रेस का क्या हश्र हुआ, लेकिन इसके खतरनाक परिणाम किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं रहा है. वंशवाद से न सिर्फ राजनीति एक पारिवारिक व्यवसाय हो जाती है बल्कि इससे उनके लिए भी रास्ता बंद हो जाता है जो क्षमतावान और महत्वाकांक्षी हैं.
पश्चिम के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में हासिये के लोग राजनीति में अपनी पहचान बना सकते हैं. बराक ओबामा इसके उदहारण हैं. वह अफ्रीकी-अमेरिकन थे. गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि से आने के बावजूद अमेरिका के राष्ट्रपति बने. इसी तरह ब्रिटेन में प्रीति पटेल, ऋषि सूनक जैसे लोग कंजरवेटिव सरकार में आज ऊंचे पदों पर हैं. इनके परिवार दक्षिण अफ्रिका से आया था. इसमें ब्रिटेन के एक अनुभवी मंत्री साजिद जाविद का नाम भी है. साजिद का परिवार पाकिस्तान से आया था. उनके पिता बस ड्राइवर थे.
भारत की स्थिति इसके उलट है और मोदी इसके अपवाद हैं. ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों में ऐसी व्यवस्था है कि अगर आप रसूखदार राजनीतिक परिवार से नहीं हैं, तो बड़ी कुर्सी आपको नहीं मिल सकती. इससे भी खराब बात है कि तमाम पार्टियों में तीसरे और चौथे क्रम में भी उन्हीं लोगों का दबदबा है जो राजनीतिक परिवारों से आए हैं. वे राजनीति में किसी सिद्धांत के कारण नहीं आए, बल्कि उन्हें इसलिए आना पड़ा क्योंकि वे राजनीतिक परिवार से थे.
बीजेपी में तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद, मोदी यहां पर सच होते हैं जब वे कहते हैं कि किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था के नियम उस समय बदल जाते हैं जब कोई परिवार यह तय करने लगता है कि कौन शीर्ष पर रहेगा. इससे किसी का कोई लेना-देना नहीं कि आजादी के बाद की पहली खेप के नेता संपूर्ण थे या उन्होंने जो निर्णय लिए वह सब ठीक ही थे. लेकिन, इस बात को कोई खारिज नहीं कर सकता कि उनकी नैतिक क्षमता आज के नेताओं से कहीं ज्यादा थी. वे या तो स्वतंत्रता संघर्ष के कारण जुड़े थे या राजनीति के एकदम निचले स्तर से शुरुआत की थी. उन्हें पता था कि वे बदलाव ला सकते हैं और कुछ अच्छा कर सकते हैं.
आज की राजनीति में भी कुछ ऐसे लोग हैं. हालांकि, उनकी संख्या अब कम हो रही है. भला क्यों कोई ऐसी राजनीतिक पार्टी में जाना चाहेगा, जहां यह पता हो कि चाहे जितनी भी मेहनत वह कर लें या कुछ भी हासिल कर लें उनके नेता राजनीतिक परिवार से आने वाले होंगे चाहे वे कम योग्य ही क्यों न हों.. ज्यादा से ज्यादा वे करीबी चमचा तक के पद तक पहुंच सकेंगे.
मोदी सोचे-समझे ढंग से वंशवादी राजनीति पर हमला कर रहे हैं. वे अपने भाषणों और साक्षात्कारों में सही बात बोलते हैं. लेकिन, साल-दर-साल उनकी पार्टी वंशवाद की ओर बढ़ रही है.
बीजेपी वंशवाद की अपनी परिभाषा गढ़कर राजनीति में आगे बढ़ने के लिए इसका इस्तेमाल कर रही है.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)