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Monday, 23 December, 2024
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विदेश नीति में पूर्वाग्रह और चुनावी सियासत–क्या मोदी सरकार को ‘स्ट्रैटिजिकली’ भारी पड़ रही है

रणनीति तय करने में मोदी सरकार ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों और भाजपा की चुनावी राजनीति की गिरफ्त से मुक्त नहीं हो पाती, जबकि लद्दाख संकट साफ संकेत दे रहा है कि उसे आत्मविश्लेषण करने, जमीनी हकीकत को समझने और अपनी नीति में सुधार करने की जरूरत है.

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सबसे पहले हम इसकी गिनती कर लें कि रणनीतिक और विदेश नीति के मोर्चों पर नरेंद्र मोदी सरकार के पक्ष में क्या-क्या अच्छी बातें हुई हैं. इस सूची में अमेरिका के साथ संबंध पहले नंबर पर है. चीन जब खलनायकी पर उतर आया है तब दुनिया में अमेरिका ही अकेला ऐसा देश है जो भारत के पक्ष में बेबाक होकर तेज आवाज़ में बोला है— वह भी इस मुकाम पर, बिना कोई लेन-देन या किसी शर्त के साथ. भारत के रणनीतिक इतिहास में ऐसा कम ही हुआ है. तीन दशक पहले शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद से तो ऐसा नहीं ही हुआ था.

ऐसा केवल इसलिए नहीं हुआ है कि अमेरिका भी चीन को हमारी तरह ही नापसंद करता है. उड़ी से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक, पुलवामा, बालाकोट, अनुच्छेद 370 में बदलाव, और अब लद्दाख तक हर प्रकरण में हमें अमेरिकी समर्थन स्पष्ट और बिना शर्त मिला है. अमेरिका-भारत संबंध पाकिस्तान या चीन के मसले पर निर्भर नहीं है.

अच्छी बातों का सिलसिला जारी रखते हुए कहा जा सकता है कि हमारे बड़े क्षेत्रीय सहयोगी, मुख्यतः हिंद-प्रशांत क्षेत्र के, हमारे साथ मजबूती से खड़े रहे हैं— खासकर जापान और ऑस्ट्रेलिया, जो अमेरिका और भारत समेत चार देशों के सुरक्षा समझौते ‘क्वाड’ में शामिल हैं. चीन से खतरे का साझा डर इन्हें आपस में जोड़ता है. फिर भी, बिना शर्त समर्थन बहुत आश्वस्त करने वाला है.


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इसी तरह अरब देश, जो पहले पाकिस्तान की ओर झुके हुए थे, अब बड़े परिप्रेक्ष्य में तटस्थ बने हुए हैं. खास तौर से सऊदी अरब और यूएई, और इजराएल के साथ रिश्ते काफी लाभदायक साबित हुए हैं. तुर्की और क़तर के साथ थोड़ी समस्या है, लेकिन यह हमेशा रही है, भले ही बहाना कुछ भी रहा हो. ये दोनों देश इस्लामी भाईचारे से जुड़े रहे हैं और भारत के प्रति आक्रामक रहे हैं. इस मामले में क़तर तुर्की के मुक़ाबले ज्यादा नफासत बरतता रहा है.

ईरान के साथ रिश्ता बिगड़ रहा है या सुधर रहा है? पिछले कुछ दिनों की खबरें तो गिरावट के ही संकेत दे रही हैं. लेकिन चूंकि चीन और रूस की तरह भारत इतना मजबूत नहीं है कि अमेरिकी प्रतिबंधों को झेल सके इसलिए ईरान या भारत, दोनों के लिए कोई उपाय बचता नहीं है. इसलिए ईरान के मामले में व्यावहारिकता का सहारा लेना ही बेहतर है. पिछले कई वर्षों से अरब देश भारत के आंतरिक मामलों (कश्मीर या सांप्रदायिकता) के प्रति तटस्थ ही रहे हैं, जबकि ईरान बुरी तरह से दखल देता रहा है.

जो भी हो, आप कह सकते हैं कि अब तक जो हुआ वह ठीक ही है. लेकिन अब कुछ बुरी खबरें.

यह विडम्बना ही है कि जो भी ठीक नहीं हुआ वह काफी हदतक उससे पहले काफी हदतक ठीक हुआ करते थे.उदाहरण के लिए, अमेरिका से रिश्ता. दूसरे मामलों के अलावा कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति या सीएए/एनआरसी जैसे मसलों पर अमेरिकी कांग्रेस में बहस के दौरान सरकार ने भारत का भले जोरदार बचाव किया, लेकिन दोनों देशों के बीच कुल रिश्ता लेन-देन के ‘छोटे डील’ के स्तर ही रहा है. वह ‘बड़े’ रणनीतिक गठजोड़ तक नहीं पहुंच पाया है.

इसकी वजह यह है कि मोदी सरकार ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों से न उबर पाने के कारण हिचकते हुए गले लगती रही है. और फिर, रणनीतिक स्वायत्तता का अजीबोगरीब आग्रह भी रहा है. लेन-देन के मामले में ट्रंप के साथ एक छोटे व्यापार समझौते पर दस्तखत करने में भी मोदी की हिचक यही बताती है कि वे पुरानी भारतीय झिझक से मुक्त नहीं हो पाए हैं.

मोदी ने ह्यूस्टन में जाकर बड़ी खुशी से ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’ का नारा लगाया और ट्रंप की दोबारा उम्मीदवारी का समर्थन किया, भले ही इसका अपना संदर्भ भी है, लेकिन एक छोटे व्यापार समझौते को लेकर वे टस से मस नहीं हुए. यह तब है जब कई वादे किए जा चुके हैं, कई झूठी उम्मीदें जगाई गई हैं. ट्रंप ने छोटे-से चुनावी अभियान के मकसद से कोरोना महामारी के शुरू में एक छोटा दौरा भी किया. लेकिन मोदी सरकार की बेतुकी विचारधारा और वैश्विक व्यापार को लेकर बेमानी आशंका भारत के व्यापक रणनीतिक हित पर ग्रहण लगाती रही है.

इस न्यूनतमवाद से आपसी रिश्ते का कुछ भी अछूता नहीं रहा है, चाहे वह सैन्य संबंध ही क्यों न हो. पिछले छह वर्षों में भारत ने अमेरिका से छोटी-मोटी खरीद ही की, कोई बड़ी चीज हासिल नहीं की और न साथ मिलकर कुछ विकसित करने या उत्पादन करने का कोई उपक्रम किया. यह और बात है कि जब चीन ने लद्दाख के दरवाजे पर लात मार कर घुसने की कोशिश की तब आप सी-17, सी-130, अपाशे, चिनूक, एम-777 आदि सैनिक साजोसामान हासिल करने लगे. ये सब अमेरिका से खुदरा खरीद में आए हैं. अगर मोदी सरकार का सोच बड़ा होता तो इनमें से कोई सामान बड़े स्तर पर हासिल करने, उसका मिलकर उत्पादन करने का समझौता किया जा सकता था.


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अभी तक हमने रूस का जिक्र नहीं किया. लेकिन अगर हम यह याद करें कि लद्दाख में जब झटका लगा तब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सबसे पहले रूस ही गए, तो रूस का अब तक जिक्र न करना हमारी भूल ही मानी जाएगी. वहां फटाफट खरीद के दो ऑर्डर दिए गए—एसयू-30 और मिग-29 विमानों के लिए. लेकिन ये ऑर्डर भी छोटे पार्सल के आकार जैसे ही थे. यह यही बताता है कि शीतयुद्ध खत्म होने के 31 साल बाद, आर्थिक विकास के 25 वर्षों के बाद, और अब छह साल के मोदी राज के बाद भी भारत फौजी मामलों में रूस पर निर्भरता से मुक्त नहीं हो पाया है.

यह हमारी विफलता ही मानी जाएगी, खासकर इसलिए कि आज रूस चीन के करीबी सहयोगी के रूप में उभर चुका है. भारत की निर्भरता और कमजोरियों, उसके सामने विकल्पों और साधनों की कमी को जानते हुए वह छोटे स्तर का भी खेल खेल सकता है. उसने चीन को एस-400 दिए हैं, और इसके बाद भारत को भी दिया, और तुर्की को भी दे सकता है. वह अपने और चीन के सिवा किसी का रणनीतिक सहयोगी नहीं है. अगर हमारी विदेश नीति और मजबूत होती तो यह निर्भरता कम हो सकती थी और भारत की स्थिति और मजबूत होती.

ऐसा लगता है कि मोदी ने चीन के साथ दोस्ती से बड़ी उम्मीदें लगाई थीं. यह लगातार कई शिखर बैठकों और शी जिनपिंग की जोरदार खातिर-तवज्जो से साफ जाहिर है. लेकिन यह सब हड़बड़ी में और भोलेपन में किया गया. किसी चीनी दिग्गज को झूला झुलाकर आप उसे रिझा लेंगे, यह कल्पना करना भारी भूल ही मानी जाएगी. भारत अब इसका खामियाजा भुगत रहा है. कूटनीति को बेहद व्यक्ति-केंद्रित स्वरूप देना तभी कारगर होता है जब यह दो बराबर ताकत वाले देशों के बीच हो, या तब जब आप ज्यादा ताकतवर हों. दो बड़े आकार के मगर असमान ताकत वाले पड़ोसी देशों के बीच कूटनीति जुजित्सु मार्का खेल की तरह नहीं चल सकती जिसमें प्रतिद्वंद्वी की मजबूती का ही उसके खिलाफ प्रयोग किया जाता है.

इसमें शक नहीं कि शी के इरादों, उनकी ताकत और चीनी सिस्टम के तौरतरीकों को समझने-पढ़ने में चूक हुई. देंग के बाद शी सबसे ताकतवर चीनी नेता हैं, भले ही नीतिगत फैसले करने के मामले में वे व्यक्तिगत स्तर पर मोदी की तरह ताकत न रखते हों.

भारत ने शी के मामले में बचकाना रवैया अपनाया. चूंकि उन्होंने डोकलाम में हमारे मुंह पर थप्पड़ जड़ दिया, समीकरण बदल गया है. अब यह साफ हो चुका है कि शी ने ‘वुहान भावना’ को मोदी की इस गुहार के रूप में लिया कि वे और गड़बड़ न करें और उनकी आगामी चुनावी संभावनाओं पर पानी न फेरें. इस तरह की वार्ताओं में अगर आप सामने वाले का सम्मान करते हैं तो आपको मालूम होना चाहिए कि चीनी भी दिमाग रखते हैं. अगर आप उनके इरादों को भांपने की कोशिश करते हैं, तो वे भी आपकी मंशाओं का अंदाजा लगाते हैं. इसमें कौन सही है और कौन गलत, यह मायने नहीं रखता. असली चीज़ यह है कि अंत में आपके हाथ क्या लगा. आपके हाथ लगा सिर्फ ‘गलवान’.

व्यापार को लेकर अजीबोगरीब वैचारिक आशंकाओं और व्यक्ति-केन्द्रित कूटनीति के बाद, विदेश नीति में मोदी-भाजपा की चुनावी राजनीति की घालमेल दूसरी बड़ी नकारात्मक बात थी. अगर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को ही आपने चुनावी जीत का फॉर्मूला मान लिया है, तो मुसलमानों की ‘उपेक्षा’ जरूरी है.

तब निश्चित है कि पाकिस्तान के मामले में आपके विकल्प समाप्त हो जाते हैं. लेकिन इससे आपके सबसे भरोसेमंद पड़ोसी बांग्लादेश की मुश्किल बढ़ जाती है. मोदी ने देशहित में उसके साथ सीमा समझौता करके अच्छी शुरुआत की थी, जो उनकी पार्टी ने यूपीए सरकार को नहीं करने दिया था. लेकिन पहले असम, फिर पश्चिम बंगाल चुनाव जीतने की उतावली ने इस शुरुआत को धो डाला.


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आप एक तरफ तो बांग्लादेशियों को घुसपैठी और दीमक कहके उन्हें निकाल बाहर करने की बातें करें, और फिर शेख हसीना के कानों में उलटी बातें कहें, तो दोनों नहीं चल सकता. आप यह निश्चित मानिए कि ईरान, नेपाल और श्रीलंका को अपने दबदबे में लाने के बाद चीन अब ढाका पर अपना ध्यान लगाएगा. पिछले कुछ सप्ताह से उसके साथ ‘जीरो टैरिफ’ व्यापार समझौते की कोशिश नहीं हो रही है? पता लगा लीजिए. आईने में चीजें ज्यादा करीब नज़र आती हैं. भारत मोदी-भाजपा चुनावी सियासत की कीमत चुका रहा है.

भारी लोकप्रियता वाले ताकतवर नेताओं में कई विशेषताएं होती हैं. लेकिन कुछ कमजोरियां भी होती हैं. इनमें से एक है चाटुकारिता के प्रति झुकाव. अगर वे इसका मजा लेने लगते हैं, तो इतिहास बताता है कि इसके निरपवाद रूप से विनाशकारी नतीजे होते हैं. भारत को रणनीति तय करने के मामले में आत्मविश्लेषण करने, जमीनी हकीकत को समझने और अपनी नीति में सुधार करने की जरूरत है— केवल तौरतरीके और शैली के लिहाज से ही नहीं बल्कि ठोस रूप से और मूलभूत राजनीति के हिसाब से भी. खास तौर पर घरेलू राजनीति के मामले में. मतदाताओं का ध्रुवीकरण पार्टी के लिए भले फायदेमंद हो, राष्ट्र के लिए खतरनाक ही होता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. Sir ji India last 72 years se aisa hi Raha hai…koi nai bat nahi hui….Jo aap Bata rahe….. policy decided karna koi 1 din ka Kam nahi hai…time lagta hai……china is always anti India….so koi b government ho bo 5 year mai kosis karigei ki China se ache relationship rakhe …but China nahi cahta aisa to….lake liy hame 25 year strategy banani hogi….fir sarkar koi b ho hame isko follow karna hi hoga

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