इस शुक्रवार को नरेंद्र मोदी 71 बरस के हो गए. इसका जश्न सरकार और पार्टी ने जिस बड़े पैमाने पर मनाया उसने पूरे देश में लहर पैदा कर दी और साथ ही दिल्ली के ‘ज्ञानियों’ के बीच कानाफूसी भी चली.
अगर यह 50वां, 60वां, 70वां जन्मदिन भी होता तो बात समझ में आती लेकिन 71वें जन्मदिन पर? अब इस सवाल का जवाब भला कौन देगा, खासकर उस व्यवस्था में जो इस बात में अपनी महानता और अपना गौरव मानता है और उसे उचित भी मानता है कि उसके दिमाग में क्या है इसकी भनक किसी को न लगे, राजनीति के स्वघोषित शंकराचार्यों को भी नहीं?
अटकलें और कानाफूसियां अच्छी हेडलाइन बनवाने से लेकर अंकज्योतिष विद्या तक की ओर इशारा करती हैं. उदाहरण के लिए, संख्या 8 की ओर. बेशक मेरा इनमें से किसी पर विश्वास नहीं है, मैं तो इसका जिक्र सिर्फ यह कबूल करने के लिए कर रहा हूं कि हम जैसे छोटे लोग, जो चौबीसों घंटे भारतीय राजनीति से ही उलझे रहते हैं, मोदी-शाह की भाजपा में क्या चल रहा है इसके बारे में कितना कम जानते हैं.
जब कोई राजनीतिक दल और उसकी सरकार अपना कामकाज इतनी गोपनीयता से चलाने में सफल हो जाती है तो अफवाहों का भूमिगत बाज़ार गरम हो जाता है. जैसा कि इन दिनों हो रहा है. लेकिन इन दिनों हवा में तैरते तमाम ‘एक्सपर्ट’ विश्लेषणों, ‘अंदरूनी’ कथाओं, ‘बौद्धिक’ अटकलों में आप कहीं यह सवाल नहीं सुनेंगे कि ‘मोदी के बाद कौन?’
पीछे मुड़कर 1947 तक देखें, तो एक छोटी-सी दिलचस्प बात उभरती है. जवाहरलाल नेहरू के बाद मोदी ही दूसरे नेता हैं जिन्होंने भारत का प्रधानमंत्री रहते हुए अपनी उम्र के सातवें दशक को पार किया. पी.वी. नरसिम्हा राव जब प्रधानमंत्री बने थे तब उनकी उम्र 70 साल से एक सप्ताह कम थी.
हमें मालूम है कि उम्र, बुढ़ापा आदि की परिभाषाएं बदल गई हैं और 70+ की उम्र को अब 60+ की उम्र गिना जाता है. लेकिन हम 1960 में 71 की उम्र के नेहरू को ही संदर्भ बिंदु मान कर चलते हैं. उस समय तक ‘नेहरू के बाद कौन?’ सवाल उभरने लगा था.
तब की और आज की स्थिति में समानताएं भी हैं और भारी अंतर भी है. तब की तरह आज भी ‘कौन?’ का मतलब ‘किस पार्टी से?’ नहीं है. भारतीय राजनीति आज जितनी दिखती है उससे कहीं ज्यादा तब, एक घोड़े की घुड़दौड़ थी. इसलिए तब उत्तराधिकार का सवाल कांग्रेस के अंदर ही था. आज भाजपा के लिए भी यही बात लागू हो सकती है, बशर्ते 2024 में मोदी को वाकई चुनौती देने वाला कोई नेता विपक्ष में न उभर जाए.
उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आप दांव लगा रहे हों तो, भले ही आप किसी को वोट देना पसंद करते हों, आज आप 2024 में किस नतीजे पर दांव लगाएंगे?
इसलिए इस सवाल पर कोई चर्चा, कोई बहस, कोई कानाफूसी नहीं चल रही कि मोदी के बाद- अगर ऐसी नौबत आई तो भाजपा सरकार का नेतृत्व कौन करेगा? प्रधानमंत्री ने किसी पद के लिए अपनी पार्टी के लोगों की उम्रसीमा 75 तय कर दी है. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अपने संगठन के लिए यह सीमा तय कर दी है. आज से चार साल बाद 2025 में मोदी जब अपने तीसरे कार्यकाल (मान लें कि 2024 में वे जीत जाते हैं) के बमुश्किल एक साल पूरे कर रहे होंगे, तब 75 के हो जाएंगे.
मोदी कभी भी अपवाद माने जा सकते हैं इसलिए उनकी गिनती करके मत चलिए. हम जानते हैं कि राजनीतिक दलों में एक नेता या एक परिवार के लिए व्यक्तिपूजा का चलन जोर ही पकड़ता जा रहा है. लेकिन जैसा कि हरियाणा के पुराने नेता ओम प्रकाश चौटाला का मशहूर बयान है, ‘हम राजनीति में सत्ता के लिए आते हैं, कोई धरम-करम या तीर्थयात्रा के लिए नहीं.’ उत्तराधिकार की राह में हमारे सामने कितने भी रोड़े क्यों न हों, क्या फर्क पड़ता है? इसलिए, भाजपा में अगर कोई अपने भविष्य के बारे में सोच-विचार कर रहा हो तो आप उसे गलत कैसे मानेंगे?
यह भी पढ़ें: मोदी को हराने में क्यों कमज़ोर पड़ जाता है विपक्ष- PEW सर्वे में छुपे हैं जवाब
हम कोई ज्योतिषाचार्य नहीं हैं, हम सबूतों के आधार पर राजनीति की व्याख्या करते हैं. हम देखते हैं, फिर आपको दिखाते हैं. अगर आप आज की भाजपा की ‘ए टीम’ पर नज़र डालेंगे तो आप आसानी से समझ जाएंगे कि कौन किस दर्जे का है और कहां खड़ा है.
यह भी याद रखें कि यह वह दौर है जब आरएसएस अपनी सबसे कमजोर स्थिति में है. इसके बाद पिछले सप्ताह की कुछ राजनीतिक घटनाओं पर नज़र डालिए. मोदी और शाह जब गुजरात में नाटकीय उलटफेर कर रहे थे तब सुर्खियां उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक सभा में अपने बेबाक और जानबूझकर उछाले गए विभाजनकारी जुमले ‘अब्बा जान’ के साथ बटोर रहे थे, मानो वे दोबारा चुने जाने के अपने चुनावी प्रचार का उद्घाटन कर रहे हों.
आज भाजपा में उनसे बड़े नाम इससे ज्यादा उकसाऊ बातें कह चुके हैं इसलिए इस मामले को यहीं छोड़ दें. देखिए कि कौन मुख्यमंत्री अपने प्रचार के लिए विज्ञापनों पर भारी खर्च कर रहा है. आप अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे या और कोई नाम ले सकते हैं, लेकिन इस मामले में योगी उन सबको तीन गुना अंतर से तो पीछे छोड़ ही देंगे.
एकमात्र योगी ही हैं जिन्होंने दिल्ली में बस स्टॉपों पर मोदी के साथ अपनी तस्वीर लगवा डाली है. उनके होर्डिंग दिल्ली में राजनयिकों वाले इलाके से लेकर दूसरे भागों में नज़र आ रहे हैं. हमें मालूम है कि उत्तर प्रदेश के मतदाता काम करने के लिए दिल्ली आते हैं. यही बात हरियाणा वालों के साथ भी है लेकिन क्या आपने इस तरह खट्टर के होर्डिंग दिल्ली में देखे?
वामपंथी, दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी या ‘दिप्रिंट’ वाले हम जैसे तमाम टीकाकार एक बात पर सहमत हैं कि भाजपा आज आलाकमान के इशारे पर चलने वाली वैसी ही पार्टी है जैसी कांग्रेस तब थी जब इंदिरा गांधी शिखर पर थीं. इसलिए यहां यह पेचीदा सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश की सरकार और उसके मुख्यमंत्री आलाकमान के काबू में हैं या नहीं?
विज्ञापन के अलावा दूसरे सबूतों पर भी नज़र डालें. किसी मकसद से उत्तर प्रदेश भेजे गए मोदी के वफादार, पूर्व सरकारी अधिकारी ए.के. शर्मा बिना किसी मंत्रालय या जिम्मेदारी के वहां जमे हुए हैं. सांत्वना पुरस्कार के रूप में उन्हें प्रदेश भाजपा का उपाध्यक्ष बनाया गया है. बात सिर्फ इतनी है कि वे 16 दूसरे उपाध्यक्षों के बाद 17वें हैं.
यह भी पढ़ें: तालिबान के उदय के बीच भारत अपने 20 करोड़ मुसलमानों की अनदेखी नहीं कर सकता है
आलाकमान द्वारा नामजद किसी शख्स के साथ कोई भाजपाई मुख्यमंत्री इस तरह का व्यवहार करे, यह अकल्पनीय है. ऐसी बात आप चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान से करेंगे तो वे आपको शायद कमरे से बाहर निकालकर उस जगह को गंगाजल से शुद्ध करने लग जाएंगे जहां आप बैठे थे.
मोदी ने गांधीनगर में मुख्यमंत्री रहते हुए ‘गुजरात मॉडल’ तैयार किया था. अपनी पसंद का मंत्रिमंडल, अधिकार विहीन मंत्री, वफादार अधिकारियों के बूते चल रही सरकार. यह मॉडल इतना कामयाब रहा कि मोदी लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बने. इस मॉडल को वे दिल्ली लेकर भी आए. योगी भी यही कर रहे हैं और वे यूपी को हू-ब-हू वैसा ही बना रहे हैं जैसा गुजरात मोदी के दौर में था.
मोदी आज भी गुजरात में मुख्यमंत्री समेत पूरे मंत्रिमंडल को बदल दे सकते हैं. लेकिन लखनऊ में योगी अपने मंत्री खुद चुनते हैं, उनमें विभागों का बंटवारा करते हैं और हां, सारे अधिकार अपने हाथ में रखते हैं. और योगी में चतुराई भी भरी है. ‘अब्बा जान ’ वाला जुमला जिस भाषण में उन्होंने उछाला उसमें मंच पर उनके पीछे मोदी की आदमकद तस्वीर लगी थी, जिनका वे बार-बार चापलूसी भरा जिक्र कर रहे थे.
साफ बात यह है कि भाजपा में कोई भी मोदी को चुनौती नहीं देने वाला है. वे जब तक चाहें पार्टी पर राज कर सकते हैं. योगी भी उन्हें चुनौती नहीं दे सकते, न देंगे. लेकिन भाजपा में एक नया सत्ता केंद्र उभर रहा है. 49 की उम्र के योगी पार्टी के शीर्ष नेताओं में सबसे युवा हैं, केजरीवाल से भी युवा. वे आरएसएस मूल के भी नहीं हैं लेकिन भाजपा के ‘हार्डकोर’ में उनका व्यापक आधार भी है.
‘इंडिया टुडे’ के ताजा सर्वेक्षण ‘देश का मिजाज’ के अनुसार वे भाजपा के मतदाताओं में लोकप्रियता में दूसरे नंबर पर हैं. मोदी बहुत बड़ी बढ़त के साथ पहले नंबर पर हैं. यह भी स्पष्ट कर दें कि भाजपा का जनाधार उन्हें मोदी के बाद सबसे ज्यादा सम्मान तो देता है मगर वे अपने आधार से बाहर के वे वोट नहीं ला सकते जो मोदी को स्पष्ट बहुमत दिलाते हैं.
एक साल पहले तक हम यह कह सकते थे कि भाजपा के एक क्षत्रप तो ऐसे हैं जो आलाकमान के आगे तन कर खड़े हो सकते हैं. यह स्थिति कर्नाटक में येदियुरप्पा को हटाए जाने के बाद बदल गई है. योगी कोई हल्के-फुल्के नहीं हैं, उन्होंने आलाकमान को सकते में डाल रखा है. अगले साल वे यूपी का चुनाव हार गए तो 2024 में भाजपा की उम्मीदों को झटका लगेगा लेकिन जीत गए तो यह जितनी योगी की जीत मानी जाएगी उतनी आलाकमान की भी. यह भाजपा की आगे की संभावनाओं को प्रभावित करेगी.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: मोदी को हराने का सपना देखने वालों को देना होगा तीन सवालों का जवाब, लेकिन तीसरा सवाल सबसे अहम है