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Sunday, 22 December, 2024
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पहली बार मोदी और शाह को चुनौती मिली, वो भी येदियुरप्पा से

मोदी और शाह की निर्बाध-निर्विवाद सत्ता को पहली चुनौती येदियुरप्पा ने दी है, अब दूसरे राज्यों के भाजपा नेता भी उनसे प्रेरणा ले सकते हैं.

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कर्नाटक को राजनीतिक लिहाज से भारत का सबसे अहम राज्य नहीं माना जाता. लोकसभा में इसके योगदान को देखा जाए तो यह मझोले किस्म का राज्य है- केरल (20) और मध्य प्रदेश (29) के बीच. फिर भी, पिछले कई महीनों से कर्नाटक ने सुर्खियों में रहने के मामले में इन सबको कहीं पीछे छोड़ रखा है.

अब जबकि भाजपा वहां फिर से सत्ता में है, आपको लगेगा कि अब वहां विजय की आत्मसंतुष्टि और शांति का भाव हावी हो गया होगा. लेकिन जरा भीतर झांकेंगे तो आपको महसूस होगा कि अभी भी माहौल काफी बेचैनी और मतभेद से ग्रस्त है.

हम यहां तक कह सकते हैं कि मझोले आकार के कर्नाटक ने अमित शाह और नरेंद्र मोदी की निर्बाध और निर्विवाद सत्ता को पहली चुनौती दी है. हम इसे और स्पष्ट करें तो कह सकते हैं कि यह चुनौती कर्नाटक ने नहीं बल्कि येदियुरप्पा ने दी है, जिन्होंने अपनी पार्टी में एक अनपेक्षित राजनीतिक बग़ावत को अंजाम दिया है. पहली बार एक व्यक्ति ने पार्टी आलाकमान को ऐसे समझौते करने को मजबूर किया है जिनकी इजाजत वह किसी और को नहीं देता.

इनमें एक समझौता तो 75 साल की उम्रसीमा को तोड़ने का है. येदियुरप्पा 76 साल के हैं, जिस उम्र के नेता को मोदी और शाह की पार्टी में राजभवन या मार्गदर्शक मण्डल में तो चले ही जाना चाहिए. 2014 के बाद से भाजपा में जो नेता सितारा बनकर उभरे हैं उन सब पर नज़र डालने पर पता लगता है कि केवल दो ऐसे हैं जिन्हें 75 पार करने के बावजूद कैबिनेट में जगह दे गई. एक तो नज़्मा हेपतुल्लाह हैं, जिन्हें अंततः इम्फ़ाल के राजभवन में भेज दिया गया; और दूसरे कलराज मिश्र हैं, जिन्हें अभी-अभी कई लोगों के साथ किनारे करके शिमला रवाना कर दिया गया और जिसके लिए वे ‘बुलावा’ आने तक पूरी कर्तव्यनिष्ठा से मोदी की तारीफ के ट्वीट करते रहे. उम्रसीमा की इस कसौटी को भाजपा में कोई और नहीं तोड़ पाया, कम-से-कम उसने तो नहीं ही जिसकी कोई औकात हो.


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हालत यह है कि जो भाजपा नेता मोदी को अपने जीवनभर प्रधानमंत्री बने रहने की मांग करना चाहेंगे वे भी यही अनुमान लगाना निरापद मानने लगे हैं कि मोदी अपने ‘तीसरे कार्यकाल’ में जब 75 पार कर जाएंगे तब उनका उत्तराधिकारी कौन हो सकता है. जाहिर है, यह येदियुरप्पा की खास ताकत को रेखांकित करता है. बेशक इसका मतलब यह भी हो सकता है कि 75 पर मोदी के रिटायर होने की बात ही बेमानी हो जाए. अगर किसी छोटे प्रादेशिक नेता के लिए नियम में ढील दी जा सकती है, तो कहीं ज्यादा चुस्त-दुरुस्त और ताकतवर मोदी के लिए क्यों नहीं?

कई पहलुओं से देखें तो येदियुरप्पा मोदी-शाह की परिभाषा के मुताबिक एक आदर्श मुख्यमंत्री जैसा होना चाहिए उससे एकदम विपरीत हैं. यकीन न हो तो उन मुख्यमंत्रियों की सूची पर नज़र डाल लीजिए जिन्हें मोदी-शाह ने 2014 के बाद से महत्वपूर्ण राज्यों में गद्दी पर बिठाया. इनमें से कोई भी (योगी आदित्यनाथ भी) अपने राज्य में प्रमुख नेता नहीं रहा, जिसे गद्दी का स्वाभाविक दावेदार या गद्दी की दौड़ में सबसे आगे माना गया हो. इनमें से कोई भी अपने राज्य की प्रमुख जाति का नहीं था. जहां जाट ही राज करते रहे हैं, उस हरियाणा में मोहनलाल खट्टर दूरदराज़ के पंजाबी थे.

झारखंड में आदिवासियों को सत्ता से वंचित किया गया. महाराष्ट्र में युवा ब्राह्मण देवेन्द्र फड़नवीस मराठाओं की आंख के किरकिरी जैसे थे. असम में सबसे शक्तिशाली माने गए हिमन्त बिसवा सरमा को कम ताकतवर सरबानन्द सोनोवाल के अधीन काम करने को कहा गया.

अब तक तो मॉडल यही रहा है कि भाजपा को केवल दो नेताओं की जरूरत है और वे दोनों दिल्ली में रहते हैं. बाकी नेता पूरी निष्ठा से उनकी मर्जी पर निर्भर रहते रहे हैं. येदियुरप्पा ने इस स्थापित नियम को तोड़ दिया है और खुद को अपने बूते वाला नेता घोषित कर दिया है. वे न केवल वहां की प्रमुख जाति के दबंग नेता हैं बल्कि पुराने असंतुष्ट और अपने आलाकमान की अवहेलना करने वाले नेता रहे हैं.

अतीत में जब उन्हें सत्ता से वंचित किया गया तो उन्होंने पार्टी को मजबूर किया कि वह उनके ही आदमी सदानंद गौड़ा को उनकी जगह दे; और जब उनको भी बगावत के कारण अस्थिर किया गया तो येदियुरप्पा ने भाजपा छोडकर अपना अलग क्षेत्रीय दल बना लिया और 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा से टक्कर ली. हालांकि वे केवल छह सीटें ही जीत पाए लेकिन अधिकांश लिंगायत वोटों पर कब्जा करके भाजपा को 224 के सदन में महज 40 पर सिमट जाने को मजबूर कर दिया.

उन्होंने पार्टी को भ्रष्टाचार के प्रति ‘जीरो’ सहनशीलता का अपना वह प्रमुख सिद्धान्त भी तोड़ने को मजबूर किया जिस पर वह अटल रहने का दावा करती है. अपने पहले कार्यकाल में येदियुरप्पा को भ्रष्टाचार के आरोपों, लोकायुक्त की प्रतिकूल रिपोर्ट के कारण सत्ता गंवानी पड़ी और कुछ समय तक जेल में भी रहना पड़ा था, हालांकि बाद में उन्हें बरी कर दिया गया था. लेकिन चूंकि उन्हें गद्दी से उतरना पड़ा, किसी को चैन से नहीं रहने दिया गया और भाजपा को एक सदन में तीन बार मुख्यमंत्री बदलना पड़ा.

इस घालमेल ने 2013 में कांग्रेस की जीत में बड़ी भूमिका निभाई. तुलना के लिए, गुजरात के शंकर सिंह वाघेला के बारे में सोचिए, जो एक दिग्गज भाजपा नेता और कट्टर संघी थे और दलबदल करके वहां काँग्रेसी मुख्यमंत्री बने थे. क्या भाजपा गुजरात को फिर से उनके हाथों में सौंप सकती थी?

उम्रसीमा, जाति, भ्रष्टाचार, वफादारी आदि तमाम कसौटियों को धता बताते हुए येदियुरप्पा ने पार्टी को मजबूर किया कि वह कांग्रेस-जेडी(एस) सरकार को गिरा कर तुरंत उन्हें गद्दी सौंप दे. भाजपा को इस गठजोड़ को अपनी ही मौत मरने का कुछ और समय देने में शायद हर्ज़ न होता, लेकिन हम यह भी भरोसे के साथ नहीं कह सकते. बहुत संभव है कि मोदी और शाह राज्य को कुछ समय के लिए राष्ट्रपति शासन में रखना पसंद करते और दलबदलुओं को ठिकाने लगाने के बाद अपनी सरकार बनाते. जिस हड़बड़ी में येदियुरप्पा की ताजपोशी करने को मजबूर किया गया वह अजूबा और अलाभकर ही है.

इसकी वजह यह है कि ‘तमाशा’ अभी खत्म नहीं हुआ है, क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष सभी दलबदलुओं को अयोग्य घोषित करने के अपने मिशन को तार्किक अंत तक पहुंचा सकते हैं और उन्हें इस विधानसभा के कार्यकाल तक चुनाव लड़ने से रोक सकते हैं जबकि तमाम लोग इस मामले पर कोर्ट के फैसले का इंतज़ार करते रह सकते हैं.


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आज की भाजपा की कसौटी के मुताबिक इस ‘ग्रैंड ओल्ड मैन’ को आखिर ताकत कहां से मिलती है, और उनकी जीत भाजपा तथा राष्ट्रीय राजनीति के लिए क्या मायने रखती है? सबसे पहली बात तो यह है कि भाजपा राज्य में युवा नेतृत्व को आगे नहीं ला पाई है. मुख्य प्रतिद्वंद्वी अनंत कुमार की असमय मृत्यु ने भी येदियुरप्पा की मदद की. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा को समझ में आ गया कि कर्नाटक में वह सिर्फ मोदी के बूते विधानसभा में ताकतवर नहीं बन सकती. यह एकमात्र ऐसा राज्य है जहां उसे अपने हिंदू वोट बैंक के अंदर भी अपने ही एक नेता के वोट बैंक से चुनौती का सामना करना पड़ा है.

दूसरे राज्यों के भाजपा नेता भी इस बात पर गौर करेंगे. आप नज़र दौड़ा लीजिए, दूसरे राज्यों में आपको येदियुरप्पा के कद का नेता नहीं मिलेगा. राजस्थान में वसुंधरा राजे अपने वफ़ादारों को दरकिनार किए जाने और निंदकों को आगे बढ़ाने से खफा होंगी ही. शिवराज सिंह चौहान को कमलनाथ की कुर्सी उलटने की हरी झंडी या साधन नहीं दिए गए है, फिलहाल तो नहीं ही. लेकिन हमें मानना पड़ेगा कि पार्टी में ऐसे नेता हैं— खासकर महाराष्ट्र, झारखंड में, या योगी आदित्यनाथ को भी क्यों न गिनें— जो कर्नाटक को जिस तरह अपवाद बनाया गया उससे प्रेरणा लें.

पुनश्चः अगर आपने येदियुरप्पा के नाम के इस नई स्पेलिंग पर गौर किया होगा तो पाया होगा कि अपने बुरे दौर में उन्होंने अंकशास्त्र की दृष्टि से इसे बदलकर येदियुरप्पा कर दिया था, लेकिन जब इसका कोई अनुकूल फल नहीं मिला तो फिर मूल स्पेलिंग को ही अपना लिया. मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि उनका अंधविश्वास अब कम हो गया है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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