राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर निकोलस बर्न्स के साथ अपनी वर्चुअल बातचीत में ‘सरकारी संस्थानों पर पूरी तरह नियंत्रण’ के लिए सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की कड़ी आलोचना की और भारत में जो कुछ हो रहा था, उस पर अमेरिकी चुप्पी को लेकर सवाल उठाया. कुछ लोग कह सकते हैं, इसमें गलत क्या है. तस्वीर का असली पहलू यह है: एक शीर्ष नेता, मुख्य विपक्षी दल का चेहरा खुले तौर पर अपने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को चोट पहुंचा रहा है और बेहद महत्वपूर्ण और सरगर्मी भरे विधानसभा चुनावों के बीच विदेशी दखल की मांग कर रहा है. वह भी तब जबकि उसके सबसे सशक्त प्रतिद्वंद्वी की तरफ से राष्ट्रवाद और देश के मूल्यों का गौरव बढ़ाने पर पूरा जोर दिया जा रहा है.
यह पहला मौका नहीं है जब राहुल गांधी ने चुस्त-दुरुस्त घरेलू राजनीति को ताक पर रखकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी बात सुने जाने की इच्छा को तरजीह दी है. 2009 में जब राहुल गांधी अमेठी के सांसद थे, तब उन्होंने अमेठी के गांव में एक दलित परिवार के घर की यात्रा के दौरान ब्रिटिश विदेश मंत्री डेविड मिलीबैंड से कहा था कि ‘असली भारत’ यही है—मानो भारत में कच्ची झोपड़ियों के अलावा कुछ है ही नहीं.
राहुल गांधी मणिशंकर अय्यर के तौर-तरीकों से प्रेरणा लेते दिख रहे हैं, जिन्होंने 2015 में एक पाकिस्तानी न्यूज चैनल पर एक पैनल डिस्कशन के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार को हटाने की मांग कर दी थी. इसके बाद मुंह में जो आया बोल देने को लेकर उन्हें कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा था. और कोई भी, जिसे राजनीति की थोड़ी-बहुत भी समझ होगी, आपको यह बता सकता है कि किसी को अय्यर से प्रेरणा क्यों नहीं लेनी चाहिए.
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राहुल का गलत नजरिया
सवाल यह नहीं है कि क्या किसी को अपने विचार खुलकर व्यक्त करने अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं, लेकिन इसका जवाब यह जरूर हां है कि यह लोकतांत्रिक ढांचे के अनुरूप होना चाहिए. हालांकि, असल मुद्दा तो यह है कि राजनीति बहुत अधिक जटिल होती है, और इस पर नरम और गहन दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत होती है. और कोई पसंद करे या नहीं, लेकिन नरेंद्र मोदी ने राजनीति के खेल को इस कदर बदल दिया है कि एक के बाद छक्कों से बचने के लिए उन्हें फुल टॉस गेंद फेंकना तो पूरी तौर पर आत्मघाती हो सकता है.
भारत के मतदाता जो भाषा सुनना चाहते हैं, उस भाषा में बात करने के बजाय अपने विचार व्यक्त करने और अपनी पीठ कुछ थपथपाई जाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मंच का सहारा लेकर राहुल गांधी लगातार मोदी को और हमले करने का मौका दे रहे हैं.
नरेंद्र मोदी ने ‘राष्ट्रवाद’ को अपनी राजनीति का आधार बनाया है. किसी को भी इस पर उनसे प्रतिस्पर्धा करने या फिर उनकी नकल करने की जरूरत नहीं है, लेकिन यह देखते हुए कि मतदाता मोदी की राजनीति को कैसे अपना रहे हैं, यह बेहद महत्वपूर्ण है कि किसी को भी देश के प्रति आपकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने का मौका नहीं देना चाहिए. राहुल गांधी को ऐसे किसी प्रलोभन में आने और मोदी के राष्ट्रवाद के टेस्ट में बार-बार नाकाम होने से बचना चाहिए.
उदाहरण के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी ने बालाकोट में जवाबी हवाई हमले की कार्रवाई को अपनी एक बड़ी उपलब्धि बताकर बेच दिया, और तमाम मतदाताओं ने इसे खुशी-खुशी खरीदा भी. लेकिन राहुल गांधी तब इस थ्योरी में खामियां तलाशने और राफेल सौदे को लेकर मोदी के ‘चौकीदारी’ पर सवाल उठाने में व्यस्त थे. इसका नतीजा क्या रहा है, यह सबके सामने है.
2017 में राहुल गांधी ने बतौर कांग्रेस उपाध्यक्ष बर्कले स्थित कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित किया और अपनी आर्थिक नीतियों और कश्मीर मसले से निपटने को लेकर मोदी सरकार की आलोचना की.
बर्न्स के साथ उनकी बातचीत ‘अपनी राजनीति को कैसे नुकसान पहुंचाएं’ वाली सूची में शामिल एक और नया कदम है.
इसके असर और संदेश को देखें. निश्चित तौर पर वह देश की आंतरिक राजनीति के बीच—जो कांग्रेस और खुद उनके लिए सबसे ज्यादा मायने रखती है—यह संदेश दे रहे हैं कि आपकी सरकार बहुत अच्छी नहीं है और इसलिए, आपको खुद को बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय दखल की जरूरत है. जबकि आमतौर पर नेता अपने देश के आंतरिक मामलों में बाहरी दखल या किसी भी तरह की भागीदारी को रोकने के लिए काफी ऊर्जा और समय लगाते हैं.
और आप यहां एक ऐसे प्रधानमंत्री को निशाना बना रहे हैं, जो बेहद लोकप्रिय है, अच्छी-खासी साख बना चुका है और अंतरराष्ट्रीय मंच पर असाधारण ढंग से अपनी बात रखने में सक्षम है. आप मोदी की राजनीति और उनकी पार्टी के सांप्रदायिक ताने-बाने से नफरत कर सकते हैं, लेकिन इस बात को नकार नहीं सकते कि मतदाताओं पर उनकी पकड़ बेहद मजबूत है. अंतरराष्ट्रीय मंच पर ऐसे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को पटरी से उतारने की कोई भी कोशिश मतदाताओं पर शायद ही कोई अच्छा असर डाले, बल्कि यह राहुल गांधी और पहले से ही बुरी तरह लड़खड़ा चुकी उनकी पार्टी पर भारी ही पड़ेगी. वो भी ऐसे समय पर जब पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, जिनमें से कम से कम तीन में कांग्रेस का काफी कुछ दांव पर लगा है.
(अनुराग चौबे द्वारा संपादित)
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