विपक्षी दलों के नेताओं की बहुप्रचारित बैठक एक लंबी यात्रा की शुरुआत भर है- जिसका कोई गंतव्य नहीं है. ऐसी बैठकों का एक पैटर्न होता है. एक या दो व्यक्ति अगुआई करते हैं और चुनाव जैसी कतिपय घटनाओं के कारण बैठकों का सिलसिला चलता है. ऐसा लगता है कि नवीनतम बैठक की प्रक्रिया में हालिया राज्य विधानसभा चुनावों के बाद तेजी आई है, जिनमें भारतीय जनता पार्टी असम में अपनी सत्ता को बरकरार रखने में कामयाब रही थी. उसे पश्चिम बंगाल में जीत तो नहीं मिली, लेकिन सीटों की संख्या की दृष्टि से पार्टी ने एक बड़ी छलांग लगाई है. दो अन्य राज्यों तमिलनाडु और केरल में पार्टी वैसे भी मुख्य मुकाबले में नहीं थी.
किसे चाहिए तीसरा मोर्चा
शरद पवार के दिल्ली आवास पर हुई इस बैठक के प्रमोटर के तौर पर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर का नाम लिया जा रहा है. ऐसा लगता है कि अन्यथा एक सफल राजनेता पवार ने चुनावी जीत की रणनीति बनाने की क्षमता गंवा दी है. ये मौजूदा राजनीतिक स्थिति का एक दुखद प्रतिबिंब है कि उन्हें एक अपेक्षाकृत नए किरदार पर निर्भर होना पड़ रहा है, जिसे 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान की रणनीति तैयार करने का श्रेय दिया गया था.
विपक्षी नेताओं, समान विचारधारा के लोगों और तथाकथित तीसरे मोर्चे के दलों की ऐसी बैठकें राजनीति में नई नहीं हैं. उनका उद्देश्य होता है केंद्र या राज्यों में मौजूदा सत्ता तंत्र को हटाना. मूलत:इन बैठकों में ऐसे लोगों और दलों की भागीदारी होती है जो कि चुनाव हार गए हैं, या अपनी पार्टीकी आंतरिक दौड़ में पीछे छूट गए हैं या सत्ताधारी गुट में जगह पाने में नाकाम रहे हैं. इनके कारण पूर्व में कांग्रेस और जनता पार्टी जैसी पार्टियां अनेकों बार अनगिनत गुटों में विभाजित हो चुकी हैं.
पवार के घर पर हुई बैठक में कांग्रेस का कोई प्रतिनिधि मौजूद नहीं था, जो इस समूह को गैर-भाजपाई और गैर-कांग्रेसी शख्सियतों और पार्टियों का मंच साबित करता है. लेकिन बैठक में भाग लेने वाले शख्सियतों का अपने लंबे राजनीतिक और सामाजिक जीवन के दौरान किसी न किसी समय भाजपा और/या कांग्रेस के साथ घनिष्ठ राजनीतिक संबंध रहा है. विडंबना ये है कि अब राष्ट्र मंच के रूप में जाने वाला यह उपक्रम नया भी नहीं है क्योंकि इसके नेताओं में भाजपा के पूर्व वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा भी शामिल हैं.
मोदी-अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा को दोबारा सत्ता सौंपने वाले 2019 के चुनाव ने कुछ क्षेत्रीय दलों और नेताओं को विचार मंथन करने और अपनी बात सामने रखने के लिए कोई मंच बनाने के वास्ते रास्ता ढूंढने पर मजबूर कर दिया था.
वास्तव में, हाशिए पर चले जाने और राजनीतिक रूप से बेमानी होने के डर से वे साथ आने के लिए विवश हुए थे. कांग्रेस और साम्यवादी दल इनकी बैठकों पर दूर से नज़र रख रहे थे. भाजपा के खिलाफ एकजुट लड़ाई लड़ने की तमाम लंबी-चौड़ी बातों के बावजूद, विधानसभा चुनावों की घोषणा होते ही पार्टियों ने अपने अलग रास्ते इख्तियार कर लिए. कांग्रेस और वामपंथियों की दुर्गति हो गई. इन सभी राज्यों में भाजपा के खिलाफ विपक्ष की एकजुट लड़ाई के मुद्दे को आगे के लिए टाल दिया गया था.
वजह है कांग्रेस
अब चुनावों के पीछे छूट चुकने के बाद बेरोजगार राजनेता फिर से संगठित हो रहे हैं. अहम सवाल ऐसे मंचों की सफलता को लेकर है. आदर्श रूप से, कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) की महाराष्ट्र में सत्ता में साझेदारी को देखते हुए, कांग्रेस को ताजा बैठक का हिस्सा होना चाहिए था. दरअसल, महाराष्ट्र के राजनीतिक गलियारों में आम धारणा ये है कि गठबंधन सरकार में कांग्रेस की स्थिति हाशिए पर मौजूद खिलाड़ी की है. शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस के बीच महाविकास अघाड़ी (एमवीए) जैसी राजनीतिक व्यवस्था की उपयोगिता बहुत सीमित अवधि के लिए ही होती है. इनमें से किसी भी दल के अलग होने का फैसला करते ही गठबंधन ध्वस्त हो जाएगा.
हो सकता है कि राकांपा उन गलतियों को दोहराना नहीं चाहती हो जो समाजवादी पार्टी (सपा) ने उत्तरप्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके की थी और गले में पत्थर बांधकर तैरने की कोशिश की थी. राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस हर जगह चुनाव हारने का पक्का माध्यम नजर आ रही है. कोई भी क्षेत्रीय दल कांग्रेस के साथ मंच साझा नहीं करना चाहेगा, खासकर जब बात अपने-अपने राज्यों में चुनाव पूर्व गठबंधन बनाने की हो. अगले बारह महीनों में उत्तरप्रदेश और गुजरात समेत सात राज्यों में चुनाव होंगे. जहां क्षेत्रीय दल उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ना चाहेंगे, वहीं गुजरात में कांग्रेस के लिए ‘करो या मरो’ वाली स्थिति होगी. महाराष्ट्र में राजनीतिक गठबंधन की डगमग प्रकृति को देखते हुए, राज्य 2021-2022 के चुनावी घमासान में दाखिल होने के लिए तैयार दिखता है.
यह भी पढ़ें : गलवान संघर्ष के एक साल बाद, भारत इंतजार करे और देखे पर अपनी बंदूकें ताने रहने की जरूरत
इसलिए, राष्ट्र मंच जैसी राजनीतिक बैठकों से एक तरह से भाजपा का विकल्प बनने में कांग्रेस पार्टी की पूर्ण नाकामी और निरर्थकता की ही पुष्टि होती है. एक मजबूत तीसरा मोर्चा कांग्रेस पार्टी के भविष्य के ताबूत की एक और कील ही साबित होगा. इस तरह की बैठकें जितनी अधिक होंगी, कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं (जो थोड़े से बचे हैं) के बीच उतनी ही अधिक हताशा फैलेगी. सत्ताधारी वर्ग का हिस्सा बनने की ललक उन्हें अपना राजनीतिक भाग्य आजमाने के लिए पार्टी छोड़ने या पार्टी को तोड़ने के लिए प्रेरित करेगी. लेकिन इनमें से कोई भी एक वैकल्पिक एजेंडा तथा भाजपा के समतुल्य नेतृत्व और मजबूत कैडर पेश किए बिना उसका विश्वसनीय विकल्प नहीं बन पाएगा.
मतदान केंद्र में प्रवेश करते समय मतदाताओं के मन में दो कारक सर्वोपरि होते हैं: एक है राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता की गारंटी के लिए मजबूत केंद्र की जरूरत, और दूसरा आर्थिक संकट से छुटकारा.
न तो कांग्रेस और न ही राष्ट्र मंच जैसे समूहों के पास इसके लिए जरूरी क्षमता है. उन्होंने अभी तक न तो कोई एजेंडा प्रस्तुत किया है, न ही मौजूदा आर्थिक मुश्किलों को कम करने के लिए किसी समाधान कीपेशकश की है; उनके पास नरेंद्र मोदी के कद और विश्वसनीयता की बराबरी करने वाला कोई नेता नहीं है, और भाजपा जैसा कैडर बनाने में तो दशकों लग जाते हैं. इसलिए फिलहाल लंच पर होने वाली ऐसी बैठकों की उपयोगिता कतिपय लोगों का अहं संतुष्ट करने, कुछ इवेंट मैनेजरों की झोली भरने और मीडिया के लिए मसाला पैदा करने तक ही सीमित है.
(शेषाद्री चारी ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)