scorecardresearch
Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतआरा के ‘सर्वदलीय उम्मीदवार’ राजू यादव को लेकर इतना सन्नाटा क्यों हैं भाई!

आरा के ‘सर्वदलीय उम्मीदवार’ राजू यादव को लेकर इतना सन्नाटा क्यों हैं भाई!

शोले फिल्म का एक मशहूर डायलॉग है कि ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई.’ आरा से बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे सीपीआई (एमएल) कैंडिडेट को लेकर यही सवाल मीडिया से पूछा जाना चाहिए.

Text Size:

लोकसभा चुनावों में जहां वामपंथी उम्मीदवार कन्हैया कुमार की चुनौती के कारण बेगूसराय देशभर में चर्चा का केंद्र बना हुआ है, वहीं बिहार की आरा सीट पर सीपीआई (एमएल) या माले के राजू यादव मीडिया की नजरों से बाहर हैं. दो कम्युनिस्ट उम्मीदवारों के मीडिया कवरेज में इतनी भिन्नता कई तरह से सवाल पैदा करती है.

राजू यादव आरा सीट पर महागठबंधन के संयुक्त प्रत्याशी हैं, जिन्हें आरजेडी, कांग्रेस, आरएलएसपी, वीआईपी पार्टी, हम पार्टी, सीपीआई और सीपीएम समेत कई दलों का समर्थन है और पहली नजर में ही उनकी चुनौती मजबूत लगती है. उन्हें सर्वदलीय उम्मीदवार इसलिए माना जा रहा है क्योंकि एनडीए के बाहर जिन भी दलों का बिहार में कम या ज्यादा जनाधार है, वे सभी राजू यादव का समर्थन कर रहे हैं. माले का एक सदस्य यहां से पहले भी लोकसभा चुनाव जीत चुका है. ऐसे में स्वाभाविक रूप से लोगों के अंदर यह जानने की इच्छा है कि राजू यादव कौन हैं और उन्हें लेकर इतनी चुप्पी क्यों हैं?

राजू यादव को मीडिया में कवरेज भले ही न मिला हो, लेकिन वास्तव में वे संघर्ष की लंबी परंपरा से तपकर निकले हैं. उनके पिता रिटायर फौजी दिवंगत आरटी सिंह इलाके में सामंतवाद के विरोध के लिए चर्चित रहे हैं, और उसी परंपरा को एमए, एलएलबी की उपाधि प्राप्त राजू यादव ने आगे बढ़ाया है.


यह भी पढ़ें : लालू यादव ने वंचित जनता को स्वर्ग नहीं, लेकिन स्वर ज़रूर दिया


छात्र जीवन में 2000 से ही वे माले के छात्र संगठन आइसा से जुड़ गए थे और 2007 तक वे इसके प्रदेशाध्यक्ष पद तक पहुंचे. उनका संघर्ष युवाओं और किसानों के लिए भी रहा और 2016 में वे अखिल भारतीय किसान महासभा की राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य भी बनाए गए.

2010 में वे बड़हरा विधानसभा सीट से और 2015 में संदेश विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने वाले राजू ने 2014 में आरा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा था और मोदी लहर में 11 प्रतिशत वोट हासिल किया था, जबकि तब उनकी पार्टी माले का आरजेडी से तालमेल नहीं था.

छात्र जीवन से खेतिहर मजदूरों, किसानों, छात्रों, युवाओं और कर्मचारियों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले राजू की निजी प्रतिष्ठा ही रही कि जहां महागठबंधन में वामपंथी पार्टियां शामिल नहीं हैं, वहीं आरा सीट पर महागठबंधन के सभी दल राजू यादव को समर्थन दे रहे हैं. तेजस्वी यादव ने खुलकर आरा सीट से माले का समर्थन किया है.

राजू के पिता आरटी सिंह ने 1971 में सेना की नौकरी छोड़ने के बाद भोजपुर इलाके में क्रांतिकारी बदलाव के लिए कॉमरेड जगदीश महतो, रामनरेश राम और रामेश्वर प्रसाद के साथ मिलकर काम किया. कॉमरेड जगदीश महतो आरा जैन स्कूल में शिक्षक थे, लेकिन सामंती-सांप्रदायिक ताकतों के अत्याचार के विरोध में नौकरी छोड़कर आंदोलन में उतर पड़े. उन्हीं से प्रेरणा लेकर आरटी सिंह भी संघर्ष के पथ पर चल पड़े.

हालांकि, ऐसा नहीं कि आरटी सिंह की बनाई जमीन का राजू यादव को कोई फायदा उनके पुत्र होने के नाते हुआ हो, बल्कि उनका निजी जीवन कठिनाइयों से ही भरा रहा क्योंकि जब वे 4 साल के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था. सारी मुसीबतों और चुनौतियों का सामना करते हुए उनकी मां ने उन्हें पाला-पोसा और साथ में, सामाजिक न्याय की शिक्षा भी दी जिसे उन्होंने बखूबी ग्रहण किया. लेकिन कन्हैया कुमार की मां की तरह उनकी मां की कोई चर्चा नहीं है. दरअसल, राजू यादव मीडिया का इस्तेमाल करने में यकीन नहीं करते.

बेहद सक्रिय और जोखिम भरा जीवन जीने वाले राजू ने वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय को यूजीसी से मान्यता दिलाने के लिए आंदोलन और भूख हड़ताल की सफल लड़ाई लड़ी. उन्होंने विश्वविद्यालय में आरक्षण को हर स्तर पर लागू कराया. उन्हीं के आंदोलनों के कारण देशभर में कॉलेजों की फीस बढ़ोत्तरी के बीच वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय में फीस बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी. एससी-एसटी एक्ट को दोबारा बहाल कराने और 13 प्वांट रोस्टर को वापस कराने के आंदोलन में वे सड़कों पर सक्रिय रहे.

ये वह वजह हो सकती है, जिसकी वजह से मीडिया उनको पसंद नहीं करता.

भूमिहार आतंक के प्रतीक, और रणवीर सेना के सरगना ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद जब रणवीर सेना के गुंडों की अगुवाई में भूमिहार दबंग दलितों और किसानों पर हमले कर रहे थे, तब उन्होंने सस्ती लोकप्रियता पाने वाले लच्छेदार भाषण देने के बजाय जमीनी संघर्ष का रास्ता अपनाया और दलितों-किसानों के साथ खड़े रहे.

महिलाओं और कर्मचारियों के बीच भी उनकी लोकप्रियता काफी दिखती है. महिलाओं और बच्चियों के साथ होने वाले अत्याचारों और बलात्कारों के खिलाफ लड़ाई लड़ने में वे आगे रहते आए हैं. उन्होंने आशाकर्मियों और रसोइया सेवकों के आंदोलनों में भी हिस्सा लिया और मुजफ्फरपुर शेल्टर होम कांड के खिलाफ उभरे राज्यव्यापी आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई.


यह भी पढ़ें : बिहार में लेनिनग्राद से मिलता-जुलता कुछ है तो वो बेगूसराय नहीं, भोजपुर है


इस बार आरा लोकसभा सीट पर उनके पास संसाधनों की कमी तो दिखती है, लेकिन जनसमर्थन के बल पर वे भाजपा उम्मीदवार मौजूदा सांसद और यूपीए काल में गृह सचिव रहे आरके सिंह का मुकाबला कर रहे हैं. पिछले चुनावों में मोदी लहर में आरके सिंह को मिले 3 लाख 91 हजार वोटों के सामने, आरजेडी के भगवान सिह कुशवाहा को 2 लाख 55 हजार और सीपीआई माले के राजू यादव को 98 हजार वोट मिले थे. इस बार आरजेडी और कांग्रेस का राजू यादव को पूरा साथ है और 2014 की मोदी लहर भी गायब है.

आरा लोकसभा सीट वैसे भी सामाजिक आंदोलन की भूमि रही है. इसी इलाके में आजादी के पहले तीन पिछड़ी जातियों कुशवाहा-कुर्मी-यादव का त्रिवेणी संघ बना था. सीपीआई माले का यहां व्यापक जनाधार रहा है. 1989 में इंडियन पीपुल्स फ्रंट के कॉमरेड रामेश्वर प्रसाद लोकसभा का चुनाव भी इसी सीट से जीत चुके हैं.

वास्तव में वामपंथ की असली लड़ाई वही लड़ रहे हैं और यही कारण है कि मीडिया में बैठे छद्म वामपंथियों को वे पसंद नहीं आते. जाति और आरक्षण का मुद्दा उठाते रहने वाले राजू यादव का लोकसभा में पहुंचना जितनी बड़ी क्रांतिकारी घटना हो सकती है, उसका आकलन करने में मीडिया सक्षम तो है, लेकिन उसे बताना नहीं चाहता.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

share & View comments