किसी प्रदेश में दशकों से जनादेश की प्रतिद्वंद्विता में शामिल किसी ऐसी पार्टी को, जो पहले कई बार उसकी सत्ता संभाल चुकी हो, मतदाताओं द्वारा इस तरह नकार दिया जाये कि उसका खाता भी मुश्किल से खुले, तो अपेक्षा की जाती है कि वह इसे जीवन-मरण का प्रश्न मानकर सबक लेगी और न सिर्फ अपने गिरेबान में झांकेगी, बल्कि रीति-नीति के खोट दूर करने में भी लगेगी. ताकि मतदाताओं का गंवाया हुआ विश्वास फिर से हासिल कर पाये.
लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार गई बहुजन समाज पार्टी ऐसा कुछ भी करती नहीं दिख रही. उसकी सुप्रीमो मायावती यह तो मानती हैं कि चुनाव में उसके इतने खराब प्रदर्शन की उन्हें कल्पना तक नहीं थी, इसलिए उन्होंने उसकी सभी कमेटियां भंग कर अपने भतीजे आकाश आनन्द को नेशनल कोआर्डिनेटर व आधारभूमि उत्तर प्रदेश के लिए तीन स्टेट कोआर्डिनेटर नियुक्त कर दिये हैं, लेकिन आत्मावलोकन से उन्हें ऐसा परहेज है कि हार के कारणों की तलाश के नाम पर प्रतिद्वंद्वी दलों पर ठीकरे फोड़कर ही काम चला रही हैं.
खुद के अंदर नहीं झांक रहीं मायावती
उनके इस परहेज का सबसे बड़ा अंतर्विरोध यह है कि ‘दर्जन भर दलों व संगठनों से गठबंधन और मुस्लिम मतदाताओं के एकतरफा समर्थन’ के बावजूद समाजवादी पार्टी के सत्ता से दूर रह जाने को तो इस रूप में देख रही हैं कि उसमें भाजपा को सत्ता से बेदखलकर अपनी सरकार बनाने का बूता ही नहीं है, लेकिन इस सवाल का कोई तर्कसंगत जवाब नहीं दे पा रहीं कि उनकी बसपा में यह बूता है तो उसकी मिट्टी समाजवादी पार्टी से भी ज्यादा क्यों पलीद हो गई? उनके अनुसार इसका कारण यह है कि सपा ने उसके भाजपा की बी टीम होने का प्रचार किया, जबकि भाजपा ने यह कि प्रदेश में बसपा की सरकार न बनने पर वह उन्हें देश का राष्ट्रपति बनवा देगी. इसके अलावा मुस्लिम मतदाताओं ने बसपा की ओर मुंह न करने की गलती की और बसपा के आधार वोटरों के एक बड़े हिस्से ने सपा के ‘जंगल राज’ की वापसी के अंदेशे में भाजपा को वोट दे दिया!
मायावती का यह कथन एक तो भाजपा के लिए किसी कॉम्प्लीमेंट से कम नहीं है, क्योंकि यह जताता है कि दलित व वंचित उसके राज में सपा के राज से ज्यादा आश्वस्त रहते हैं, दूसरे ऐसे सेनापति की याद दिलाता है, जो शिकस्त के बावजूद अपनी रणनीति के खोट देखना गवारा न करता और कहता है कि उसकी रणनीति तो बहुत लाजवाब थी, लेकिन क्या करे, शत्रुसेना का हमला ऐसा विकट था कि वह धरी की धरी रह गई. उसी की तर्ज पर वे कह रही हैं कि क्या करतीं, बसपा के जो प्रतिद्वंद्वी उसके सामने किसी गिनती में नहीं थे, ऐन वक्त में उनका दुष्प्रचार उस पर भारी पड़ गया! इतना ही नहीं, वे मुस्लिमों को कोसते हुए दावा कर रही हैं कि उनके आंख मूंदकर सपा को वोट दे आने के ही कारण भाजपा फिर से प्रदेश की सत्ता पा गई, वरना दलित व मुस्लिम मिलकर उसे सत्ता से बेदखल कर देते.
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मुस्लिमों पर उनकी यह तोहमत इस अर्थ में बेजा है कि इस भ्रांत धारणा पर आधारित है कि भाजपा को सत्ता से बेदखल करने की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा मुस्लिमों की ही है और इसे निभाने के लिए उन्हें हर हाल में ‘अतिरिक्त समझदारी’ प्रदर्शित करनी ही चाहिए!
बेहतर होता कि मायावती समझतीं कि अगर भाजपा देश के लोकतंत्र व संविधान की वैसी ही दुश्मन है, जैसी उसके साथ मिलकर कई सरकारें बनाने के बावजूद वे बताती हैं, तो उसकी बेदखली न सिर्फ मुस्लिमों बल्कि सारे देशवासियों की साझा जिम्मेदारी है, जो इसलिए नहीं निभ पा रही कि उसके हिन्दुत्व के मुकाबले जातीय समीकरणों के आधार पर जीतते आ रहे दल अरसे तक अपनी ऐसी जीतों को लोकतंत्र, संविधान, धर्मनिरपेक्षता और सोशल इंजीनियरिंग वगैरह की जीत बताते और मगन होते रहे और अब भाजपा उसका तोड़ ढूंढ़ लाई है तो उसके एजेंडे के आगे नतमस्तक हो गये हैं या आगे का रास्ता नहीं देख पा रहे.
मसलन, उत्तर प्रदेश में हार के लिए भाजपा व सपा के दुष्प्रचार और मुस्लिमों के अंध सपा समर्थन को कोसने वाली मायावती नहीं बता रहीं कि पंजाब में अलग स्थितियों में अकाली दल से गठबंधन के बावजूद बसपा क्यों हारी? उत्तर प्रदेश में बसपा की एक के बाद एक शिकस्तों को शह में बदलने के लिए भी वे अभी भी नये जातीय व धार्मिक समीकरणों से ही लौ लगाये हुए हैं. उन्हें लगता है कि भाजपा के फंदे में जा फंसी कुछ दलित, पिछड़ी व अगड़ी जातियों को मुक्त कराकर अपने पाले में लाने भर से उनका काम चल जायेगा. मतलब साफ है कि दलितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों की वह समग्र एकता अभी भी उनके सपने में नहीं है, बसपा के संस्थापक कांशीराम जिसकी बिना पर 85 प्रतिशत की एकजुटता से निर्णायक सत्ता व व्यवस्था परिवर्तनों का सपना देखते थे.
बीती शताब्दी के आखिरी दशक में वे और मुलायम मिले यानी सपा-बसपा गठबंधन हुआ तो इस न सिर्फ ऐसी बहुजन एकता की उम्मीद बंधी बल्कि लगा था कि सदियों-सदियों से जातियों व धर्मों के हाथों पीड़ित व सामाजिक अन्याय के शिकार होते आ रहे तबकों को इंसाफ मिलकर ही रहेगा.
लेकिन बाद में सपा व बसपा के अंतर्विरोधों के चलते वह जैसी परिस्थितियों में टूटा और दलितों व पिछड़ों की अंतहीन दुश्मनी के साथ बसपा की पलटीमार राजनीति का वायस बना, उसके बाद के नाना घटनाक्रमों ने अब बहुजनों पर दावेदारी जताने वाली राजनीतिक पार्टियों के लिहाज से धरती को इतना घुमा दिया है कि उनके 85 बनाम 15 के नारे को पलटकर भाजपा 80 बनाम 20 करने और उन्हें मुंह चिढ़ाने लगी है.
विडम्बना यह कि भाजपा के बढ़ते प्रभुत्व के इस दौर में बहुजनों के नायक लगातार अपनी अपीलें सिकोड़ते गये हैं, जिसके चलते उनमें से कई महज अपनी जाति तो कई जाति के भी एक हिस्से भर के नेता रह गये हैं. इसलिए भाजपा की ही तरह वे भी दूषित चेतनाओं के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश करते और उसमें भाजपा की महारत के आगे ढेर हो जाते हैं.
2007 के विधानसभा चुनाव में अद्भुत सोशल इंजीनियरिंग के बूते अकेली बसपा के दम पर बहुमत से प्रदेश की सत्ता में आने की खुमारी से बाहर निकलकर मायावती खुद को इस आईने के सामने खड़ी करतीं तो पातीं कि अब उनकी शक्ल भी बहुजनों के उक्त नायकों से भिन्न नहीं रह गई है.
क्योंकि 2007 से 2012 तक के अपने पांच सालों के निर्विघ्न मुख्यमंत्री काल में ‘दलित की बेटी’ के तौर पर वे न अपनी सख्त प्रशासक की छवि के साथ न्याय कर पाईं, न बहुजनों के हित में सारे अवसरों के इस्तेमाल के संकल्प के साथ और न ही व्यवस्था परिवतन के बहुजनों के पुराने सपने के साथ. उलटे ‘राज-काज’ में ऐसी लिप्त हुईं कि भ्रष्टाचार की मार्फत अनाप-शनाप धनार्जन की राह चलकर ‘दौलत की बेटी’ भी बन बैठीं!
इस चक्कर में उनसे दलित-ब्राह्मण गठजोड़ को दीर्घजीवी बनाना भी सम्भव नहीं हुआ. क्योंकि वे समझ ही नहीं पाई कि 2007 में ब्राह्मण मतदाता उनके पास सिर्फ इसलिए आये क्योंकि वे सपा की तत्कालीन मुलायम सरकार को सबक सिखाना चाहते थे. चूंकि तब तक उनकी मनपसन्द पार्टियों में से कांग्रेस पराभव की ओर बढ़ चली थी और भाजपा इतनी ताकतवर नहीं बन पाई थी कि उनका मनसूबा पूरा कर सके, इसलिए उन्होंने कांटे से कांटा निकालने की मर्ज पर बसपा को उपकृत कर दिया था.
आगे 2012 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने इसी बिना पर सपा को भी उपकृत किया. लेकिन जैसे ही भाजपा ताकतवर हुई और विकल्प बनती दिखी, उसके साथ हो लिए. और हो लिये तो उसी के होकर रह गये. गत विधानसभा चुनाव में उन्हें पटाने के लिए बसपा द्वारा ‘जय भीम’ के साथ ‘जयश्रीराम’ का नारा लगाने और दलितों से भी ज्यादा उनके दुःखों की चिन्ता के बावजूद उन्होंने उसका साथ देना गवारा नहीं किया. क्योंकि भाजपा में उन्हें ऐसा मुकाम मिल गया था, सारी नाराजगी के बावजूद जिसे छोड़ना उन्हें कुबूल नहीं था.
लेकिन बसपा की शिकस्तों की कथा इतने पर ही खत्म नहीं होती. उसकी जो ‘पलटीमार’ राजनीति कभी बहुजनों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए अवसरों के इस्तेमाल का भ्रम रचती और उसे छुपी रुस्तम की संज्ञा दिलाती थी, बाद में कैसे भी हथकंडों से सत्ता पर कब्जे के सर्वथा नैतिकताविहीन खेल में बदल गयी तो उसकी अविश्वसनीयता के संक्रमण से दूसरी जातियां, यहां तक कि उसके मूल आधार दलित व मुसलमान भी नहीं बच पाये. फिर तो उसके लिए दलित-मुस्लिम गठजोड़ भी संभव नहीं रह गया. अकारण नहीं कि उसका ‘यूपी हुई हमारी है, अब दिल्ली की बारी है’ का पुराना नारा अब इस गति को प्राप्त हो गया है कि वह न तीन में रह गई हैं न तेरह में.
इस राजनीतिक बदहाली से मुक्ति का फिलहाल उसके पास एक ही रास्ता है: बहुजनों की मुक्ति और व्यवस्था परिवर्तन के पुराने नारे पर फिर से लौटकर उसके प्रति अपने समर्पण को नये सिरे से विश्वसनीय बनाने में लगने का. नि:स्संदेह, इसके लिए उसे नये सिरे से कांशीराम जैसी ‘नेक’ कमाई में, जिसके बारे में कहा जाता है कि मायावती ने ‘बेच खाई है’, लगना और समग्र बहुजन एकता की राह के कांटों को बुहारना होगा. इसके लिए दलों और नेताओं की एकता भर काफी नहीं होगी, यह 2019 के लोकसभा चुनाव में सिद्ध हो चुका है. वे कई बार गठबंधन करके शिकस्त खा चुकी हैं और एकला चलकर भी. इसलिए राजनीतिक संघर्षों को, जो लम्बे भी खिंच सकते हैं, जमीनी हकीकतों तक ले जाना होगा.
सवाल है कि क्या मायावती उसको इस लम्बी लड़ाई के लिए फिर से तैयार करने का धैर्य प्रदर्शित कर पायेंगी? अगर नहीं तो उनके द्वारा प्रतिद्वंद्वियों और मुस्लिमों पर ठीकरे फोड़ने का कोई हासिल नहीं है. हासिल तो उनके हाथ तभी हाथ आयेगा जब वे बहुजन समाज पार्टी को नये सिरे से बहुजनों की पार्टी बनाने में लगेंगी.
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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