शायद ही कोई दक्षिण एशियाई शासक इस कदर आकर्षण और आदर जगा सका जैसा अशोक मौर्य ने जगाया. समूचे राजनैतिक परिदृश्य में, इतिहासकार और राजनैतिक नेता यह दावा करने की होड़ में जुटे रहते हैं कि वह उनका अपना था, वह प्रबुद्ध राजा था. यही सबूत है कि भारत कभी प्रारंभिक अतीत में ‘एकजुट’ था, और कि ‘धर्म’ जिसकी सुविधानुसार व्याख्या कर ली गई है, 21वीं सदी के राष्ट्र-राज्य की मार्गदर्शक विचारधारा हो सकता है और होना चाहिए.
लेकिन ऐसे अनेक विचार हवा में महल खड़ा करने की तरह हैं. हाल के पुरातत्व संबंधी अध्ययन मौर्य साम्राज्य के बारे में ज्यादा रोचक खुलासे करते हैं, खासकर उन मामलों में जिन्हें हम बड़े भरोसे से मानते हैं.
सुविधाजनक व्याख्याएं
बीसवीं सदी के भारतीय राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों, खासकर जवाहरलाल नेहरू के लिए अशोक अतीत में एकता के प्रतीक थे, जबकि समकालीन राजनैतिक परिदृश्य सैकड़ों रियासतों में बंटा हुआ था. उनके ‘धर्म’ को धर्मनिरपेक्षता या सेकुलर विचारों की उभरती अवधारणा जैसा ही देखा गया, जो बंटवारे और धार्मिक तथा राजनैतिक पहचानों के टकराव से पस्त राष्ट्र के लिए बेहद जरूरी था.
इसके अलावा, अशोक का बौद्ध धर्म के प्रसार में योगदान इस बात का ‘प्रमाण’ लगा कि मोटे तौर पर और सुविधानुसार परिभाषित ‘भारत’ हमेशा ही एशिया में विचारों के प्रवाह ‘केंद्र’ रहा है. यह राष्ट्रीय गौरव की भावना जगाने के साथ-साथ नेहरू की राष्ट्रों उत्तर-औपनिवेशिक देशों का ब्लॉक बनाने की कोशिशों के लिए भी जरूरी था.
सो, कोई आश्चर्य नहीं कि आजाद भारत की अधिकांश वास्तुकला और मूर्तिकला मौर्य काल से प्रेरित रही.
लेकिन इनमें से कई मान्यताएं अधूरे प्रमाणों पर आधारित हैं. ठोस बात कहें तो ‘धर्म’ की व्याख्या ‘सेकूलर’ के संदर्भ में नहीं की जा सकती है क्योंकि अशोक ऐसे दौर में अक्सर खुद को साधारण बौद्ध के रूप में पेश करने की काफी कोशिश करते दिखते हैं, जब बौद्ध धर्म का आक्रामक प्रचार नए धर्म के रूप में जारी था.
इसके अलावा, उपमहाद्वीप के बाहर बौद्ध धर्म के प्रसार में तेजी अशोक की मृत्यु के ठीक बाद शुरू हुई, और उसमें भारत की श्रेष्ठता के धुंधले-से आख्यान के बजाय स्थानीय बाजार की जरूरतें ज्यादा प्रभावी थीं. उनकी मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य की ताकत में तेजी से गिरावट से यह तथ्य स्थापित होता है कि केवल स्तंभों और शिलालेखों से वास्तविक राजनीतिक नियंत्रण का कुछ लेना-देना नहीं था.
जाहिर है, हम मौर्य साम्राज्य के बारे में जैसा विचार रखते हैं, उसमें गहरी खामियां हैं. पुरातत्वविद् नमिता सुगंधी ‘क्वेस्चंस ऑफ इंटेंडेड मीनिंग एंड अशेकन एडिक्ट्स’ में तर्क देती हैं कि औपनिवेशिक इतिहासकारों ने अशोक के शब्दों का बड़ा भव्य अनुवाद किया. इससे मौर्य साम्राज्य की संरचना की काल्पनिक व्याख्या को बल मिला. मसलन, वे लिखती है कि जहां-तहां राजकुमारों के बिखरे हुए संदर्भों का इस्तेमाल यह दावा करने के लिए किया गया कि साम्राज्य उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम प्रांतों में विभाजित था.
इसी तरह, केवल एक मौर्य शिलालेख की उपस्थिति को ‘नियंत्रण’ या ‘प्रभुत्व’ का प्रमाण मान लिया जाता है. इस तर्क से हम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि 14वीं शताब्दी में ग्वांगझू में एक मंदिर बनाने वाले तमिल व्यापारियों ने चीन पर राज किया था. या कि 11वीं शताब्दी में नागपट्टनम में एक बौद्ध मठ दान देने वाले जावा के शैलेंद्र राज परिवार ने तमिलनाडु पर राज किया था.
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क्या मौर्य वंश ने ‘भारत को एक’ किया था?
हम प्रचलित धारणाओं को तोड़ दें, तो मौर्य लोग अधिक चुनौतीपूर्ण लगने लगते हैं. वे गंगा के मैदानी इलाके में राजनीतिक एकीकरण की लगभग 300 साल लंबी प्रक्रिया की परिणति थे, जो रजवाड़ों के आपसी और बाहरी भारी हिंसक संघर्ष के दौर से गुजरा था. इस दौरान, धार्मिक और वाणिज्यिक नेटवर्क भी अधिक व्यापक हो गए, और दक्षिण एशिया की पश्चिम एशिया से अधिक करीबी संबंध हो गए. 326 ई.पू. में लूटमार करने वाली यूनानी सेना का पंजाब में आगमन और अफगानिस्तान में यूनानी नगरों की स्थापना इसके उदाहरण हैं.
दक्कन में भी विकास हो रहा था. वहां लौह युग खूब प्रगति कर रहा था. 2021 में एक साक्षात्कार में प्रोफेसर सुगंधी ने बताया कि दक्कन के लोग उन्नत धातुकर्म तकनीकों का इस्तेमाल कर रहे थे, छोटी-छोटी रियासतों के बीच व्यापार और युद्ध दोनों जारी था, यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार से भी जुड़ गए थे. और यह सब कुछ बिना किसी शहर, रियासत या बड़े पैमाने पर खेती-बाड़ी के हुआ करता था.
ऐसी ही दुनिया में मौर्य वंश ने शासन किया, विजय प्राप्त की और मर गए. यह ठीक-ठीक अनुमान लगा पाना असंभव-सा है कि उन्होंने कैसे अपना राज कायम किया. इस पर इतिहासकार देविका रंगाचारी ने अपनी हालिया पुस्तक द मौर्याज में बाद की किंवदंतियों और साहित्यिक रचनाओं के जरिए रोशनी डाली है. बस एक ही बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि मौर्य वंश का समूचे गंगा के मैदान में राज था और अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए व्यापक अभियान चलाए गए थे. उन्होंने अपने भू-राजनीतिक प्रभाव का विस्तार किया, भूमध्यसागरीय दुनिया के साथ दूतावासों का आदान-प्रदान किया.
लेकिन पूरे उपमहाद्वीप में बड़े पैमाने पर मौर्य वंश की ‘विजय’ या ‘नियंत्रण’, और इस तरह उसे ‘पहला भारतीय साम्राज्य’ बताने के दावे अतिशयोक्तिपूर्ण हैं और अधूरे साक्ष्य पर आधारित हैं. मौर्य साम्राज्य गंगा के मैदानी इलाकों में भी पहला नहीं था. उसके पहले नंद वंश ने अपेक्षाकृत कामयाब साम्राज्य कायम किया था.
दक्कन और उसके आगे मौर्य साम्राज्य के सभी दावे इस अहम सवाल को नजरअंदाज कर देते हैं कि मौर्य क्यों ऐसा चाहेंगे? नाटकीय ऐतिहासिक आख्यानों की खोज में हम अक्सर माल-असबाब, नफा-नुकसान और उत्पादकता के मुश्किल सवालों को झटक देते हैं. लेकिन इन विषयों पर गौर किए बिना न कोई आधुनिक या उससे पहले की राज्यसत्ता अपना वजूद बनाए रख सकती थी. तकरीबन फ्रांस के आकार का ढक्कन इलाके और गंगा के मैदानों के बीच पहाड़ और घने जंगलों का भारी फासला रहा है. यह किसी भी तरह से गंगा के मैदान के साम्राज्यों के लिए सैन्य और प्रशासनिक पहल में निवेश करने के खातिर लाभदायक नहीं था, जो तब एक विशाल और कम आबादी वाला क्षेत्र था.
इतिहासकार हिमांशु प्रभा राय ने इंटरप्रेटिंग द मौर्यन एम्पायर में लिखा कि ऐसे किसी ढांचे का कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है. वास्तव में, दक्कन में पाए गए ‘मौर्य’ शिलालेख ज्यादातर अशोक के छोटे शिलालेखों में से एक की नकल लगते हैं, जो प्रमुख केंद्रों के बजाय छोटे धार्मिक स्थलों के पास स्थित हैं. इससे पता चलता है कि वहां के लोग मौर्यों की ‘प्रजा’ नहीं थे, बल्कि वे लोग थे जिन्हें वे प्रभावित करना चाहते थे और उनके सामने प्रदर्शन करना चाहते थे. लेकिन शिलालेख किसने बनाए और क्यों?
प्रोफेसर सुगंधी ने बिटवीन द पैटर्न्स ऑफ हिस्ट्री में दक्षिणी दक्कन में एक नवपाषाण/लौह युग स्थल, टेक्कलकोटा के पुरातात्विक साक्ष्यों की पड़ताल की. वहां एक अशोक शिलालेख है, और खुदाई के दौरान कुछ उत्तर भारतीय चांदी के सिक्के पाए गए थे. लेकिन मोटे तौर पर, टेक्कलकोटा की भौतिक संस्कृति अपने पड़ोसी राज्य के लगभग समान थी, शायद व्यापार के अलावा दूर-दराज के गंगा के मैदान के साम्राज्य का वहां बमुश्किल ही कोई ‘असर’ था.
इस क्षेत्र में मौय साम्राज्य के एजेंट शायद अशोक के सिपहसालार नहीं, बल्कि स्थानीय अभिजात वर्ग के लोग थे, जो उपमहाद्वीप के नए नेटवर्क से जुडऩा चाहते थे. या वे गंगा के मैदानों के व्यापारी या बौद्ध भिक्षु हो सकते हैं, जो राज-व्यवस्था की मदद से अपना प्रसार बाहर करना चाहते थे.
राजा-रजवाड़ों से परे ‘एकता’
अशोक और मौर्य साम्राज्य के नायकत्व की ओर देखने के बजाय, अब हमारे पास प्राचीन भारतीय इतिहास का अधिक आकर्षक मॉडल है, जो कई नेटवर्कों, कई शक्ति केंद्रों और कई आबादियों की गतिविधियों के परिणामस्वरूप तैयार हुआ. ऐसी गतिविधियों से ही बौद्ध धर्म इस उपमहाद्वीप से बतौर महान सांस्कृतिक पहल दुनिया के बाकी हिस्सों में फैल गया. इसी से यह सहज समझ में आता है कि पूरे उपमहाद्वीप में भी यह कैसे फैल गया. आखिरकार, हम भले खुद को सबसे अलग मानना पसंद करते हैं, लेकिन दक्षिण एशिया में भी उन्हीं बुनियादी ऐतिहासिक ताकतों का राज रहा है, जैसा दुनिया के बाकी हिस्सों में रहा है.
मौर्य वंश इसलिए उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि तीसरी शताब्दी में वह जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसी हैसियत में था, या उनकी नाटकीय जीवन-गाथा सदियों तक धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से गूंजती रही. इसके विपरीत वह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वह दस दौर के कुछ नामी-गिरामी वंशों में था, जिसके दौर में गंगा के मैदान पहली बार वैश्विक संस्कृति और वाणिज्य का महान केंद्र बना.
हम थिंकिंग मिडिवल के आगे के लेखों में देखेंगे कि वह उपमहाद्वीप और उसके परे उल्लेखनीय परिवर्तनों की शृंखला की प्रेरणा बना.
(अनिरुद्ध कणिसेट्टी इतिहासकार हैं. वे मध्यकालीन दक्षिण भारत के एक नया इतिहास लॉर्ड्स ऑफ द डेक्कन के लेखक हैं, और इकोज ऑफ इंडिया और युद्ध पॉडकास्ट की मेजबानी करते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @AKanisetti है. व्यक्त विचार निजी है.)
यह लेख ‘थिंकिंग मिडुअल’ शृंखला का हिस्सा है जो मध्यकालीन भारत की संस्कृति, राजनीति और इतिहास में गहराई से झांकता है
(अनुवाद: हरिमोहन मिश्रा | संपादन: ऋषभ राज)
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