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Monday, 10 November, 2025
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मणिपुर ने बहुत दर्द झेला है, अब वो वादों के जाल में नहीं फंसेगा

उत्तर-पूर्व के लोगों को दिखावटी बातों से आसानी से रिझाया नहीं जा सकता, इस हकीकत से नेहरू का तो सामना तभी हो गया था जब 1953 में 3000 नगाओं ने उनकी सभा का बहिष्कार कर दिया था.

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सबसे पहले शंखध्वनि सुनाई दी, उसके बाद पूरी 125 किलोग्राम वजनी काया के साथ महाराजा बोध चंद्र सिंह प्रकट हुए. मणिपुर रियासत के अंतिम शासक के बारे में पत्रकार रॉबर्ट ट्रंबुल ने लिखा है: “उनकी विशाल काया सोने की चमक से दमकते हरे मखमली परिधान में लिपटी थी, और सिर पर भारी-भरकम सफ़ेद पगड़ी सज रही थी जिसमें किसी अनोखे पक्षी के पंख लगे थे. उनकी भारी-भरकम भूरी बांहें सोने के आभूषणों और चूड़ियों से ढकी थीं. एक कान से सोने का इतना भारी कुंडल लटक रहा था कि उसे सहारा देने के लिए कान के ऊपरी भाग में सोने की जालीदार जंजीर लगानी पड़ी थी.”

मैतेई कैलेंडर के लंगबान महीने की 11वीं तिथि को होने वाली नौका दौड़ के पहले महाराजा के सहायकों ने उन्हें “तरह-तरह के रंगों से पुते और चमकदार वस्त्रों से सजे उनके हाथी” से उतारा तो महाराजा ने दौड़ में भाग लेने वाली दो में से एक नाव के खेवैया बने. पहली दौड़ वह व्यक्ति जीते जो भगवान विष्णु का प्रतिनिधि है यह सुनिश्चित करने के लिए महाराजा अपनी नाव नदी के किनारे ले आए. जैसा कि उन्होंने दावा किया, दूसरी दौड़ पृथ्वी पर विष्णु का प्रतिनिधित्व करने वाले महाराजा ने जीती.

ऐसा कोई रेकॉर्ड उपलब्ध नहीं है जो यह बता सके कि 30 मार्च 1953 को हुए उस तमाशे में मौजूद रहे बर्मा के प्रधानमंत्री यू नू और भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उस पर क्या प्रतिक्रिया की थी.

मणिपुर में 2023 से शुरू हुई जातीय हिंसा के बाद पहली बार वहां का दौरा कर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी इन दोनों नेताओं की तरह रंगारंग आयोजन और गर्मजोशी के साथ स्वागत किया गया. जातीय हिंसा में अब तक 260 लोगों की जान जा चुकी है और 60,000 से ज्यादा, मुख्यतः कुकी-ज़ो शरणार्थियों को अपने घरों और अपनी जमीन से बेदखल होना पड़ा है. प्रधानमंत्री ने नये प्रशासन द्वारा किए जा रहे विकास कार्यों का जिक्र किया, लेकिन मैतेई और कुकी-ज़ो समुदायों के बीच राजनीतिक सुलह कराने का कोई खाका नहीं पेश किया, और न मार-काट करने वालों को जिम्मेदार ठहराने का कोई वादा किया.

2023 और 2024 के कत्लेआम के बाद से नागरिकों की हत्या का सिलसिला कम हुआ है, लेकिन ‘साउथ एशिया टेररिज़्म पोर्टल के आंकड़ों के अनुसार, एक दशक से न देखे गए बागी अब फिर से दिखने लगे हैं.

नेहरू ने यह सबक सीखा था कि उत्तर-पूर्व के लोगों को दिखावटी बातों से आसानी से रिझाया नहीं जा सकता. जिला कमिश्नर ने जब नगालैंड के निर्माण की अर्जी कबूल करने से इनकार कर दिया था तब नेहरू को देखने आए करीब 3,000 नगाओं ने बहिष्कार कर दिया था. सेमा, संतांग और कोन्यक जनजातियों यह अर्जी देकर चले गए कि “आपको हमारा राजा बनने का क्या अधिकार है? आप चाहें तो नगा देश को आज़ाद कराने और हमें अपनी पसंद का जीवन जीने का ज्ञान देने वाली किताब देने के लिए आ सकते हैं लेकिन आप हमारे राजा नहीं बन सकते.”

यू नू ने सड़क से सफर में एक पड़ाव पर ज्यादा सख्त संदेश दे दिया. बर्मा के प्रधानमंत्री के लिए इंफाल के दौरे ने उनकी सीमाओं पर कातिलाना जातीय युद्ध को खत्म करने का एक मौका दिया था. इससे कुछ दिनों पहले सीमा से 10 मील की दूरी पर बर्मी सेना जंगल पार करके सालाव नगा बागियों की घेराबंदी की थी और 32 जनजातीय लोगों को मौत के घाट उतार दिया था.

बर्मी नेता ने भारतीय नगाओं को आज़ादी से सीमा पार करके बर्मा आने और अपने बर्मी भाइयों को अपनी अधिक विकसित सभ्यता सिखाने का निमंत्रण दिया. लेकिन, उन्होंने तंज़ कसते हुए कहा कि, उन्हें अपने चाकू घर पर ही छोड़ देना चाहिए. “अब एक दूसरे का सिर काटने जैसी कोई वारदात नहीं होगी.”

बंदूक और पंख

भारत के मैदानी इलाकों के नेता उत्तर-पूर्व के बारे में पुराने घिसी-पिटी मुहावरों से चिपके रहे हैं. इंफाल में मोदी ने मणिपुर को “भारत माता के मुकुट पर जड़ा एक नगीना” बताया. उनसे पहले नेहरू लगभग इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल कर चुके थे. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उम्मीद जाहिर की थी कि मणिपुर “एक रत्न की तरह चमकेगा और पूरे भारत को और सुंदर बनाएगा”. लेकिन सच्चाई इतनी काव्यात्मक नहीं थी: उन्होंने 1969 में इम्फाल में जो जनसभा की थी उसमें विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों को भगाने के लिए पुलिस को गोलियां चालानी पड़ी थीं.

मणिपुर में राजनीति ने भारत की आजादी के पहले ही कट्टरपंथी रूप ले लिया था. मिशनरियों के आगमन ने समुदायों के अंदर और उनके बीच सांप्रदायिक तनाव पैदा कर दिया था. इसके अलावा मैदानी इलाकों के लिए चावल पर लेवी ने लगभग अकाल के हालात पैदा कर दिए थे.

1939 में, चावल की मांग कर रहीं महिलाओं पर पुलिस ने हमला कर दिया था. इन विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व महाराजा के दामाद इरबोट सिंह कर रहे थे. लेखक होमेन बोर्गोहाइन इरबोट का यह बयान दर्ज किया कि महिलाएं “मुट्ठी भर चावल मांग रही थीं और आपने उन्हें बाल्टी भर खून दिया”.

वैसे, मणिपुर में कई लोग मानते हैं कि मसला केवल चावल का नहीं था. भारत में विलय ने उनकी जायज राजनीतिक आकांक्षाओं को दबा दिया. जैसा कि इतिहासकर प्रियदर्शिनी गंगटे ने लिखा है, हालांकि इस राज्य ने 1948 में अपना अलग संविधान बनाया और चुनाव करवाए जिसमें हर उम्मीदवार की अपनी अलग-अलग मतदान पेटी थी जिन पर उनकी तस्वीर लगी थी, फिर भी इस राज्य को ‘सी’ दर्जा दिया गया जिसमें कोई निर्वाचिर जनप्रतिनिधि नहीं था.

लड़ाई का समय

तमाम क्रांतिकारियों की तरह इरबोट सिंह ने जेल में रहते हुए अपनी राजनीति का विस्तार किया. सिल्हट की जेल में बंद दूसरे जातीय-राष्ट्रवादियों के साथ मुलाकातों ने उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुंचाया कि मैतेई, नगा, कुकी और ज़ो समुदायों को एकजुट करके चलाया गया बहुजातीय विद्रोह ही सफल हो सकता है. बाद में इसने उन्हें जातीय-राष्ट्रवादियों से अलग करके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की जमात में शामिल करवा दिया.

लेकिन सशस्त्र विद्रोह इरबोट सिंह की उम्मीद से ज्यादा कठिन साबित हुआ. इतिहासकार एन. जॉयकुमार सिंह ने लिखा है कि 1966 में स्थापित ‘मैतेई स्टेट कमिटी’ ने संयुक्त क्रांतिकारी आंदोलन चलाने के लिए नगालैंड की तथाकथित संघीय सरकार का समर्थन हासिल करने की कोशिश की. नगाओं ने गर्मजोशी भरी बातें तो की लेकिन हथियार साझा करने की तैयारी नहीं दिखाई.

ओइनम सुधीरकुमार सिंह के नेतृत्व में यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने बंगाल से आए मारवाड़ी व्यापारियों जैसे प्रवासियों को निकाल बाहर करने के लिए ताकत का इस्तेमाल करने का वादा करके कौमपरस्ती के नाम पर सशस्त्र आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की. इस आंदोलन ने चीन और पाकिस्तान से भी मदद हासिल करने की कोशिश की मगर इसे संदेह की नजर से देखा गया.

मणिपुर की क्रांतिकारी सरकार ने इन कोशिशों के अगले कदम के तहत अपने कार्यकर्ताओं को सिल्हट के पास पाकिस्तानी सेना के अड्डे पर ट्रेनिंग दिलवाने में कामयाबी हासिल कर ली. इस गुट के काडर ने मणिपुर में कई सफल कार्रवाई की जिनमें इंफाल में डाकघर और इंपीरियल कॉलेज के दफ्तर को लूटना शामिल था. लेकिन 1971 की लड़ाई ने उसकी कार्रवाइयों पर रोक लगा दी.

1978 के बाद से एन. बिशेश्वर सिंह के नेतृत्व में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ मणिपुर (पीएलए) ने मुहिम फिर शुरू की और भारतीय सेना पर कई बड़े हमले किए. इस मुहिम में पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांग्लेईपाक और कांग्लेईपाक कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल हो गई. 1980 वाले दशक के मध्य तक हिंसा बड़े पैमाने पर होती रही.

खून के घड़े

हर एक जातीय गुटों के सैन्यीकरण ने पड़ोसी गुटों को भी इसके लिए मजबूर किया. नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड के इसाक मुइवा (एनएससीएन-आईएम) ने मणिपुर के पांच में से चार जिलों—उखरुल, सेनापति, तामेंगलॉन्ग, और चंदेल—पर वास्तव में कब्जा कर रखा था. 1997 में इसने केंद्र सरकार के साथ युद्धविराम का समझौता किया लेकिन जमीन पर उसकी सत्ता बनी रही. पीएलए ने प्रतिद्वंद्वी एनएससीएन-खापलांग गुट के साथ मेल करके म्यांमार के अंदर के अड्डों से कार्रवाई शुरू करके हालात को और खराब कर दिया. जबरन वसूली और ड्रग्स के पैसे ने आग में घी डालने का काम किया.

1990 के दशक की शुरुआत के साथ इस क्षेत्र में कई जातीय गुटों के बीच संघर्ष शुरू हो गए. कुकी बनाम नगा, मैतेई बनाम मुस्लिम, कुकी बनाम कार्बी, हमार बनाम डिमासा और कुकी बनाम तमिल संघर्षों ने समुदायों को मोरह में ब्रिटिश राज के दौरान आ बसे मारवाड़ी व्यापारियों के खिलाफ खड़ा कर दिया. एनएससीएन-आईएम के साथ हुआ युद्धविराम 2001 में मणिपुर में भी लागू हुआ तो मैतेई समुदाय में यह डर फैल गया कि उनके राज्य का विभाजन हो जाएगा. इस डर के कारण भारी पैमाने पर हिंसा फूट पड़ी.

इंफाल जैसे शहरों में बहुजातीय समाज के तत्व उभरने लगे थे, और अपनी शिक्षा और जातीय आरक्षण के बूते कुकी समुदाय आर्थिक अवसरों का लाभ उठाने लगा था. इसे मैतेई समुदाय के जातीय वर्चस्ववादियों ने अपने लिए एक खतरे के रूप में देखा. उन्होंने घोषणा कर दी कि कानून चूंकि मैतेई लोगों को पहाड़ियों में जमीन खरीदने से रोकता है, वे अंततः दबा दिए जाएंगे.

पहचान पर आधारित जहरीली सियासत को बदलना, और मणिपुर के सभी जातीय समूह जिनमें अर्थपूर्ण भागीदारी कर सकें ऐसे लोकतांत्रिक संस्थानों का निर्माण करना एक भारी चुनौती है. इसके लिए भारत की सभी पार्टियों को निरंतर राजनीतिक प्रयास करने पड़ेंगे, केवल सरकारी सेवकों द्वारा तैयार योजनाओं को लागू करना काफी नहीं होगा. अफसोस की बात है कि प्रधानमंत्री का तीन घंटे का दौरा मणिपुर को फिर से एकजुट करने की दिशा में पहला कदम तक बढ़ाता नहीं नजर आता.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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