अब्दुल जब्बार ने 1984 में यूनियन कार्बाइड के प्लांट में हुए भयानक गैस के शिकार लोगों को एकजुट किया, उनकी न्याय की लड़ाई लड़ी स्वयं अपनी बीमारी से हार गए. गुरुवार को उन्होंने अंतिम सांस ली. दुनिया के सबसे भयावह औद्योगिक त्रासदी के शिकार लोगों को उन्होंने गैस रिसाव से हुए नुकसान के मुआवज़े के रूप में नौकरी पाने, राहत राशि पाने, हर महीने पेंशन पाने और इलाज की मांग के लिए लामबंद किया.
ये लड़ाई आसान नहीं थी. इस तरह की त्रासदी भारत में पहले कभी नहीं हुई थी. इस तरह की त्रासदी से लड़ने, सत्ता से जूझने का शउर भोपाल में भी नहीं था. गैस लीक के पहले के काल खंड मे भोपाल ‘राजनीति के पहले’ वाली अवस्था में था. रातोंरात लोगों को शक्तिशाली कारपोरेशन से जूझने और अमरीकी और भारत सरकार से दमखम से निपटने की कला सीखनी पड़ी . शुरुआती दौर में अब्दुल जब्बार जैसे लोगों ने हज़ारों संकोची और विनम्र भोपालवासियों को अपने हक के लिए जानदार लड़ाकों में तब्दील कर दिया.
अब्दुल जब्बार ने 2014 में एक विस्तृत मौखिक इतिहास साक्षात्कार में उन दिनों को याद करते हुए कहा था, ‘भोपाल में दो तरह के संघर्ष थे- एक आत्म निर्भरता की खोज और दूसरा सरकार की नाइंसाफी के खिलाफ लड़ाई. ये लड़ाई सड़कों पर और अदालतों में लड़ी जा रही थी, पर हमारे पास इन लड़ाईयों को लड़ने का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं था.’ पिछले तीन महीनों में, भारी मधुमेह से ग्रस्त जब्बार दिल की कई बीमारियों से भी जूझ रहे थे और एक अस्पताल से दूसरे का चक्कर काट रहे थे. मुझे पिछले हफ्ते ही एक व्हाट्सएप मेसेज आया कि बीएमएचआरसी सरीखा एक सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल भी उनका इलाज नहीं कर पा रहा, क्योंकि अस्पताल के पास पूरी सुविधाएं नहीं है. उन्होंने इसे ‘शर्मनाक’ बताया. उनकी हालत बिगड़ती गई और गैंगरीन हो गया. उनके करीबी दोस्त बताते है मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें हवाई मार्ग से मुम्बई के एशियन हार्ट इंस्टिट्यूट में 19 नवंबर को ले जाने का इंतज़ाम किया, पर वे उसके पहले ही चल बसे.
जब मैं पहली बार 1993 में अब्दुल जब्बार से मिली थी, तो वो कई सौ औरतों के एक लंबे काफिले का नेतृत्व कर रहे थे. भोपाल की सड़कों पर हो रहे, इस प्रदर्शन में कई औरतों के चेहरे, साड़ी और बुर्कों में ढ़ंके हुए थे और उनके हाथ में तख्तियां थी. इनपर लिखा था ‘गैस पीड़ित को इंसाफ दो’, ‘एंडरसन को फांसी हो’ (यूनियन कार्बाइड प्रमुख वॉरन एंडरसन.) जब्बार तब महज़ 37 साल के थे और इस प्रदर्शन का नेतृत्व इस नारे, ‘लड़ेंगे जीतेंगे’ के साथ कर रहे थे और सारी महिलाएं उनके पीछे लयबद्ध करीके से इसे दोहरा रहीं थी, फिर उनका नारा था ‘हम भोपाल की नारी हैं, फूल नहीं चिंगारी है.’
स्थिति बहुत खराब थी
दिसंबर 1984 में यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक संयंत्र से ज़हरीली गैस का रिसाव हुआ, जिसमें 8000 लोग तभी मारे गए और लगभग 25,000 अगले कुछ दशकों में मर गए. इसने 150,000 लोगों को ज़िंदगी भर सांस की बीमारी, हारमोनल बदलाव और मानसिक बीमारियों से जूझने को छोड़ दिया. गैस पीड़ितों के परिवारों में कैंसर और शारीरिक विक्षिप्तता के मामले अनेकानेक है. स्वयं जब्बार के परिवार के तीन सदस्यों को गैस लील ले गई थी और स्वयं फेफड़ों और आंखों की बीमारी से जूझते रहे.
(हैल्थ अफेक्ट ऑफ टॉक्सिक गैस लीक फ्रोम यूनियन कार्बाइड मिथाइल आइसोसायनेट प्लांट इन भोपाल, टेक्निकल रिपोर्ट, एपिडिमियोलोजिकल स्टड़ी 1985-1994. रिपोर्ट बाय इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च 2004) नौ सालों में गैस के शिकार और पीड़ितों के परिवारों को मुआवज़े के तौर पर बहुत छोटी रकम दी गई. उन्हें भ्रष्ट और आलसी नौकरशाहों से जूझना पड़ा और कागज़ी कार्रवाई के बोझ तले दबना भी और दर्ज़नों अदालतों के चक्कर कांटने पड़े.
सबसे पहले सरकार ने हर रोज 200 ग्राम दूध और हर महीने 5 किलोग्राम राशन की सहायता दी. हालांकि, यह पर्याप्त नहीं था. अब्दुल जब्बार ने महिलाओं को एक नया नारा दिया, ‘हम दान नहीं चाहते हैं, हम नौकरी चाहते हैं.’
जब्बार ने कहा, ‘हम 1988 में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय में यह कहते हुए गए कि जब तक लोगों को उनका मुआवजा नहीं मिलता, तब तक उन्हें अंतरिम राहत के रूप में अवश्य कुछ मिलना चाहिए. हमारी पहली सफलता महिलाओं के लिए सिलाई केंद्रों को प्राप्त करना था. इन केंद्रों में लगभग 2300 महिलाओं ने काम किया, जो जरदोजी स्ट्रिप्स और सामान रखने वाले झोले को बनाती हैं. उन्होंने वकीलों, डॉक्टरों, नौकरशाहों और पुलिस से लड़ने में महिलाओं की मदद की.
अब्दुल जब्बार ने भोपाल में लगभग 30,000 जीवित बचे लोगों के सबसे बड़े समूह का प्रतिनिधित्व किया था. 1986 से लेकर अपने अंत तक, उन्होंने हर शनिवार को विरोध सभाएं आयोजित कीं- पहले राधा सिनेमा के पास करते थे, फिर यादगार-ए-शाहजहानी पार्क- एक ऐतिहासिक स्थल, जहां 1942 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ लड़ाई का मंचन किया गया था.
हर हफ्ते महिलाएं अपने मेडिकल फाइल और भाषण देते हुए दोपहर के भोजन के बाद पार्क में इकट्ठा होती थीं और संघर्ष के किस्से सुनाती थीं. एक बैनर पर लिखा था कि, ‘केवल वे ही संघर्ष में भाग ले सकते हैं जो दान कर सकते हैं.’
यह एक अनोखा मॉडल था. जब्बार ने प्रत्येक बचे हुए लोगों को स्वेच्छा से अहिंसक आंदोलन में 50 पैसे दान करने को कहा. उन्होंने कहा बाहर से मिलने वाली फंडिंग बैसाखी की तरह थी, त्रासदी में बचे लोगों को अपनी आंतरिक शक्ति को पहचानना होगा.
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उन्होंने कहा कि न्याय की लड़ाई सिर्फ भोपाल के लिए ही नहीं बल्कि पूरे भारत के लिए महत्वपूर्ण थी. क्या आप एक गलत मिसाल कायम करना चाहते हैं जो यह कहती है कि ‘इस देश में आओ, लोगों के जीवन, स्वास्थ्य और पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करो और थोड़े से मुआवजे का भुगतान करने के बाद मुक्त हो जाओ या क्या आप यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि इन दोषियों को सजा मिले ?
2001 में यूनियन कार्बाइड डॉव केमिकल्स की सहायक कंपनी बन गई. जिससे संघर्ष शिफ्ट हो गया. भोपाल में कुछ समूहों के विरोध की शैली बदल गई और वैश्विक नेटवर्क बन गया. अब्दुल जब्बार ने सीमित संसाधनों के साथ पुराने तरीकों से संघर्ष किया.उन्होंने अक्सर कहा कि विदेशी फंडिंग और बाहर के वॉलंटियर्स और इंटर्न के बिना उनकी पुरानी फाइलें, पोस्टर, हैंडबिल और तस्वीरें संग्रहीत या डिजिटाइज़ नहीं की जा सकती थीं. जब्बार एक पुराने कंप्यूटर के साथ संघर्ष कर रहे थे, उनकी नज़र कमजोर हो रही थी और उनके कार्यालय की दीवारों पर लगी 35 साल पुरानी तस्वीरें पहचान से परे हो गयी थीं.
उन्होंने अपने फोन पर एक फेसबुक अकाउंट भी खोला. हालांकि, उन्होंने मौखिक इतिहास के अपने सत्र में कहा था कि फेसबुक पर एक्टिविज़म क्रांति नहीं ला सकती, इसके लिए आपको ज़मीन पर लड़ाई लड़नी पड़ेगी और सड़कों ने गैस पीड़ितों को कई पाठ पढ़ाए. जब्बार का मानना था लड़ने का जो जज़्बा उनके आंदोलन ने पैदा किया, वो लोगों में गैर पीड़ितों की लड़ाई तक सीमित नहीं था, आने वाले सालों में उन्होंने हर अन्याय पर सवाल उठाना शुरू किया.
उनका कहना था, ‘ये लोग पुलिस से सवाल पूछना भी सीख गए- आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? आपने मेरे लड़के को क्यों गिरफ्तार किया? उसे लाठी से क्यों मारा? वे बैंक जाना सीख गए और ये पूछना भी कि उनके खातों में 4300 रुपये ही क्यों है जबकि 6000 होने चाहिए ?
(लेखक दिप्रिंट में ओपिनियन एडिटर है. वह भोपाल म्यूजियम की क्यूरेटर भी हैं और उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी में बचे लोगों और कार्यकर्ताओं के साथ मौखिक इतिहास साक्षात्कार किए हैं. यहां व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं.)