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Friday, 20 December, 2024
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विश्वनाथ प्रताप सिंह: ‘मैं एक ओर मुड़ा, बाकी वक्त के साथ चले गये’

अपने दौर में स्वयं विश्वनाथ प्रताप सिंह भी कहा करते थे कि वे सामाजिक न्याय की अपनी पहलों को सेमीफाइनल तक ही पहुंचा पाये हैं और फाइनल होना बाकी रह गया है.

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निस्संदेह, विश्वनाथ प्रताप सिंह का परिचय ‘भूतपूर्व प्रधानमंत्री’ भर कहने से पूरा नहीं होता क्योंकि उनके कवि और कलाकार एतराज जताते हुए से सामने आ खड़े होते हैं. अपनी उपेक्षा का शिकायत करते हुए. उनकी शिकायत को इस तथ्य से मिलाकर दूर कर सकते हैं कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के ‘भूतपूर्व प्रधानमंत्री’ को भी, हालांकि अभी उन्हें हमारे बीच से गये महज 14 साल ही हुए हैं, लगभग भुला ही दिया गया है. इस कदर कि उनकी यादों पर पड़ी विस्मृति की गर्द उनकी जयंतियों 25 जून और पुण्यतिथियों 27 नवंबर पर भी नहीं झाड़ी जाती.

शायद इसलिए कि उन्हें दो दिसंबर, 1989 से 10 नवंबर, 1990 तक का जो बहुत छोटा-सा प्रधानमंत्रित्वकाल मिला, वह कई परस्पर विरोधी राजनीतिक प्रवाहों के बनने-बिगड़ने का साक्षी था और उन्होंने उनमें से जिस प्रवाह के साथ होना चुना, उसके बारे में आज निश्चयात्मक ढंग से यह कह पाना बहुत कठिन है कि वह पूरी तरह विलुप्त हो गया है या इस कदर विपथगामी कि पहचान में ही नहीं आता.

अंतर्विरोधों से भरा हुआ राजनीतिक जीवन

उनका राजनीतिक जीवन इतने आरोहों-अवरोहों और अंतर्विरोधों से भरा हुआ है, उनके ‘राजा नहीं फकीर, देश की तकदीर’ और ‘राजा नहीं रंक, देश का कलंक’ होने तक, कि कई जानकार कहते हैं कि उनकी सेवाओं व सीमाओं का राग व द्वेष से परे रहकर तटस्थ या वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन शायद ही कभी हो सके. जैसा कि उनकी ‘द डिसरप्टर: हाऊ विश्वनाथ प्रताप सिंह शूक इंडिया’ शीर्षक जीवनी में जीवनीकार देबाशीष मुखर्जी इंगित करते हैं, यह मूल्यांकन इसलिए भी कठिन है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के विरोधी तो उन्हें बोफोर्स की आंधी से उभरे एक ऐसे नाम से ज्यादा अहमियत देते नहीं, जो अंततः गर्द में समा गया, जबकि उन्होंने अपने प्रधानमंत्री रहते सामाजिक न्याय की अवधारणा के जो मुहावरे गढ़े, उनके उन दिनों के लालू व मुलायम जैसे समर्थक भी उन्हें दरकिनार करने में उनके विरोधियों से कम नहीं सिद्ध हुए हैं. करें भी क्या, वे सामाजिक न्याय की उनकी बोई फसल जितनी काट सकते थे, काट चुके हैं और अब उनके कृतित्व व व्यक्तित्व को अनुकूलित कर अपनी सुविधाओं के खांचे में फिट नहीं कर पा रहे.

अपने दौर में स्वयं विश्वनाथ प्रताप सिंह भी कहा करते थे कि वे सामाजिक न्याय की अपनी पहलों को सेमीफाइनल तक ही पहुंचा पाये हैं और फाइनल होना बाकी रह गया है, जबकि अब हम ऐसे कठिन समय से गुजर रहे हैं कि इस फाइनल की कल्पना भी मुश्किल हो चली है.

लेकिन इस सबके विपरीत विश्वनाथ प्रताप सिंह को उनकी कविताओं कें आईने में देखना बहुत दिलचस्प है. इस कारण कि अपने राजनीतिक जीवन में वे कैसे भी रहे हों, अपनी कविताओं में अपना कतई बचाव नहीं करते. उलटे कई बार अपने प्रति बेरहम होकर आत्मावलोकन करते और ‘गुनाहों का इकबाल’ करने वाले बयान देते दिखते हैं. निस्संदेह वे राजनीति में न होते तो कवि के रूप में कुछ ज्यादा ताकत के साथ दिख सकते थे.


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इस सिलसिले में एक धारणा यह भी है कि उनके राजनेता ने उनके कवि का बहुत नुकसान किया. इससे इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन ऐसा भी नहीं कि उनके राजनेता होने के कारण उनके कवि पर एकदम से चर्चा ही नहीं हुई. उनके रहते राधाकृष्ण प्रकाशन से उनका ‘एक टुकड़ा धरती-एक टुकड़ा आसमान’ शीर्षक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ तो कहते हैं कि उन्होंने कविताओं के नीचे उनके रचे जाने की तारीखें नहीं लिखीं क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनकी राजनीतिक व्याख्याएं की जायें या यह पता चल सके कि वे किस मनोदशा के बीच रची गयीं.

जानकारों को फिर भी उन कविताओं के मर्म तक जासकर उसे समझ लेने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई. इस संकलन के बाद की और साफ कहें तो अपनी संसदीय राजनीति के अवसान के बाद की कविताओं में तो उन्होंने अपने पाठकों से सारी परदेदारी ही खत्म कर डाली. फिर वे किस तरह खुलकर उनसे अपने जीवन के ‘रहस्य’ साझा करने लगे, इसकी एक मिसाल उनकी ‘मैं और वक्त’ शीर्षक यह छोटी कविता भी है:

मैं और वक्त
काफिले के आगे-आगे चले
चौराहे पर …
मैं एक ओर मुड़ा
बाकी वक्त के साथ चले गये

यकीनन, वे वक्त के साथ नहीं ही चले और एक कवि के शब्द उधार लेकर कहा जाये तो वक्त के सांचे में ढलने के बजाय, उसे बदलने में लगे रहे. कितना बदल पाये, यह सर्वथा अलग सवाल है, लेकिन बड़ी बात यह है कि उन्होंने मुफलिस होना गवारा कर लिया, पर वक्त के भरे बाजार से कुछ चुराया नहीं. बकौल उनकी ‘मुफलिस’ कविता:

मुफ़लिस से
अब चोर बन रहा हूँ मैं
पर
इस भरे बाज़ार से
चुराऊँ क्या
यहाँ वही चीजें सजी हैं
जिन्हे लुटाकर
मैं मुफ़लिस बन चुका हूँ

एक और कविता में उनका एलान था: तुम मुझे क्या खरीदोगे/ मैं तो बिलकुल मुफ्त हूं.

इससे बहुत पहले अपनी राजनीति के सुनहरे दौर के आगाज से पूर्व, कांग्रेस के भीतर रहकर लड़ी गई लड़ाई के दौर में, 5 जनवरी, 1987 को पटना में खादी ग्राम जाते हुए उन्होंने ‘मैं दुश्मन की छाया से लड़ रहा था’ कविता रची थी. उन्हें इसमें अपने छाया युद्ध की निरर्थकता या अपनी विफलता को स्वीकार करने से कतई इनकार नहीं था:

कैसे भी वार करूँ
उसका सर धड़ से अलग नहीं
होता था

धरती खोद डाली
पर वह दफ़न नहीं होता था
उसके पास जाऊँ
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था
खिसिया कर दाँत काटूँ
तो मुँह मिट्टी से भर जाता था
उसके शरीर में लहू नहीं था
वार करते-करते मैं हाँफने लगा
पर उसने उफ़्फ़ नहीं की

तभी एकाएक पीछे से
एक अट्ठहास हुआ
मुड़ कर देखा, तब पता चला
कि अब तक मैं
अपने दुश्मन से नहीं,
उसकी छाया से लड़ रहा था
वह दुश्मन, जिसे अभी तक
मैंने अपना दोस्त मान रखा था।

मैं अपने दोस्त का सर काटूँ
या उसकी छाया को
दियासलाई से जला दूँ

कांग्रेस छोड़ देने के बाद की अपनी ‘इश्तेहार’ शीर्षक कविता में वे अपने उन साथियों की चुटकी लेने से भी नहीं चूके थे, जिनसे उनके रास्ते अलग हो गये थे:

उसने उसकी गली नहीं छोड़ी
अब भी वहीं चिपका है
फटे इश्तेहार की तरह
अच्छा हुआ मैं पहले
निकल आया
नहीं तो मेरा भी वही हाल होता.

उन्होंने ज्यादा बड़ी और भाव प्रवण कविताएं नहीं रचीं और जो रचीं उनमें अपने वैचारिक पक्ष को ही आगे रखा. मिसाल के तौर पर भगवान शीर्षक यह कविता देखिये.

भगवान हर जगह है
इसलिये जब भी जी चाहता है
मैं उन्हे मुट्ठी में कर लेता हूँ
तुम भी कर सकते हो
हमारे तुम्हारे भगवान में
कौन महान है
निर्भर करता है
किसकी मुट्ठी बलवान है.

कौन कह सकता है कि उनका सारा राजनीतिक जीवन इन्हीं बलवान मुट्ठी वालों से संघर्ष को समर्पित नहीं रहा? सवाल है कि क्या इसकी परिणति उन्हें पता थी? उनकी ये दो क्षणिकाएं तो कुछ ऐसा ही जताती हैं: 1. पैगाम तुम्हारा/और पता उनका/ दोनों के बीच/ फाड़ा मैं ही जाऊंगा. 2. पड़ा रहने दो मुझे/ झटको मत/धूल बटोर रखी है/ वह भी उड़ जाएगी.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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