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Monday, 4 November, 2024
होममत-विमतममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल: विपक्षी एकता का सभी को फायदा होगा, राहुल गांधी के अलावा

ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल: विपक्षी एकता का सभी को फायदा होगा, राहुल गांधी के अलावा

विपक्ष को उम्मीद है कि वह मिलकर बीजेपी को बहुमत से वंचित कर सकता है. राहुल गांधी इसे जरूर पसंद करेंगे, लेकिन इस पूरे खेल में क्षेत्रीय खिलाड़ियों को पुनर्जीवित करने का जोखिम भी है.

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विपक्षी खेमे में आत्मविश्वास लौट आया है. उन्हें लगता है कि उनके ‘एकता प्रयासों’ ने भारतीय जनता पार्टी को रक्षात्मक स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है. आखिरी बार कब बीजेपी को शक्ति प्रदर्शन के लिए अपने सहयोगियों की जरूरत पड़ी थी? वे हमेशा बिन बुलाए मेहमानों की तरह होते थे— जिनको जब जाना हो, जा सकते थे. और जब तक रहें, उन्हें किसी विशेष तरह के आवभगत की अपेक्षा नहीं करनी होती थी. ऐसे में मंगलवार, 18 जुलाई का दिन उनके लिए खास है. बीजेपी ने उन्हें बेंगलुरु में विपक्षी जमावड़े के दिन राष्ट्रीय राजधानी के एक फाइव स्टार होटल में आमंत्रित किया . इसका शायद एक कारण हो की कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद बीजेपी में थोड़ी घबराई हुई है. अचानक एनडीए के पुनर्निर्माण की तत्परता तो यही दिखा रही है. लेकिन शायद इसका संबंध मोदी-शाह की भाजपा के डीएनए से है जो किसी भी चुनाव में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.

2024 में विपक्ष के सामने आने वाली चुनौती की प्रकृति को दिखाने के लिए मेरे सहयोगी अमोघ रोहमेत्रा द्वारा एकत्रित किए गए कुछ डेटा बिंदुओं को देखें. 2019 के चुनाव में, भाजपा ने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ 224 लोकसभा सीटें जीतीं – यानी बहुमत से सिर्फ 48 सीटें कम. यह 2014 के लोकसभा चुनावों में 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ भाजपा द्वारा जीती गई सीटों से 88 सीटें अधिक थी.

पार्टी ने 3 लाख से अधिक वोटों के अंतर से 105 लोकसभा सीटें जीतीं . 2014 में 42 ऐसी सीटें थीं. 2019 में 164 भाजपा उम्मीदवारों ने दो लाख से अधिक वोटों से जीत हासिल की.

ये आंकड़े बीजेपी के चुनावी वर्चस्व के पैमाने का अंदाज़ा देते हैं. इनमें से अधिकांश सीटें उन राज्यों से हैं जहां कांग्रेस प्रमुख चुनौती है: गुजरात में 26, राजस्थान में 23, मध्य प्रदेश में 25, कर्नाटक में 22, हरियाणा में 9, छत्तीसगढ़ में 6, उत्तराखंड में 5 और हिमाचल में 4 .

सोचिए कि 2019 में 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ 224 सीटें जीतने का 2024 में भाजपा के लिए क्या मतलब है. कांग्रेस नेताओं का तर्क है कि पिछला प्रदर्शन भविष्य की गारंटी नहीं है. लेकिन, उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि अगले नौ-दस महीनों में पीएम मोदी की लोकप्रियता इतनी तेजी से घट जाएगी कि भाजपा उन सीटों को खो देगी जो उसने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ जीती थीं? भाजपा को उन 105 सीटों पर हराने के लिए मोदी विरोधी लहर होनी चाहिए जो उसने 3 लाख से अधिक वोटों से जीती थीं या 164 सीटें जो उसने दो लाख से अधिक वोटों से जीती थीं. राजनीति में किसी भी बात से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन आज की स्थिति को देखते हुए विपक्ष के सामने बहुत बड़ी चुनौती है.

निस्संदेह, राजनीति में कुछ भी स्थिर नहीं है. पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से कई बदलाव हुए हैं. कांग्रेस कर्नाटक पर शासन कर रही है जिसने 2019 में 25 भाजपा सांसदों को जिता कर सदन में भेजा. महाराष्ट्र में, भाजपा और शिवसेना ने मिलकर 2019 में 48 में से 41 सीटें जीतीं. उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सेना का एक बड़ा हिस्सा विपक्षी खेमे में है. अब. बिहार में, एनडीए ने 40 में से 39 सीटें जीतीं, जिसमें भाजपा ने 17 और जनता दल (यूनाइटेड) ने 16 सीटें जीतीं. जद (यू) अब विपक्षी खेमे में है. तमिलनाडु में एनडीए को ज्यादा बढ़त नहीं मिली है. भाजपा को अन्य राज्यों में भी प्रतिकूल परिस्थितियां महसूस हो रही हैं. यह नए सहयोगियों के साथ एनडीए को पुनर्जीवित करने और 18 जुलाई को शक्ति प्रदर्शन के लिए जाने के फैसले में परिलक्षित तात्कालिकता की भावना को स्पष्ट करता है. लेकिन यह भाजपा की ताकत है – नाव कितनी भी बड़ी और मजबूत हो, वो छोटे मोटे रिसाव को भी नजरअंदाज नहीं करती.


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विपक्षी खेमे में मतभेद

कांग्रेस ने 17-18 जुलाई की बैठक के लिए 26 पार्टियों को बेंगलुरु में आमंत्रित किया. उन्हें दो श्रेणियों में रखा जा सकता है – वे जो पहले से ही कांग्रेस के सहयोगी हैं और वे जो नहीं हैं. पहली श्रेणी में 17 पार्टियां शामिल हैं – द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके), एमडीएमके, केडीएमके, वीसीके, एमएमके, जेडी (यू), राष्ट्रीय जनता दल, सीपीआई, सीपीआई (एम), सीपीआई (एमएल), आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ( एनसीपी), शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे), झारखंड मुक्ति मोर्चा, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस (जोसेफ).

दूसरी श्रेणी में 8 पार्टियां शामिल हैं – तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, अपना दल (कमेरावादी), राष्ट्रीय लोक दल, केरल कांग्रेस (मणि), नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी. मूलतः, ये 8 ही हैं जिनके आने से विपक्षी एकता मजबूत होगी. पहले अंतिम दो को देखें- जम्मू और कश्मीर स्थित दो पार्टियों को. पता नहीं कि कांग्रेस ने 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 के तहत पूर्ववर्ती राज्य की विशेष स्थिति को हटाने और इसमें किए गए अन्य बदलावों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसला सुनाए जाने की संभावना पर विचार किया है या नहीं. शीर्ष अदालत में इसकी सुनवाई अगस्त के पहले सप्ताह में फिर से शुरू होनी है. यह देखते हुए कि पीठ के पांच न्यायाधीशों में से एक, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, 25 दिसंबर को सेवानिवृत्त होने वाले हैं, शीर्ष अदालत का फैसला उससे पहले आने की संभावना है. फैसला जो भी हो, लोकसभा चुनाव से पहले अनुच्छेद 370 फिर से राजनीतिक केंद्र में आ जाएगा. तो क्या राहुल गांधी फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के साथ प्रचार करेंगे?

दूसरी श्रेणी से किसी अन्य आमंत्रित व्यक्ति को देखें. केरल कांग्रेस (मणि) को कांग्रेस के निमंत्रण के पीछे – जिसने केरल कांग्रेस (जोसेफ) को नाराज कर दिया है – उसका उद्देश्य अपने ईसाई वोटबैंक की रक्षा के लिए दो बिखरे हुए गुटों को एक साथ लाना है. केरल के ईसाइयों को लुभाने की भाजपा की कोशिशों को देखते हुए यह सार्थक हो सकता है, लेकिन इससे राष्ट्रीय स्तर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा.

यह हमें गैर-सहयोगी श्रेणी में पांच अन्य पार्टियों-टीएमसी, आप, एसपी, अपना दल (कमेरावादी) और आरएलडी के साथ छोड़ता है. पिछले दोनों ने 2019 में बहुजन समाज पार्टी के साथ एक महागठबंधन बनाया था और साथ मिलकर 15 सीटों पर जीत हासिल की थी. सपा की हिस्सेदारी सिर्फ 5 थी. अब संभावित सपा-रालोद-कांग्रेस- अपना दल (कमेरावादी) गठबंधन के बारे में सोचें और यहां तक कि भीम आर्मी के चंद्रशेखर को भी मैदान में उतार दें. इसका मायावती की मौजूदगी वाले गठन से कोई मुकाबला नहीं होगा. इसके अलावा, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा ने 2019 में यूपी में 50 प्रतिशत से अधिक वोटों से 40 लोकसभा सीटें जीतीं.

तो, सोनिया गांधी बेंगलुरु में अखिलेश यादव के साथ भोजन करने के लिए इतनी उत्सुक क्यों थी? यह लाभ को अधिकतम करने के बारे में कम और नुकसान को कम करने के बारे में अधिक है. सपा उनके गढ़ रायबरेली में भी उनका खेल बिगाड़ सकती है. लेकिन सपा को कांग्रेस की जरूरत तब पड़ी है जब मुसलमान कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में (जहां उन्होंने देवेगौड़ा की पार्टी छोड़ दी), पश्चिम बंगाल के सागरदिघी विधानसभा उपचुनाव में और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और मालदा में पंचायत चुनाव में कांग्रेस के इर्द-गिर्द एकजुट होते दिख रहे हैं. अपने गढ़ आज़मगढ़ और रामपुर में सपा की हार और सागरदिघी और मुर्शिदाबाद/मालदा में ममता बनर्जी की हार से पता चलता है कि मुसलमानों का क्षेत्रीय दलों से मोहभंग बढ़ रहा है.

ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और अन्य जो कभी कांग्रेस को बोझ समझते थे, सोनिया गांधी के साथ डाइनिंग टेबल पर बैठने के इंतजार में थे. बनर्जी और यादव ने अपनी प्रतिबद्धता की शर्तें भी तय कर ली हैं – कि वे कांग्रेस का वहां समर्थन करेंगे जहां वह मजबूत है और कांग्रेस को भी इसके बदले में सीटें छोड़नी होगी.

सीधे शब्दों में, इसका मतलब है कि कांग्रेस बंगाल में दो लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़े जो उसने 2019 में जीती थी, और बाकी सीटें तृणमूल कांग्रेस के लिए छोड़ दे. जहां तक पारस्परिकता का सवाल है, चुनाव से पहले मेघालय कांग्रेस के 12 विधायक टीएमसी में शामिल हो गए थे, जिससे यह पूर्वोत्तर राज्य में एक ताकत बन गई है. चुनाव के बाद कांग्रेस और टीएमसी के पास पांच-पांच विधायक हैं. बनर्जी की परिभाषा के अनुसार, राज्य की दो लोकसभा सीटों में से एक जीतने वाली कांग्रेस को टीएमसी के पक्ष में दूसरी सीट के लिए दावा छोड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए. उत्तर प्रदेश में, इस व्यवस्था का मतलब होगा कि सपा का रायबरेली, अमेठी और कुछ अन्य सीटों पर कांग्रेस को समर्थन. इन ‘बलिदानों’ के लिए, कांग्रेस को ममता और अखिलेश को मुस्लिम वोटबैंक पर अपनी पकड़ फिर से हासिल करने में मदद करनी चाहिए – जाहिर तौर पर कांग्रेस को अपनी कीमत पर.

जहां तक आप की बात है, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बेंगलुरु में विपक्षी एकता बैठक में आप की भागीदारी को इस शर्त पर रखा कि कांग्रेस उस विधेयक का विरोध करेगी जो दिल्ली में सेवाओं के नियंत्रण पर केंद्र के विवादास्पद अध्यादेश की जगह लेगा. सच तो यह है कि एनडीए, वाईएसआरसीपी और बीजेडी जैसी ‘मित्रवत’ पार्टियों के साथ मिलकर इस बिल को राज्यसभा से आसानी से पास करवा सकते हैं. आईआईटियन अरविंद केजरीवाल उच्च सदन के अंकगणित को अच्छी तरह समझते होंगे.

उन्हें यह भी अच्छी तरह पता होगा कि राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन वाली कांग्रेस इस विधेयक का विरोध नहीं करने का जोखिम नहीं उठा सकती थी. फिर भी, वह चाहते थे कि कांग्रेस अपनी प्रतिबद्धता को सार्वजनिक करे – जो की एक तंज होगा पंजाब और दिल्ली में उन कांग्रेस नेताओं पर जो आप सरकार के कथित भ्रष्टाचार और सतर्कता ब्यूरो द्वारा पंजाब में कांग्रेस नेताओं को निशाना बनाने के खिलाफ मुखर रहे हैं. इसके अलावा, सोचिए कि व्यापक विपक्षी छत्रछाया के तहत आप-कांग्रेस की एकता का क्या मतलब होगा. पंजाब में 13 लोकसभा सीटें हैं. इनमें से सात पर कांग्रेस और एक पर आप का कब्जा है. दिल्ली की सातों सीटें बीजेपी के पास हैं. दोनों में से किसे कौन सा राज्य खाली करना चाहिए और कौन सी सीट दूसरे के लिए? आप के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि वे चाहते हैं कि कांग्रेस पंजाब की अपनी अधिकांश सीटें छोड़ दे और दिल्ली की सीटें विभाजित कर दे.

बिग पिक्चर को फिर से देखें. विपक्षी एकता के इस दिखावे से कांग्रेस को क्या हासिल होगा? मौजूदा सहयोगियों को छोड़ दें और यह भी मान लें कि कोई अन्य क्षेत्रीय खिलाड़ी जैसे ओडिशा से बीजू जनता दल, तेलंगाना से भारत राष्ट्र समिति, आंध्र प्रदेश से वाईएसआर कांग्रेस पार्टी और कर्नाटक से जनता दल (सेक्युलर) विपक्षी दल में शामिल नहीं होंगे. उस परिदृश्य में, विपक्षी एकता का प्रयोग मुख्य रूप से तीन खिलाड़ियों – टीएमसी, आप, एसपी तक सिमट कर रह जाता है. ये तीनों जो भी आज हैं कांग्रेस की कीमत पर बने हैं. और वे कांग्रेस या उसके बचे हुए वोट बैंक की कीमत पर आगे बढ़ना चाहते हैं.

अगर ये तीनों खिलाड़ी एक साथ आएं तो कांग्रेस के लिए कितनी लोकसभा सीटें छोड़ेंगे – ज्यादा से ज्यादा 25-30? जीतने वाली सीटों के बारे में तो बात ही नहीं की जा रही है. और कांग्रेस इसका जवाब कैसे देगी? तात्कालिक संदर्भ में, क्षेत्रीय दलों से मुसलमानों के पलायन को रोक कर. और इन पार्टियों को लोकसभा चुनावों में हितधारक बनाकर क्योंकि बहुत सारे वोटर्स लोक सभा इलेक्शन में नेशनल पार्टी को प्रमुखता देते हैं. अगर बनर्जी, केजरीवाल और यादव को केंद्र में भाजपा विरोधी मोर्चे के हिस्से के रूप में देखे जाते हैं तो इससे उन्हें मदद मिलेगी.

तो, कांग्रेस उन्हें एक साथ लाने और यहां तक कि केजरीवाल और बनर्जी जैसे महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय चुनौती देने वालों में नई जान फूंकने के लिए इतनी बेताब क्यों दिख रही है? अगर मोदी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर है, तो कांग्रेस को उनकी जरूरत नहीं है – कम से कम चुनाव के पहले के परिदृश्य में तो बिल्कुल नहीं. और अगर ऐसी कोई लहर नहीं है, जो अभी लग रही है, तो विपक्ष की सबसे अच्छी उम्मीद भाजपा को अपने दम पर बहुमत से वंचित करना होगा. यह एक ऐसा परिदृश्य हो सकता है जिसे राहुल गांधी पसंद करेंगे लेकिन जरूरी नहीं कि यह कांग्रेस के पुनरुद्धार में तब्दील हो. वास्तव में, यह कांग्रेस के लिए अभिशाप, क्षेत्रीय खिलाड़ियों को पुनर्जीवित कर सकता है.

शरद पवार या नीतीश कुमार द्वारा विपक्षी एकता का आह्वान समझ में आता है. क्योंकि वे अपने राजनीतिक करियर के अंतिम पड़ाव पर हैं और पसंद या मजबूरी से – वे 2024 में अपनी आखिरी पारी चाहते हैं. बेंगलुरु में अन्य लोगों की एक अलग योजना है. एक प्रमुख विपक्षी नेता ने पिछले हफ्ते मुझसे कहा था कि वे चाहेंगे कि कांग्रेस 250 नहीं तो अधिकतम 300 सीटों पर चुनाव लड़े. अंदाजा लगाइए कि इनमें से अधिकतर सीटें कहां गिरेंगी – वे राज्य जहां क्षेत्रीय दलों की उपस्थिति कम है और जहां भाजपा ने सबसे ज्यादा जीत हासिल की है. 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर वाली सीटों की संख्या.

यदि कर्नाटक कांग्रेस के संभावित पुनरुत्थान का कोई संकेत था, तो क्षेत्रीय दलों को चिंता करने की अधिक जरूरत है – भाजपा से भी अधिक जो लगभग विशेष रूप से वैचारिक स्पेक्ट्रम के एक छोर पर काबिज है. वे विपक्षी एकता के माध्यम से दूसरे छोर पर समान अवसर चाहते हैं.

(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं.यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन एवं अनुवाद- पूजा मेहरोत्रा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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