भारत में बड़े होते हुए मैं अक्सर सुनती थी — लोकतंत्र वही जगह है, जहां दबे हुए लोगों को आखिरकार अपनी आवाज़ मिलती है और अब न्यूयॉर्क सिटी एक नई आवाज़ पा रही है. पूंजीवाद की राजधानी कहलाने वाला यह शहर शायद जल्द ही एक समाजवादी मेयर चुनेगा.
34 साल के स्टेट असेंबली मेंबर ज़ोहरान ममदानी — जिन्हें कभी “आउटसाइडर” कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया गया था — आज अमेरिकी राजनीति में एक असाधारण मोड़ का प्रतीक बन चुके हैं. डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए और उस शहर के लिए जो अमेरिका की पहचान को आकार देता है, उनकी संभावित जीत सिर्फ एक और चुनाव परिणाम नहीं है. कुछ लोग इसे आधुनिक अमेरिकी इतिहास में समाजवाद की “सबसे बड़ी सफलता” कह रहे हैं.
ममदानी का चुनाव अभियान आम लोगों की रोज़मर्रा की जद्दोजहद से जुड़ा है — किराया, परिवहन और जीने की जंग. बर्नी सैंडर्स और अलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज़ का समर्थन मिलने के बाद यह सिर्फ एक चुनाव नहीं रह गया, बल्कि यह साबित करने की कसौटी बन गया है कि अमेरिकी वामपंथ अभी भी लोगों के लिए कितना मायने रखता है.
लेकिन उम्मीद के साथ बेचैनी भी है.
यह चुनाव डेमोक्रेटिक पार्टी और दक्षिण एशियाई समुदाय — दोनों के भीतर की दरारें उजागर कर रहा है. वोट बंटे हुए नज़र आ रहे हैं. सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इज़राइल की खुलकर आलोचना करने के बावजूद ममदानी यहूदी मतदाताओं के बीच आगे चल रहे हैं. राजनीतिक निष्ठाएं बदल रही हैं. लोग अब आराम से ज़्यादा अपने विश्वास को चुन रहे हैं — भले ही वह पहचान की पुरानी सीमाओं को हिला दे.
भारतीय राजनीति देखने वालों के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण अब चौंकाने वाली बात नहीं रही, लेकिन न्यूयॉर्क के मेयर चुनाव में वही रणनीतियां दोहराई जाती देखना विडंबनापूर्ण भी है और असहज करने वाला भी. ममदानी की मुस्लिम पहचान विरोधियों के लिए आसान निशाना बन गई है.
पूर्व गवर्नर और निर्दलीय मेयर उम्मीदवार एंड्रयू कुओमो ने एक कंजरवेटिव रेडियो शो पर कहा — “खुदा न करे, अगर फिर कभी 9/11 जैसी घटना हो जाए, तो सोचिए ममदानी उस कुर्सी पर हों.”
होस्ट सिड रोज़नबर्ग ने जवाब दिया, “वह तो खुशियां मना रहे होंगे” जिस पर कुओमो हंसते हुए बोले, “यही तो प्रॉब्लम है.”
वही पुराना हथकंडा — डर को चेतावनी के रूप में पेश करना और पूर्वाग्रह को चिंता बनाकर दिखाना.
दुनिया के सबसे विविधतापूर्ण शहर के बीच ऐसी बातें गूंजना यह दिखाता है कि लोकतंत्र और जनभावनाओं के उन्माद के बीच की रेखा कितनी पतली रह गई है.
असली अमेरिकी
दिलचस्प बात यह है कि ऐसी रणनीतियां अब अमेरिका में असरदार नहीं दिख रहीं. बराक ओबामा के चुनाव अभियान के दौरान भी ऐसा ही हुआ था, जब कंजरवेटिव नेताओं ने बार-बार उनके नाम के “हुसैन” हिस्से को उछाला, जैसे वह किसी छिपे हुए खतरे का सबूत हो. तब यह चाल नहीं चली थी और मौजूदा सर्वेक्षणों को देखें तो ममदानी के मामले में भी यह काम करती नहीं दिख रही. यह अपने आप में बहुत कुछ कहता है—इतने शोर-शराबे के बावजूद डर की भी एक सीमा होती है. लोग अब नाम और विचारधारा, धर्म और राजनीति के बीच फर्क करना सीख रहे हैं.
ममदानी की बढ़ती लोकप्रियता, ट्रंप युग की राजनीति से लोगों की नाराज़गी की साफ़ झलक है. यही वजह है कि यह चुनाव किसी एक उम्मीदवार से कहीं बड़ा बन गया है—यह लोगों के लिए ट्रंप की शासन शैली के खिलाफ प्रतीकात्मक जवाब है. “नो किंग” प्रदर्शनों में उमड़ी भीड़ भी इसी भावना को दर्शाती है—तानाशाही प्रवृत्तियों और सत्ता के केंद्रीकरण के खिलाफ एक अस्वीकार, उस राजनीति के खिलाफ एक इंकार जो असहमति की आवाज़ों को किनारे कर देती है. ममदानी का उभार इसी सामूहिक बेचैनी का प्रतिबिंब है.
साथ ही, ममदानी की उम्मीदवारी पहचान और अपनापन जैसे असहज सवालों को भी सामने लाती है—“असली अमेरिकी” कौन है? सतह पर यह सवाल बेमानी लगता है, लेकिन कुछ लोगों के हाथों में यह हथियार बन जाता है. डॉनल्ड ट्रंप के समर्थक दो रिपब्लिकन सांसद—फ्लोरिडा के रैंडी फाइन और टेनेसी के एंडी ओगल्स ने तो यहां तक कह दिया कि संघीय न्याय विभाग को ममदानी की नागरिकता हासिल करने की प्रक्रिया की जांच करनी चाहिए. यहां बात न तो नीतियों की है, न क्षमता की—यह बात है पहचान की, उस अपनत्व की जिसे वैधता की कसौटी बना दिया गया है.
और यही बात एक गहरे सवाल की ओर ले जाती है—क्या ममदानी का उभार इस बात का संकेत है कि अमेरिकी राजनीति को देखने का नज़रिया बदल रहा है? या यह बताता है कि प्रवासी समुदाय अब खुद को उनमें किस रूप में देखता है? क्योंकि केवल प्राथमिक चुनाव जीतना काफी नहीं, अगर आम चुनाव तक गठबंधन बिखर जाए. अब बड़ी पूंजी, कॉर्पोरेट समर्थक और सत्ता के सौदागर, सबका ध्यान ममदानी की ओर जा रहा है.
यह पल इतिहास रच रहा है, लेकिन यह एक परीक्षा भी है. क्या यह मौका राजनीति को और अधिक समावेशी बनाएगा, या अपने ही भार तले दब जाएगा? क्या ममदानी वह मेयर बनेंगे जो पूरे न्यूयॉर्क के लिए शासन करेंगे—या फिर सिर्फ अपने समर्थक वर्ग के, जब तक शहर उनसे कुछ ज़्यादा की उम्मीद न करने लगे?
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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