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Saturday, 21 December, 2024
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गांधी ने कभी जन्मदिन नहीं मनाया, सिर्फ 75वां जन्मदिन अपवाद था– कस्तूरबा के लिए

जब एक संवाददाता ने गांधी से उस ‘शुभ दिन’ पर संदेश देने का आग्रह किया तो उन्होंने ये कहते हुए इनकार कर दिया कि ‘मैं ऐसे अवसरों पर संदेश देने का आदी नहीं हूं.’

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मोहनदास करमचंद गांधी अपने जन्मदिन का जश्न पसंद करने वाले लोगों में से नहीं थे. फिर भी, उनका 75वां जन्मदिन उनके जीवन का सर्वाधिक उल्लासमय जन्मदिन था. इसी अवसर पर गांधी को उनकी पत्नी के स्मृति में गठित कस्तूरबा गांधी नेशनल मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा एकत्रित धनराशि सौंपी गई थी. कस्तूरबा का पूना के आगा ख़ान पैलेस में अंग्रेजों की हिरासत में रहने के दौरान 22 फरवरी 1944 को देहांत हो गया था.

गांधी जेल में ही थे जब मेमोरियल ट्रस्ट के गठन का फैसला हुआ और इस कार्य के लिए एक कमेटी का गठन किया गया. इस कोष में 75 लाख रुपये एकत्रित करने का लक्ष्य रखा गया था क्योंकि ये गांधी का 75वां जन्मदिन था. बहुतों को इतनी बड़ी राशि जमा होने की उम्मीद नहीं थी क्योंकि भारत छोड़ो आंदोलन में भागीदारी के कारण कांग्रेस के अधिकतर नेता जेल की सलाखों के पीछे थे. पर उम्मीदों से परे एक करोड़ रुपये से ज़्यादा की धनराशि एकत्रित हुई.

जन्मदिन की शुभकामनाएं, या इसका अभाव

जब हिंदू अखबार के एक संवाददाता ने गांधी को उस ‘शुभ दिन’ के लिए संदेश देने का आग्रह किया तो उन्होंने इनकार करते हुए कहा, ‘मैं ऐसे अवसरों पर संदेश देने का आदी नहीं हूं.’ (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 78, पृ 149) लेकिन कई अन्य विभूतियों ने ऐसा किया, जिनमें अल्बर्ट आइंस्टाइन के इस प्रशंसापूर्ण संदेश का अक्सर उल्लेख किया जाता है: ‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी हमारी धरती पर जीया था’.

नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी उपन्यासकार पर्ल एस. बक ने गांधी को ‘भारत की अभिव्यक्ति’ बताते हुए लिखा: ‘वह अपने लोगों को स्वतंत्रता के दरवाजों तक ले आए हैं. यदि दरवाजे नहीं खोले जाते हैं, तो भारत की जनता उन्हें खोलेगी.’ (गांधीजी: हिज लाइफ़ एंड वर्क, कर्नाटक पब्लिशिंग हाउस, बॉम्बे, 1944, पृ xii-xiii) प्रसिद्ध चीनी विद्वान प्रोफेसर तन युनशन ने कहा था, ‘चीन के लोग गांधीजी को जीते-जागते बुद्ध के रूप में देखते हैं’. (जयंती सेलेब्रेशन्स, बॉम्बे क्रॉनिकल, 3 अक्टूबर 1944, पृ 4)


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जॉर्ज बर्नाड शॉ ने अपने विशिष्ट अंदाज में लिखा था, ‘मैं महात्मा गांधी को हृदय से पसंद करता हूं पर खुद महात्मा होने के नाते, मैं इस पेशे में अपने सहयोगियों को कभी संदेश नहीं भेजता.’ (ब्रिटिश लीडर्स ग्रीट महात्मा, बॉम्बे क्रॉनिकल, 3 अक्टूबर 1944, पृ 1) जब हिंदू अखबार के एक रिपोर्टर ने शॉ के संदेश के बारे में गांधी को बताया तो उन्होंने ‘ज़ोर का ठहाका लगाया’ और कहा, ‘ये हुई ना बात. कुछ साल पहले तक मैं जानता तक नहीं था कि मेरा जन्मदिन भी है’. (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 78, पृ 149)

एक पुस्तक, दीये और देशव्यापी जश्न

गांधी को मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा एकत्रित कोष सौंपने का कार्यक्रम 2 अक्टूबर 1944 को वर्धा के सेवाग्राम आश्रम में आयोजित किया गया था. इस अवसर को लेकर गांधी के निकट सहयोगी माने जाने वाले उद्योगपति एवं समाजसेवी जमनालाल बजाज की पुत्री मदालसा बहुत उत्साहित थी और उसने कार्यक्रम स्थल को सजाने का बीड़ा उठा लिया था. गांधी के सहयोगी और सिंधिया स्टीम नेविगेशन कंपनी के मालिक शांतिकुमार मोरारजी के अनुसार मदालसा ने रंगोली बनाई, पंडाल में कस्तूरबा की एक बड़ी-सी तस्वीर लगाई, और मिट्टी के दीयों की पंक्ति की व्यवस्था की. पर, जब गांधी को इस बात की भनक लगी, तो उन्होंने मदालसा को डांट लगाते हुए कहा, ‘गांवों में हज़ारों लोगों के पास खाने को तेल नहीं है, और तुम यहां सजावट में तेल खर्च कर रही हो.’ शांतिकुमार के अनुसार, आखिरकार प्रकाश और दीये का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया था. (गांधीजीना संस्मरणो अने बिजी साम्भरनो, शांतिकुमार, बालगोविंद प्रकाशन, अहमदाबाद, 1963, पृ 140)

सरकार की पूर्वानुमित के बिना जनसभा करने पर पाबंदी का ज़िक्र करते हुए गांधी ने कहा कि ये ‘जनसभा’ नहीं थी, बल्कि ‘जमाराशि सौंपने के वास्ते कस्तूरबा गांधी नेशनल मेमोरियल फंड के ट्रस्टियों और जमाकर्ताओं की बैठक थी.’ बैठक में वर्धा के स्थानीय और बाहर के लोगों की उपस्थिति का उल्लेख करते हुए गांधी ने कहा कि ‘वर्षों से भारत के लोग उनके जन्मदिन को भारतीय और ईसाई दोनों ही कैलेंडरों के अनुसार मना रहे हैं. दोनों तारीखों के बीच की अवधि भी इसमें शामिल रहती है’. (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 78, पृ 149)

सेवाग्राम में मुख्य आयोजन से पहले 75 मिनट तक अनवरत चलने वाले एक सत्र का आयोजन किया गया जिसमें गांधी ने भी भाग लिया. (कस्तूरबा फंड एक्सीड्स टार्गेट, बॉम्बे क्रॉनिकल, 3 अक्टूबर 1944, पृ 1) देश भर में गांधी का 75वां जन्मदिन मनाया गया. इस अवसर पर अनेक जगहों पर कांग्रेस के झंडे फहराए गए, प्रभात फेरियां निकाली गईं, प्रार्थना सभाएं आयोजित की गईं, खादी उत्पादों की बिक्री और चरखा कातने के कार्यक्रम रखे गए.


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गांधी के 75वें जन्मदिन पर एक विशेष पहल के रूप में ‘गांधीजी: हिज लाइफ़ एंड वर्क’ शीर्षक एक सचित्र संकलन का प्रकाशन किया गया था. गांधी के बारे में छपी अन्य किताबों की तुलना में ये पुस्तक यकीनन विशिष्ट थी. इसे कर्नाटक पब्लिशिंग हाउस, बॉम्बे ने प्रकाशित किया था.

पुस्तक के संपादन की जिम्मेदारी प्रख्यात लेखक डी.जी. तेंदुलकर, प्रख्यात संपादक एम. चलपति राजू, स्वतंत्रता सेनानी मृदुला साराभाई और कार्यकर्ता एवं लेखक विट्ठलभाई के. झावेरी ने निभाई थी, और इसमें खुद गांधी की लिखी प्रस्तावना भी शामिल की गई थी.

गांधी इस असामान्य बात की अनदेखी नहीं कर सकते थे. ‘पाठकों के नाम दो शब्द’ का आरंभ गांधी ने एक सवाल के साथ किया और उस पर स्पष्टीकरण भी दिया: ‘इस संकलन की प्रस्तावना लिखने के मेरे कदम के औचित्य को कौन स्वीकार करेगा? पर यदि ऐसा कर मैं गरीबों के वास्ते पैसे एकत्रित कर सकता हूं, तो भला मुझे क्यों संकोच होगा?’ उन्होंने आगे कहा, ‘उन्होंने मुझसे कहा कि प्रस्तावना के रूप में मेरा कुछ पंक्तियां लिखना उद्देश्य में सहायक साबित होगा. इतना भर मुझे प्रेरित करने के लिए पर्याप्त है’. (गांधीजी: हिज लाइफ़ एंड वर्क, कर्नाटक पब्लिशिंग हाउस, बॉम्बे, 1944, पृ ix)

गांधी की निराशा

हालांकि, आगामी वर्षों में स्थितियां काफी बदल गईं. अपने 78वें जन्मदिन पर 2 अक्टूबर 1947 को गांधी – आज़ाद भारत में उनका ये पहला जन्मदिन जो आखिरी भी साबित हुआ – बंटवारे, सांप्रदायिक हिंसा और घृणा के माहौल को लेकर बहुत दुखी थे.


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दिल्ली में एक प्रार्थना सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘आज मेरा जन्मदिन है… इस दिन हमें उपवास रखना चाहिए, चरखा कातना चाहिए, और प्रार्थना करनी चाहिए. मेरे हिसाब से, किसी का जन्मदिन मनाने का ये सबसे उपयुक्त तरीका है. मेरे लिए आज का दिन शोक का है. मैं विस्मित हूं और शर्मिंदा भी कि मैं अब भी ज़िंदा हूं. मैं वही व्यक्ति हूं जिनकी बातों का देश के लाखों लोग सम्मान करते थे. पर आज मेरी कोई नहीं सुनता.’ अपनी निराशा को स्वर देते हुए उन्होंने आगे कहा, ‘यदि आप सचमुच में मेरा जन्मदिन मनाना चाहते हैं तो ये आपका कर्तव्य है कि आप किसी को उन्मादी नहीं बनने दें और यदि आपके दिलों में क्रोध है तो आपको उसको त्यागना चाहिए’. (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 89, पृ 275)

आज जब भारत गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है, उनका संदेश पहले से भी अधिक प्रासंगिक हो गया है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक अहमदाबाद स्थित वरिष्ठ स्तंभकार हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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