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Friday, 22 November, 2024
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लुटियंस दिल्ली की चहेती सुप्रिया सुले क्या अब महाराष्ट्र की ताई बन गई हैं

महाराष्ट्र में एनसीपी पर अजित पवार की पकड़ जिस तरह टूटी है उससे वहां की ताज़ा सियासी नौटंकी में सुप्रिया सुले ही खामोश विजेता के रूप में उभरी हैं.

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बारामती से सांसद सुप्रिया सुले ने बुधवार को महाराष्ट्र विधानसभा के बाहर अपनी नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के विधायकों का जिस तरह गले लगाकर स्वागत किया उसके पीछे कारण सिर्फ यह नहीं था कि वे अकेला पड़ने से घबरा गई थीं. दरअसल, खास तौर से जब उन्होंने अपने लिए चुनौती बनकर खड़े हुए अपने चचेरे भाई अजित पवार को गले लगाया तब उन्होंने अपने पिता शरद पवार की विरासत मानी गई उनकी पार्टी पर अपना दावा दायर कर दिया. सुप्रिया जिस तरह खुलकर मुस्करा रही थीं वैसी मुस्कुराहट अजित के चेहरे पर नहीं दिखी. इसकी एक वजह भी थी.

महाराष्ट्र में महीने भर से जो सियासी नौटंकी चल रही थी उसमें सुप्रिया खामोश विजेता बनकर उभरी हैं.

एनसीपी पर अजित पवार की मारक जकड़ उन्हें शर्मसार करते हुए ढीली पड़ चुकी है. वे पार्टी में लौट आए हैं और साथ में सिंचाई घोटाले (भले ही वे इसके 3000 मामलों में से केवल 9 से जुड़े बताए गए हों) में राज्य के एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) से बड़ी मेहनत से हासिल ‘क्लीन चिट’ भी लेकर आए हैं. लेकिन अजित पवार अब पहले वाले अजित पवार नहीं रह गए हैं. और एनसीपी भी अब वही पार्टी नहीं रह गई है.

सुप्रिया के नेतृत्व में बदली एनसीपी

अब यह आपके ऊपर है कि आप किसे सच मानते हैं. या तो यह मान लीजिए कि शरद पवार के इशारे पर अजित ने भाजपा से हाथ मिलाया ताकि उनके खिलाफ मामले बंद हो जाएं या फिर यह मान लीजिए कि शरद पवार ने ऐसी चाल चली कि उत्तराधिकार का सवाल हमेशा के लिए निपट जाए और उनकी बेटी सुप्रिया के लिए रास्ता साफ हो जाए. शरद पवार जानते हैं कि असली सत्ता राज्य में ही है, जिसके सूत्र भाजपा के नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथों में हैं. इसलिए उन्होंने अपनी बेटी के लिए रास्ता बनाया कि वे एनसीपी की बागडोर अपने हाथों में ले लें और उन्होंने इस पुराने फॉर्मूले को खारिज कर दिया कि अजित तो राज्य संभालें और सुप्रिया केंद्र की राजनीति में अहम किरदार निभाएं.

तीन बार सांसद चुनी गईं सुप्रिया भी सत्ता समीकरण के इस परिवर्तन को प्रतिध्वनित कर रही हैं. राज्य विधानसभा चुनाव की मुहिम में वे ही शरद पवार के साथ-साथ दिखीं, सबसे मिलतीं, बयान देतीं, जबकि पहले प्रफुल्ल पटेल इस भूमिका में नज़र आते थे. ‘न्यूजएक्स स्टार’ की एंकर प्रिया सहगल ने, जो कई वर्षों से सुप्रिया को कवर करती रही हैं, कहा, ‘उन्हें महाराष्ट्र की पहली महिला मुख्यमंत्री बनाना शरद पवार की एक अघोषित मगर सर्वविदित महत्वाकांक्षा रही है. अब कोई भी अनुमान लगा सकता है कि वे कभी भी विधायक और फिर उप-मुख्यमंत्री बन सकती हैं. जो भी हो, इस चुनाव ने उन्हें प्रौढ़ होते देखा.’

सुप्रिया पुराने स्कूल की नेता हैं. पचास की उम्र में उन्होंने अपने पिता की तरह, तमाम दलों के साथ अपना नेटवर्क बना लिया है. सत्ता पक्ष के साथ उनके दोस्तान संबंध हैं- चाहे वे भाजपा के राज्यसभा सांसद नीरज शेखर हों या नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला, या कांग्रेस की सुष्मिता देव हों या भाजपा की पूनम महाजन. सबके लिए उपलब्ध होना और गर्मजोशी से मिलना, प्रतिद्वंद्विता की जगह सहयोग का भाव रखना, तने हुए न रहकर तनावमुक्त रहना उनकी शैली है.

उनके पुराने मित्र और पूर्व भाजपा सांसद मानवेंद्र सिंह कहते हैं कि उनका यही भाव अपने चचेरे भाई अजित के प्रति भी रहता है, ‘सुप्रिया के कारण ही हम उन्हें हमेशा अजित दादा कहा करते हैं. उन दोनों के बीच मजबूत रिश्ता है, भले ही दोनों के बीच प्रतिद्वंदिता की कई बातें लिखी गई हों. वास्तव में ऐसा कुछ है नहीं. अजित ने जो अचानक कदम उठा लिया था उससे सुप्रिया कितनी आहत थीं यह बिलकुल साफ दिख रहा था.’ पिछले शनिवार की सुबह जो उलटफेर हुआ उससे सुप्रिया कितनी दुखी थीं, यह उनके इस व्हाट्सअप स्टेटस से जाहिर था— ‘पार्टी और परिवार टूट गया.’


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मानवेन्द्र सिंह कहते हैं कि वे सुप्रिया को जितना जानते हैं उसके आधार पर पक्के तौर पर कह सकते हैं कि अजित को एनसीपी परिवार में वापस लाने में उन्होंने ही प्रमुख भूमिका निभाई है. वे कहते हैं, ‘उनके पिता मुख्य खिलाड़ी के तौर पर सार्वजनिक रूप से भूमिका निभा रहे थे, तो सुप्रिया पर्दे के पीछे से.’ सुप्रिया का कद रातोरात ऊंचा हो गया और कुछ पत्रकार तो उन्हें ‘ताई’ भी कहने लगे हैं.

लेकिन, क्या उत्तराधिकार का मसला सुलझ गया है? क्या यह कहा जा सकता है कि सुप्रिया सुले लुटियंस दिल्ली की चहेती से महाराष्ट्र की ताई बन गई हैं? इस पर बहस अभी जारी है. मुंबई में मंगलवार को ‘ट्राइडेंट’ में भी अजित के समर्थकों को ‘अजित दादा, वी लव यू’ वाली तख्तियों के साथ देखा गया. यानी पार्टी में अभी भी उनका दबदबा है.

आम आदमी से जुड़ाव

लेकिन, सुप्रिया ने तो चाणक्य माने जाने वाली हस्ती से राजनीति सीखी है. उनका अपना वास्तविक राजनीतिक महत्व जितना है उससे कहीं ज्यादा राष्ट्रीय राजनीति में उनकी हैसियत रही है. उन पर उनके पिता शरद पवार की निर्भरता बढ़ती ही गई है. लेकिन उनकी राजनीतिक शैली एकदम अलग है. पूर्व सांसद मिलिंद देवड़ा कहते हैं, ‘वे एक प्रभावशाली नेता हैं क्योंकि वे बड़बोली नहीं हैं, विवादों से दूर रहती हैं, और मानती हैं कि सामाजिक कार्य और नीतिगत बदलाव ही ताकत का स्रोत है. अगर उन्होंने एनसीपी की बागडोर थामी, तो पार्टी की आज जो जमींदारों, पैसे वालों और यथास्थितिवादियों की पार्टी वाली छवि है वह बदल जाएगी. तब पार्टी उनकी परछाई जैसी दिखेगी.’ सुप्रिया कोई बारामती की चीनी मिल मालिक नहीं हैं. उनका दिल ऐसे परेशानहाल शहरी कामगारों के लिए धड़कता है, जो स्मार्टफोन और इंटरनेट के जरिए चौबीसों घंटे अपने बॉस की नज़र में होते हैं और जिन्हें निरंतर फोन या ईमेल का जवाब देते रहना पड़ता है.

जनवरी में जब उन्होंने संपर्क काटने के अधिकार (राइट टु डिसकनेक्ट) की मांग करने वाला एक निजी विधेयक पेश करके सबको अचंभे में डाल दिया, तो वे जीवन और रोजगार के बीच संतुलन की आवाज़ उठाने वाली इस सहस्राब्दी की वर्ड्सवर्थ जैसी हस्ती बन गईं. वे देश की नब्ज़ पहचानने में भी माहिर हैं. बालाकोट के असर से नरेंद्र मोदी की चुनावी जीत के ठीक बाद जुलाई में सुप्रिया ने एक और विधेयक पेश करके सरकार से मांग की कि वह उस हमले में शहीद हुए सैनिकों के परिवारों को 2 करोड़ रुपये के मुआवाज़े के साथ रोजगार में आरक्षण भी दे.

तो सवाल यह है कि उनके बारे में सचमुच क्या सोचा जाए? आखिर दिल्ली की राजनीतिक जमात में उनकी लोकप्रियता की वजह क्या है? शिवसेना की प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं कि इसकी वजह यह है कि वे मदद को तत्पर रहती हैं, उनका व्यवहार मैत्रीपूर्ण रहता है, वे सच्ची और जमीन से जुड़ी हैं तथा गर्मजोशी से भरी रहती हैं. आज की राजनीति में ये सब बातें दुर्लभ है. चतुर्वेदी ने कहा, ‘उन्हें अपनी दायरे की पहचान है और वे इस पर गरिमा तथा शालीनता से अपना वर्चस्व रखती हैं. साथ ही, वे अपने साथियों से असुरक्षा नहीं महसूस करती. उनके लिए परिवार सबसे ऊपर है, बाकी सब इसके बाद आता है.’ जबकि कोई भी यह घोषणा नहीं करना चाहता कि पार्टी में उनके नेतृत्व की दिशा क्या होगी. मानवेंद्र सिंह का कहना है कि जनता के बीच और राजनीतिक जमातों के बीच उनकी पहुंच का दायरा बड़ा है. ‘यह उन्हें कहां ले जाएगा और वे कहां जाना चाहती हैं, इन सबके बारे में मैं कोई अटकल नहीं लगाना चाहता.’

बढ़ता कद और बढ़ती अटकलें

उनकी आरोहण की चर्चा से ट्वीटर की दुनिया गुलज़ार है. सुझाव दिए जा रहे हैं कि उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाए, कि जल्दी ही वे इंदिरा गांधी वाला कद हासिल कर लेंगी, कि वे कितनी गर्मजोशी से भरी है! (किस तरह वे मुस्कुराती हैं, हाथ मिलाती हैं, गले लगाती हैं!), कि तमाम दलों में उनकी कितनी पैठ है, कि किस तरह उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का अभिवादन किया!


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वंशवादी राजनीति और उत्तराधिकार की लड़ाई आदि के बारे में सुप्रिया साफ बोल चुकी हैं. 2006 में ही उन्होंने ‘इंडिया टुडे’ को कहा था, ‘मैं खुद को अपने पिता के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में नहीं देखती. समय ही बताएगा. केवल खून ही राजनीतिक उत्तराधिकार का फैसला नहीं करता. हर कोई कहता है कि मेरे पिता यशवंतराव चह्वाण के राजनीतिक वारिस हैं. अब देखें कि मैं इतनी काबिल साबित होती हूं या नहीं कि अपने पिता की विरासत हासिल कर सकूं.’

हालांकि मीडिया सुप्रिया और उनकी सांसद सहेलियों को ‘महिला मण्डल’ नाम देता रहा है लेकिन वे एक सक्रिय तथा लक्ष्य-केन्द्रित सांसद हैं और धार्मिक असहिष्णुता से लेकर तीन तलाक जैसे मुद्दों पर बोलती रही हैं. संसद में उनकी हाज़िरी अनुकरणीय है, आम तौर पर 100 प्रतिशत, जबकि केवल एक बार 2014 के शीतकालीन सत्र में उनकी हाज़िरी 90 प्रतिशत से नीचे 73 प्रतिशत रही. वे 22 निजी सदस्य विधेयक पेश कर चुकी हैं. उनकी समकालीनों और मित्रों को उनकी नेतृत्व क्षमता पर कभी कोई संदेह नहीं रहा है, हालांकि उनके हाथों पर रेशमी दस्ताने होते हैं.

पिछले साल जब भाजपा विधायक राम कदम का एक वीडियो सामने आया था, जिसमें वे उन महिलाओं का अपहरण करने का वादा करते दिखते हैं, जो शादी का प्रस्ताव लेकर आने वाले पुरुषों से शादी करने से मना करेंगी. सुप्रिया ने कदम की भर्त्सना की और कहा था, ‘आप महाराष्ट्र में एक भी लड़की को हाथ लगाने की हिम्मत तो कीजिए, आपको मेरा सामना करना पड़ेगा.’

पूर्व कांग्रेस सांसद सुष्मिता देव ने कहा, ‘वो बिना किसी दिखावे के और किसी को परेशान किए बिना गलत को गलत कह सकती हैं. व्यक्तिगत स्तर पर उनमें अपने राजनीतिक साथियों को करीब रखने और राजनीतिक शत्रुओं को और भी करीब रखने का गुण है, और मैं यह उनकी तारीफ में कह रही हूं.’

आज राजनीति जबकि मरते दम तक होड़ लेते रहो वाले पुरुषवादी मूल्य के कारण उबाऊ हो गई है, सबको साथ लेकर चलने, बड़बोलेपन से दूर रहने की शैली, सम्बन्धों को बनाने और निभाने का गुण, साउथ मुंबई के ड्राविंग रूम से लेकर बारामती के खेत तक में सहज रहने का सुप्रिया का स्वभाव एनसीपी में नयी जान फूंकेगा और शायद महाराष्ट्र में भी. लेकिन एक और सवाल भी है कि अजित को पार्टी में वापस लाने का फैसला कहीं पिता और पुत्री को बाद में परेशान तो नहीं करेगा?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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