हाल ही में ‘I Love Muhammad’ को लेकर विवाद ने मुझे मेरे अपनी परवरिश की याद दिला दी, जो बरेलवी मुस्लिम समुदाय में हुई थी. बरावफात, जिसे माउलिद, मिलाद-उल-नबी या केवल पैगंबर का जन्मदिन भी कहा जाता है, एक गर्मजोशी भरा मौसम था. मोहल्ले इस अवसर पर जीवंत हो जाते थे, जो हमेशा याद रहते हैं. सड़कों पर बिजली की लाइटों की स्ट्रिंग्स से चमक होती थी. अस्थायी मेहराब बड़े ध्यान से बनाए जाते थे. खूबसूरत सजावट की जाती थी. पुरुष और महिलाएं जुलूस और रात भर की प्रार्थनाओं के लिए इकट्ठा होते थे.
फिर वहां धर्म-संबंधित पवित्र वस्तुएं थीं, जो इतिहास और आस्था दोनों का महत्व रखती थीं. उन्हें सभी के देखने के लिए प्रदर्शित किया गया था, जिससे लोगों में श्रद्धा और सम्मान की भावना पैदा होती थी. एक बच्चे के लिए यह जादुई लगता था, ऐसा जैसे आस्था केवल निजी नहीं बल्कि साझा, जिया हुआ और दिखाई देने वाला अनुभव हो. पीछे मुड़कर देखने पर यह सिर्फ रिवाज नहीं था, बल्कि समुदाय की पहचान का जश्न था.
बारावफ़ात के बारे में मुझे जो एकमात्र विवाद पता था, वह धार्मिक था. अल्ट्रा-कंजरवेटिव आंदोलनों जैसे वहाबीज़्म और सलाफ़िज़्म ने लंबे समय तक इसे “अवांछनीय नवाचार” (बिद’अह) कहा. उनका दावा था कि इसका कोई आधार कुरान या प्रारंभिक इस्लामिक प्रथा में नहीं है. इसी कारण से, सऊदी अरब और कतर जैसे स्थानों में यह जश्न पूरी तरह से मना है. लेकिन तब भी, यह संघर्ष दूर की कोई बात लगती थी – ऐसा कुछ जो बहुत दूर, अपनी रूढ़िवादी मान्यताओं वाले समाजों में हो रहा हो.
भक्ति अब उकसाने का काम करती है
यहां भारत में, खासकर बरेलवी समुदाय में, बरावफात पर कभी बहस नहीं हुई. इसे जिया गया. यह खुशी, याद और भक्ति का समय था. मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह दिन ही विवाद का केंद्र बन जाएगा. यह धार्मिक बहस की वजह से नहीं बल्कि एक साधारण भक्ति संदेश की वजह से. केवल कुछ शब्दों वाला एक बैनर, “मैं मोहम्मद (PBUH) से प्यार करता हूं,” शक, बहस और राजनीतिक हलचल का कारण बन सकता है. यह दिखाता है कि समुदायों के बीच अविश्वास कितना गहरा है. आस्था और प्रेम की अभिव्यक्ति अब किसी तरह विवाद और राजनीति का मुद्दा बन गई है.
दूसरी ओर कहा जा रहा है कि यह केवल “I Love Muhammad (PBUH)” पोस्टर का मामला नहीं है. उनका कहना है कि एफआईआर इसलिए दर्ज की गई क्योंकि ऐसा प्रदर्शन पहले कभी नहीं हुआ. यह बरावफात आयोजकों द्वारा लाया गया “नई परंपरा” है और इसे नए स्थान पर लगाने से अराजकता फैल सकती है. लेकिन धार्मिक व्यक्ति के प्रति प्यार का साधारण संदेश कैसे उत्तेजना बन जाता है? चाहे यह नया जोड़ हो या अलग जगह पर रखा गया हो, हमारी प्रतिक्रिया शक हो तो यह हमारे बारे में क्या कहता है?
यह उस गलत तर्क की तरह है जो अक्सर तब इस्तेमाल होता है जब हिन्दू धार्मिक जुलूस “मुस्लिम इलाकों” से गुजरते हैं. किसी आपत्ति या हिंसा को वैसा ही सही मान लिया जाता है जैसे यह अनिवार्य था. यह तर्क तब भी उतना ही बेतुका है जितना अब है. यह मानता है कि लोग साथ नहीं रह सकते, एक-दूसरे के धर्म को बिना “विरोधी” समझे सहन नहीं कर सकते. एक बार यह सोच जड़ पकड़ लेती है तो अविश्वास का चक्र शुरू हो जाता है. एक पक्ष दूसरे के प्रदर्शन से खतरा महसूस करता है, दूसरा पक्ष सुरक्षात्मक और शकपूर्ण हो जाता है. बहुत जल्दी, छोटी-छोटी बातें—जैसे जुलूस, पोस्टर या प्रार्थना—तनाव का कारण बन जाती हैं. भक्ति और जश्न अब उत्तेजना के रूप में पेश किए जाते हैं और भारत में समुदाय दूर हो रहे हैं.
यही वह समस्या है जिसे जमीन पर हल करना जरूरी है. ऐसे घटनाओं की राजनीति आम नागरिकों के लिए कुछ नहीं करती. यह केवल राजनेताओं को फायदा देती है. सबसे जोरदार आवाजें, जो पूरे समुदाय की ओर से बोलने का दावा करती हैं, बिना वास्तविक शासन या जवाबदेही के ताकत हासिल कर लेती हैं. आम लोगों को इसके बदले क्या मिलता है? सबसे ज्यादा, एक खोखला सुरक्षा का एहसास या दूसरे समुदाय पर हल्का प्रभुत्व महसूस होता है.
यह सब हमसे शुरू हुआ
आइए यह न दिखावा करें कि यह विभाजन पूरी तरह दूसरों ने बनाया है. एक समुदाय के रूप में मुसलमानों ने भी इसे गहरा करने में काफी योगदान दिया है. जब “सर तन से जुदा” जैसे नारे—बेअदबी के नाम पर हत्या की अपील—प्रदर्शनों में सामान्य हो जाते हैं, तो हमने आग में ईंधन डाला. जैसा कि मौलाना वहिदुद्दीन खान हमेशा कहते थे, कुरान में बेअदबी के लिए कोई सजा नहीं दी गई है. आप किसी तर्क का जवाब तर्क से दें, तलवार से नहीं. लेकिन हम नागरिक मतभेद को अपनाने में असफल रहे. हमने शर्तीय हिंसा को जायज ठहराया. हमने अपनी आस्था को राजनीति में बदल दिया. और आज, भले ही यह केवल प्यार का साधारण और सकारात्मक संदेश हो, इसे भी हमला माना जाता है. यह उन लोगों को माफ़ नहीं करता जो नफरत और अन्याय से लाभ उठाते हैं, लेकिन इसका मतलब है कि हमें भी आत्ममंथन करने की जरूरत है.
अगर हम अपने त्योहारों, अपनी आस्था और अपने सार्वजनिक स्थानों को फिर से हासिल करना चाहते हैं, तो हमें प्यार को हथियार बनने से रोकना शुरू करना होगा. लेकिन यह तभी संभव है जब समुदाय हर मतभेद को युद्धभूमि में बदलना बंद करें, और जब हम आस्था और सत्ता की राजनीति को अलग करना सीखें. क्योंकि जब भक्ति प्रतिस्पर्धा बन जाती है, तो हर कोई हारता है—धर्म का अर्थ, सहअस्तित्व की भावना, और आम लोग जो केवल बिना भय के जीना चाहते हैं.
आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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