वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2014 के अपने बजट भाषण के पहले पैरा में ही ‘नव-मध्यवर्ग’ शब्द का जिक्र किया था और पूरे बजट भाषण में इसका दो बार और उपयोग किया था. इसके विपरीत, पिछले सप्ताह पीयूष गोयल के बजट भाषण की प्रमुख बात थी 12 करोड़ खेतिहर परिवारों की सहायता के कार्यक्रम की घोषणा. सरकार ‘महत्वाकांक्षी’ तबके से शुरू करके पूरे ज़ोरशोर से ‘आम आदमी’ की तरफ मुड़ गई है.
बहरहाल, पिछले पांच वर्षों में देश में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े में एक तिहाई अंक की वृद्धि हुई, जैसी किसी और देश में नहीं हुई. लेकिन इस वृद्धि का असमान वितरण हुआ, जो कि अपरिहार्य था. फिर भी, संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 2015-16 में खत्म हुए दशक में गरीबी का स्तर घटकर आधा हो गया. इस रिपोर्ट में बहुआयामी गरीबी सूचकांक का उपयोग किया गया. इस अवधि में 27 करोड़ लोग (लगभग एक चौथाई आबादी) गरीबी से उबरे. इस बीच, देश की आधी आबादी के हाथों में स्मार्टफोन आ गया और हरेक स्मार्टफोन पर इंटरनेट का उपयोग नगण्य से बढ़कर दुनिया में अधिकतम उपयोग के आंकड़ों के आसपास पहुंच गया.
इतना ही प्रभावशाली आंकड़ा यह है कि इन पांच वर्षों में 9 करोड़ स्कूटर और मोटरसाइकिलें खरीदी गईं, जबकि इनसे पहले के तीन वर्षों में 4 करोड़ खरीदी गई थीं. यानी 2011 के बाद से कुल 13 करोड़ खरीदी गईं, जबकि उस साल की जनगणना के मुताबिक हरेक पांच में से एक परिवार के पास ही पावर वाला दुपहिया था. आज यह आंकड़ा हरेक में से दो परिवारों का होगा. ऊपरी तबके में देखें तो पिछले साल 10 लाख में से दो तिहाई लोग प्रतिदिन हवाई यात्रा कर रहे थे. यह संख्या उड्डयन को निजी क्षेत्र के लिए खोले जाने से पहले की इस संख्या का 25 गुना है. अगर हम ‘महत्वाकांक्षा’ की बात करें, तो निश्चित ही यह सब एक उपलब्धि है.
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इसलिए, मौसम जब कर्जमाफ़ी, कर में छूट, नकदी सहायता का है, तब नव-मध्यवर्ग से आम आदमी की ओर मुड़ने का कारण क्या है? यह 1971 के ‘गरीबी हटाओ’ के युद्धघोष की प्रतिध्वनि जैसी लगती है- हालांकि तब के मुक़ाबले आज प्रति व्यक्ति आय सात गुना ज्यादा है. वैसे, तब और अब में फर्क भी है. पहली इंदिरा गांधी के कार्यक्रम का ज़ोर अमीरों पर करों की कुल्हाड़ी चलाने और राज्यतंत्र की पहुंच को विस्तार देने पर था. जबकि दूसरी इंदिरा गांधी के कल्याणकारी कार्यक्रम का ज़ोर गरीबों पर था. नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा था कि ‘ग्रामीण रोजगार गारंटी’ कार्यक्रम कांग्रेस
की दीर्घकालिक विफलता का प्रतीक है. लेकिन उन्होंने ही अभी-अभी इसके लिए रिकॉर्ड बजट तय किया है. और भोजन के अधिकार के तहत आज अनाज उस दर पर बांटे जा रहे हैं जिस दर पर बांटकर एन.टी. रामराव ने 1983 में चुनाव जीता था, मानो गरीबों की नाममात्र की आमदनी 36 साल से जस की तस है. हकीकत यह है कि आज का परिवार एक दिन की कमाई से पूरे महीने की जरूरत का अनाज खरीद सकता है.
इसके बावजूद राजनीतिक तबका कल्याणकारी कार्यक्रम को वक़्त की मांग घोषित कर रहा है. दोहरापन इसका एक कारण है, खासकर इसलिए कि देश में खेती से इतर पर्याप्त रोजगार (बेहतर आय वाले) नहीं पैदा किया गया है. अफरातफरी इसका दूसरा कारण हो सकता है, जो पहले तो नोटबंदी और फिर जीएसटी के चलते फैली. इसके ऊपर से पैदावारों की कीमतों में गिरावट के कारण खेती में संकट पैदा हुआ. मोदी दूसरे कारण को कबूल नहीं करेंगे, लेकिन वे तो पहले कारण का भी खंडन करते हैं, जैसा कि बृहस्पतिवार के उनके लोकसभा के भाषण से स्पष्ट है. उनकी बात तर्कपूर्ण है. लेकिन आप उनके दूसरे तर्क को उलट सकते हैं और कह सकते हैं कि ‘मुद्रा ऋण पुनर्वित्त’ कार्यक्रम (जिसमें बेरोजगार लोग रोजगार पैदा करते हैं) की सफलता उलटफेर के संकेत देती है. जो भी हो, सरकार के कदम यही संकेत देते हैं कि वह दोहरेपन, अफरातफरी और कृषि संकट के पूरे आख्यान को कबूल करती है.
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शायद यह चुनावी वर्ष में फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाने की रणनीति है. लेकिन उठाए गए कदमों से मंशा तो साफ हो ही जाती है. कल्याणकारी राज्य का मतलब अगर यह है कि सरकार सबके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य की करे, तब तो इसका कोई अर्थ है. इसके अलावा, निम्न-मध्य आय वाली अर्थव्यवस्था में सहायता तभी संभव है जब आप, सहायता के पात्र जो नहीं हैं उन्हें छोड़कर पैसे को दूसरी तरफ लगाते हैं. या जिन लाभों का वादा किया जाता है उन्हें सबके लिए खुला न छोड़ा जाए ताकि आपके ऊपर खर्चों का बोझ न बढ़े. इन सबके बिना, यह पुराना सवाल फिर सिर उठाता है कि आप किसी को मछली देना चाहते हैं या मछली पकड़ना सिखाना चाहते हैं? जनकल्याणवाद के नए उभरे जोश के नीचे यह इकरार छिपा हुआ दिखता है कि सरकार गरीबों को नकदी के सिवाय कुछ नहीं दे सकती.
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