पुलवामा के आतंकी हमले ने उदारपंथियों के विवेक में एक बड़ी खाई पैदा कर दी है: राष्ट्रीय सुरक्षा पर कोई ठोस राय न होना.
नतीजा सामने है, जो चाहे सो देख ले. ऐसी हर घटना उदारपंथियों के पैर में फंदा डाल देती है. हम ऐसी घटनाओं की हाथ के हाथ निंदा करते हैं. रस्मी अंदाज़ में हुतात्माओं को श्रद्धांजलि देते हैं और और आजकल तो एकदम से हड़बड़ाहट के साथ श्रद्धांजलि देने का चलन है. प्राण न्यौछावर करने वाला सुरक्षा-बल से हुआ तो फिर हमने उसे ‘शहीद’ पुकारने की भी आदत सीख ली है. ऐसी घटनाओं में जो घायल होते हैं, उनके लिए हम कामना करते हैं कि वे जल्दी से जल्दी स्वस्थ हों. लेकिन इसके बाद क्या? दरअसल ऐसी घटनाओं के बाद क्या किया जाय – यह हम एकदम ही नहीं जानते.
बेशक, हमें ये पता होता है कि क्या कुछ नहीं करना है. अब युद्धनाद करते रहना तो ज़ाहिर है कि कोई कायदे की बात नहीं, युद्ध मसले का समाधान तो है नहीं. हम यह भी ठीक से ध्यान दिलाते हैं कि ऐसे मामले में आधे-अधूरे मन से कोई कदम उठाया जाय तो वो घातक होगा. इसमें कोई शक नहीं कि हथियार उठाकर हमलावर होना हमेशा कारगर समाधान साबित नहीं होता. हम यह याद दिलाने में भी बड़ी फुर्ती दिखाते हैं कि समस्या सिर्फ बाहरी नहीं. बाहर से कोई चाहे जितना दम लगा ले मगर आतंकवादियों के मंसूबों को घर के भीतर शह देने वाले न हों तो फिर किसी बाहरी की दाल नहीं गलने वाली. यह भी साफ है कि मसला सिर्फ कानून-व्यवस्था की बहाली भर का नहीं है. और, यह बताने की तो खैर कोई ज़रूरत ही नहीं कि अपने घर के भीतर अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने से मसला सुलझने की जगह और ज़्यादा उलझेगा.
ये बातें बेशक अपनी जगह ठीक हैं. लेकिन असल सवाल ये है कि आखिर किया क्या जाय?
इस सवाल के जवाब में हम कैलेंडर देखते हैं- घटनाओं की तारीखों पर अंगुली रखकर कहते हैं कि आखिर तो कश्मीर की समस्या अपने स्वभाव में एक राजनीतिक समस्या है सो अंततः उसका समाधान भी राजनीतिक ही है. और, ऐसा कहना-सोचना ठीक भी है. आपको, अंततः अलगाव की उस भावना को समझना और सुलझाना होगा जो घाटी के लोगों के दिलों में घर कर बैठी है. और, ऐसा तब तक संभव नहीं जब तक कि जम्मू-कश्मीर से सेना का साया हटा न लिया जाय, वहां पूरी ईमानदारी से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की शुरुआत न हो जाय. यों देखें तो हमारे पास एक से बढ़कर एक अच्छे जवाब हैं, हम अन्ततोगत्वा अच्छे जवाब के साथ मौजूद खड़े मिलते हैं.
लेकिन यहां बात घटनाओं के किसी आखिरी छोर पर जाकर नहीं हो रही, हम आखिर के किसी मुकाम पर नहीं पहुंचे- दरअसल बात तो ‘अभी और यहीं’ की हो रही है- अभी जो आंखों के आगे घटना घटी है, उसके बारे में हो रही है. क्या करें उस घटना को लेकर जो अभी-अभी आंखों के सामने घटी है? और, इससे पहले जो ऐसी ही घटनाएं हो चुकी हैं, उनके बारे में हम क्या सोचते हैं? मुश्किल ये है कि हममें से ज़्यादातर लोग अपनी ज़िंदगी का ज़्यादातर हिस्सा इन घटनाओं के बीच के दरम्यानी वक्त में गुजारते हैं और दो घटनाओं के बीच के दरम्यानी वक्त में रहना हमें वास्तविक जीवन के सवालों से निपटने लायक नहीं रहने देता.
मिसाल के लिए, पुलवामा की घटना को ही लीजिए. 40 ज़िंदगियों की एक पल में आहुति हो गई. वे कोई तमाशबीन नहीं थे, सुरक्षाकर्मी थे और उनका रिश्ता एक ऐसे सुरक्षा-बल, सीआरपीएफ से था जिसका इस्तेमाल सबसे ज़्यादा होता है, उपेक्षा भी सबसे ज़्यादा की जाती है मगर शाबासियां बहुत कम मिलती हैं- और, ऐसे माहौल में इन सुरक्षाकर्मियों को भारी जोखिम वाली नौकरी करनी होती है.
पुलवामा की घटना किसी प्राकृतिक आपदा का परिणाम नहीं, वह सुनियोजित आतंकी हमले का नतीजा है. यह किसी इकलौते सनक-मिजाज आतंकी का काम नहीं. जिसने इस घटना को अंजाम दिया उसे बाहर से साजो-सामान और अन्य खुफिया जानकारी की मदद हासिल हुई थी. और, इससे भी बड़ी बात तो यह कि हमले की ज़िम्मेदारी सीमा-पार के एक आतंकी जमात ने ली है. इस जमात, जैश ए मोहम्मद को पाकिस्तान में खुली छूट हासिल है और यह जमात पाकिस्तानी हुकूमत के ‘छुपे रुस्तम’ यानि जेनरल हेडक्वार्टर (सैन्य प्रतिष्ठान) तथा आईएसआई के इशारे पर अपने हाथ-पांव चलाता है.
तो, हम ‘अभी और एकदम यहीं’ के अंदाज़ में इससे कैसे निबटें? शांति के उपदेशकों के पास इस सवाल का जवाब नहीं है. और, दरअसल यह एक बड़े रोग का लक्षण है. बड़ा रोग यह है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल पर हम हमेशा मुंह फेर लेने या दायें-बायें ताकने की तरकीब अपनाते हैं, सीधे मुंह से कभी मुठभेड़ नहीं करते.
सवाल से कतराकर बच निकलने की यह प्रवृत्ति दो बातों की नींव पर पनपी है. एक तो आज़ादी के बाद के दौर के जो उदारपंथी अभिजन हैं वे राष्ट्रवाद को लेकर बड़े संकोच में रहते हैं. यूरोप के अभिजन की तरह हमने भी राष्ट्रवाद को नकारात्मकता, युद्धोन्मादी राष्ट्रीयता और कौमी बरतरी सरीखी धारणाओं के साथ चस्पा करके सोचना शुरू कर दिया है. ऐसा करके हमने अपने को भारतीय राष्ट्रवाद की समृद्ध और समावेशी विरासत से अलग-थलग कर लिया है. हम अपनी राष्ट्रीयता की फिक्र किये बगैर आधुनिक राष्ट्र-राज्य में रहना चाहते हैं.
दूसरी बात यह कि हम सब पाखंड का एक शालीन दुशाला ओढ़े रहते हैं: उदारपंथी जमात में रक्षा सरीखे नाखुशगवार चीज़ों पर चर्चा करना राजनीतिक रूप से सही नहीं माना जाता. हम मांस-विक्रेता की दुकान पर जाते हैं और मांस का आर्डर देकर बड़ी नफासत से नज़र दूसरी ओर कर लेते हैं. हम चाहते हैं- सुरक्षित रहें. हम बेहतर पुलिसिंग चाहते हैं, विधि-व्यवस्था को चाक-चौबंद रखना चाहते हैं, चाहते हैं कि सीमाएं सुरक्षित रहें- बस हम सुरक्षा के मसले पर चर्चा नहीं करना चाहते.
नकार के इस मनोभाव का नतीजा होता है कि हम गाहे-बगाहे सियासी उन्माद की दशा में आ जाते हैं या फिर सियासत के मंच पर काम का एक विचित्र सा बंटवारा होता देखते हैं: सीमाओं की सुरक्षा का मसला सत्ताधारी भाजपा अपने जिम्मे ले लेती है, हमारे जिम्मे मानवाधिकारों की पैरोकारी का जिम्मा चला आता है. काम के इस विचित्र बंटवारे का एक पहलू दक्षिणपंथी मुंहजोरों का है और आप इनमें टीवी के बड़बोले ‘वीरबालकों’ को भी शामिल मान सकते हैं- मुंहजोरी के बल पर ये जमात राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर राष्ट्र का ध्यान अपने बतंगड़ की तरफ खींच लेती है.
यह कोई नयी बात नहीं. याद कीजिए, चीन का आक्रमण और उसके सामने नेहरू के सोच का कच्चापन तथा कम्युनिस्टों की सचेत चुप्पी ! वामधारा के उदारपंथियों के पास सुरक्षा के मसले पर अपना कोई सुचिन्तित सिद्धांत ही नहीं है. सो, पुलवामा में हुए हमले पर यह जमात अपने को ठिठका हुआ महसूस कर रही है तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं. इस जमात ने आतंकी हमले की निन्दा की है, जान गंवाने वाले वीरों को श्रद्धांजलि दी है, लेकिन लेकिन सद्भाव का यह इज़हार शक के घेरे में है. इस जमात के सुझाव मार्के से एकदम हटे जान पड़ रहे हैं- मानो युद्ध की बजती दुंदुभि के बीच कोई ऋंगार-रस की कविता सुना रहा हो. ये जो सियासी जुमलों की बनैली दुनिया है उसके भीतर उदारपंथियों की जमात एकदम निरीह जान पड़ती है, इतनी निरीह कि उस पर कोई भी देश की उपेक्षा का आरोप लगा दे!
पुलवामा की घटना इस ऐतिहासिक गलती को दुरुस्त करने का मौका साबित हो सकती है. देश में समझदार और अपने काम में सिद्धहस्त रक्षा-विशेषज्ञों की कोई कमी नहीं, इनमें से कई तो खुद सेना में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. बीते हफ्ते में सबसे सटीक और मार्के की टिप्पणियां उन्हीं लोगों की तरफ से आयी हैं जो कभी सेना में रह चुके हैं. लेकिन उनकी सोच चलती हुई चमकदार चर्चा का हिस्सा नहीं बन पाती, क्योंकि वो किसी बड़े राजनीतिक अजेंडे का हिस्सा बनने से दूर है.
आइए, इस सच्चाई को स्वीकार करें कि उकसावे की इतनी बड़ी घटना के बाद कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं रह सकता. जैश-ए-मोहम्मद और पाकिस्तानी हुकूमत के भीतर बैठे इसके सरपरस्तों को कूटनयिक, आर्थिक तथा सैन्य मोर्चे पर गहरी चोट देने में हमारी सरकार सक्षम है और सरकार को ऐसा करना भी चाहिए. हां, ध्यान रखना होगा कि ऐसा करने में कुछ और नुकसान न हो, बात बढ़कर पूर्णव्यापी युद्ध के मुकाम तक न पहुंच जाये. अब यह काम किस तरह हो और कब हो- इसके बारे में राय देना हमारे दायरे से बाहर की बात है. यह तो स्पष्ट ही है कि कोई कदम हड़बड़ी और नाटकीयता के साथ उठाया जाता है तो निश्चित ही उसकी प्रभाव क्षमता में कमी आयेगी.
आइए, पुलवामा की घटना का जवाब देते हुये हम राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर किसी ठोस सिद्धांत पर पहुंचने की पहल करें. यों हर कोई अभी पाकिस्तान के बारे में बातें कर रहा है, लेकिन हमें सुरक्षा के मोर्चे पर चीन से मिलती गंभीर चुनौती की तरफ भी सोचना होगा. आज ज़रूरत इस बात की है कि 21वीं सदी के भारत के सामने आन खड़ी सुरक्षा-चुनौतियों को देखते हुये उसी के हिसाब से सेना का आकार और उसके संसाधन तय किये जायें. हमारे लिये आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों के मद्देनज़र पूरे रक्षा-तंत्र का एक मानवीय तथा पेशेवर तरीके से कायाकल्प करना भी ज़रूरी है. ऐसा करने पर हमारे लिए गुंजाइश पैदा होगी- हम लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर माओवादी बगावत और कश्मीर-समस्या दोनों का समाधान कर पायेंगे.