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Friday, 15 November, 2024
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नीतीश कुमार को दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे से सीखना चाहिए

अगर बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव की बात करें तो 2015 में बिहार में आरजेडी-जेडीयू और कांग्रेस का गठबंधन था और इन्होंने मिलकर जबर्दस्त जीत हासिल की थी.

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दिल्ली के चुनाव नतीजों पर जिन लोगों की सबसे गहरी नज़र रही होगी, उनमें नीतीश कुमार का नाम शामिल है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी का बेशक दिल्ली के चुनाव में कोई खास दांव नहीं था, लेकिन दिल्ली के चुनाव नतीजे बिहार की राजनीति पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष असर डाल सकते हैं. दिल्ली के बाद देश में अगला बड़ा चुनाव बिहार में ही है, जहां नवंबर, 2020 में विधानसभा का कार्यकाल खत्म हो रहा है. यानी सामान्य स्थितियों में वहां अक्टूबर-नवंबर में चुनाव हो जाएंगे. दिल्ली और बिहार के बीच अब कोई बड़ा चुनाव नहीं है.

और फिर अगर प्रशांत किशोर हों भी तो क्या अरविंद केजरीवाल की तरह नीतीश कुमार भी स्कूल और हॉस्पिटल के नाम पर वोट मांग पाएंगे? क्या बिहार की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था इस हाल में है?

अगर बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव की बात करें तो 2015 में बिहार में आरजेडी-जेडीयू और कांग्रेस का गठबंधन था और इन्होंने मिलकर ज़बर्दस्त जीत हासिल की थी. सबसे ज़्यादा विधायक आरजेडी के जीते थे, लेकिन चुनाव पूर्व करार के मुताबिक नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. एनडीए में बीजेपी के साथ लोक जनशक्ति पार्टी और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी थी. उसका प्रदर्शन बेहद कमज़ोर रहा.

2015 के बाद से राज्य का राजनीतिक नक्शा बदल चुका है

नीतीश कुमार ने अपने कार्यकाल के अधबीच जनादेश के खिलाफ जाते हुए उसी बीजेपी से हाथ मिला लिया, जिसे हराकर वे मुख्यमंत्री बने थे. वहीं, उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी ने एनडीए से अलग होकर 2019 का लोकसभा चुनाव सेकुलर गठबंधन के साथ लड़ा. लोकसभा चुनाव में सेकुलर गठबंधन की बिहार में भारी दुर्गति हुई और राष्ट्रीय जनता दल खाता भी नहीं खोल पाया.

अगर पार्टियां इधर-उधर नहीं होती हैं तो 2020 में प्रदेश की राजनीतिक स्थिति इस प्रकार बनती दिख रही है. एनडीए में बीजेपी के अलावा जेडीयू और लोक जनशक्ति पार्टी हैं और सेकुलर गठबंधन में आरजेडी, कांग्रेस, आरएलएसपी और कुछ अन्य पार्टियां होंगी. इस दो ध्रुव के अलावा जो दल होंगे, वे कम ही असर दिखा पाएंगे.

हालांकि, नीतीश कुमार जिस तरह से पाला बदलने की क्षमता रखते हैं, उसे देखते हुए अभी इस बारे में भविष्यवाणी करना जोखिम का काम है बिहार का राजनीतिक परिदृश्य क्या होगा. नीतीश कुमार की सुविधा ये है कि लगभग ढाई दशक तक बीजेपी का पार्टनर रहने के बावजूद उनकी छवि सेकुलर बनी हुई है. इस सुविधा का इस्तेमाल वे पिछले विधानसभा चुनाव में कर चुके हैं और कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर वे एक बार फिर से एनडीए से सेकुलर खेमे में आ जाएं.


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अगर ये पूछा जाए बिहार चुनाव और खासकर नीतीश कुमार के लिए दिल्ली चुनाव और नतीजों का क्या मतलब है, तो इसे इस प्रकार देखा जा सकता है.

  1. बिजली-पानी-सड़क-स्कूल-हॉस्पिटल चुनाव मुद्दे हैं: दिल्ली चुनाव ने एक बार फिर से साबित किया कि विकास और नागरिक सुविधाओं के नाम पर वोट मांगे जा सकते हैं और लोग इन मुद्दों पर वोट देते भी हैं. अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने पूरा दिल्ली चुनाव इन मुद्दों पर किए गए अपने कामकाज और इन्हीं मुद्दों पर किए गए अपने वादों पर लड़ा. ये कहना तो गलत होगा कि आम आदमी पार्टी की जीत का यह अकेला कारण था, क्योंकि चुनाव में ढेर सारे पहलू एक साथ एक दूसरे के साथ या एक दूसरे को काटते हुए काम करते हैं, फिर भी आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से लोक महत्व के इन मुद्दों को आगे रखकर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की, वह महत्वपूर्ण है.

कोई चाहे तो ये कहकर इस चुनावी रणनाति की आलोचना कर सकता है कि मुफ्त पानी या बिजली देना तो मतदाताओं को रिश्वत देना हुआ. लेकिन, किसी भी लोककल्याणकारी राज्य का तो ये कर्तव्य है कि वह लोगों को जीवन के लिए ज़रूरी सुविधाएं मुहैया कराए. अगर जनता तक सीधे सुविधाएं पहुंचाना अगर कोई समस्या है तो केजरीवाल से पहले कई और पार्टियां इससे भी बड़े पैमाने पर ये काम कर चुकी हैं.

इस मामले में हमें खास तौर पर तमिलनाडु की ओर देखना चाहिए जहां सरकार और जनता के बीच बहुत सीधा सा लेन-देन वाला रिश्ता बन गया है. ये न भूलें कि भारत में खास तौर पर गरीबों के जीवन में सरकार अक्सर मुसीबत यानी पुलिस या अतिक्रमण हटाने वाले नगरपालिका के अफसर या सर्टिफिकेट बनवाने के एवज में रिश्वत मांगने वाले कर्मचारी की शक्ल में पहुंचती है. ऐसे में अगर सरकार जीवन के लिए ज़रूरी सुविधाएं देने लगे, तो लोगों का खुश होना स्वाभाविक है. हालांकि ये उनका अधिकार होना चाहिए.

सवाल उठता है कि क्या नीतीश कुमार विकास या नागरिक सुविधाओं पर वोट मांग सकते हैं? ये सही है कि नीतीश कुमार का वादा यही था कि वे बिहार में अराजकता और अपराध खत्म करके सुशासन लाएंगे और विकास करेंगे. लगभग डेढ़ दशक तक बिहार पर लगातार राज करने के बाद नीतीश कुमार विकास या सुशासन के मोर्चे पर खास कुछ नहीं कर पाए हैं. बिहार आर्थिक विकास और मानव विकास के मोर्चे पर अब भी देश का सबसे पिछड़ा राज्य है और दुनिया में इसकी तुलना कुछ बेहद पिछड़े अफ्रीकी देशों से ही हो सकती है. यहां न शिक्षा की हालत बेहतर हो पाई है और न ही स्वास्थ्य सुविधाओं की.

बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार विकास के नाम पर उस तरह वोट नहीं मांग पाएंगे, जो कर पाना केजरीवाल के लिए संभव हो पाया.

2. सांप्रदायिक राजनीति की सीमाएं उजागर: दिल्ली का चुनाव सांप्रदायिक रूप से बेहद गर्म माहौल में हुआ. एक साथ अनुच्छेद- 370, तीन तलाक, राममंदिर और एनआरसी तथा सीएए के मुद्दे बीजेपी ने चुनाव मैदान में उछाल दिए. गोली मारो और विरोधियों की जीत पाकिस्तान की जीत होगी जैसी बातें बीजेपी नेताओं ने चुनावी सभाओं में कही. चुनाव के बीच में ही राममंदिर ट्रस्ट बनाने की घोषणा भी की गई. पूरे चुनाव में बीजेपी के भाषणों में शाहीन बाग छाया रहा. लेकिन दिल्ली के मतदाताओं ने इन मुद्दों को खारिज कर दिया. दिलचस्प है ये ये काम हिंदू मतदाताओं ने किया.

बिहार में बीजेपी नीतीश कुमार की सहयोगी है और अगर कोई जादू न होगा तो बिहार विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी सांप्रदायिक तेवर ही अपनाएंगी. अगर ये मुद्दे दिल्ली में नहीं चले तो क्या इनका असर बिहार के मतदाओं पर होगा? लगता नहीं है क्योंकि 2015 में बिहार में बीजेपी ने गोहत्या और गाय की सुरक्षा को बड़ा मुद्दा बनाया था. लेकिन एनडीए को इसका कोई फायदा नहीं हुआ. साथ ही, अब तक माना जाता रहा है कि नीतीश कुमार अपनी निजी छवि की वजह से कुछ मुसलमानों के वोट भी हासिल करते हैं. अगर बीजेपी ने सांप्रदायिक माहौल गर्म किया, तो जेडीयू को मुसलमान वोटों का नुकसान हो सकता है.

3. मोदी हमेशा चुनाव नहीं जिता सकते: नीतीश कुमार अगर ये सोचते हैं कि चुनाव जिताने का दम तो सिर्फ मोदी के व्यक्तित्व और अमित शाह की चुनावी रणनीति में है, तो ये बात एक के बाद हो रहे विधानसभा चुनावों में गलत साबित हो चुकी है. 2018 के बाद से अब तक बीजेपी जिन राज्यों में सत्ता गंवा चुकी है उनमें – मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र और झारखंड शामिल है. हरियाणा में भी बीजेपी बहुमत से काफी दूर रह गई और उसे मिली जुली सरकार बनाना पड़ा. अब दिल्ली इस लिस्ट में शामिल हो गई है. क्या नीतीश कुमार ये सोच रहे होंगे कि मोदी और शाह का जादू कम होने के बाद अब क्या होगा? हो सकता है कि वे ऐसा सोच रहे हों. ये बात नीतीश के चुनावी गणित को प्रभावित कर सकती है क्योंकि वे करियर पॉलिटिशियन हैं और चुनाव जीतना राजनेताओं का लक्ष्य होना भी चाहिए.


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4. प्रशांत किशोर के बिना नीतीश कुमार: चौथा पहलू जिस पर नीतीश कुमार की नज़र ज़रूर जा रही होगी, वे है चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की दिल्ली चुनाव में मौजूदगी. प्रशांत किशोर को अरविंद केजरीवाल ने अपने साथ जोड़ लिया और प्रशांत किशोर नीतीश कुमार से अलग हो गए. प्रशांत किशोर कोई चुनाव जिताते हैं या नहीं, ये बात तथ्यों के आधार पर कह पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है, लेकिन जो बात पक्के तौर पर कही जा सकती है वो ये कि प्रशांत किशोर अक्सर विजेता पक्ष में खड़े पाए जाते हैं. अगर बिहार में प्रशांत किशोर जेडीयू के साथ नहीं हैं, तो नीतीश कुमार को चुनाव जीतने के लिए अपने पार्टी तंत्र पर निर्भर रहना पड़ेगा या फिर किसी और विशेषज्ञ की सेवाएं लेनी पड़ेंगी.

नीतीश कुमार ने कई कठिन राजनीतिक लड़ाइयां जीती हैं. 1994 में लालू प्रसाद के साए से दूर होकर उन्होंने अपनी समता पार्टी बनाई और 1995 का विधानसभा चुनाव सीपीआई (एमएल) के साथ तालमेल करके लड़ा. उस चुनाव में उन्हें सिर्फ सात सीटें आईं थी. वहां से उन्होंने लंबा सफर तय किया है. क्या वे इस बार भी कामयाब होगें? नज़र बनाए रखिए बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम पर.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)

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