असम में कांग्रेस के सहयोगी दलों— ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआइयूडीएफ) और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ)— ने इस बार चुनाव लड़ रहे अपने उम्मीदवारों को कांग्रेस शासित राजस्थान और छत्तीसगढ़ रवाना कर दिया है. वे लोग 2 मई को चुनाव नतीजे आने तक या शायद उससे कुछ आगे भी इन राज्यों के मेहमान बनकर रहेंगे.
असम के चुनाव में इस बार कांग्रेस को छुपा रुस्तम माना जा रहा है. जाहिर है, वह नतीजों को लेकर बहुत आशावान है. उसे पक्का विश्वास है कि 10 दलों का उसका गठबंधन ‘महाजोत’ या तो चुनाव जीत लेगा या नतीजे के बाद बनी त्रिशंकु विधानसभा में भाजपा को सत्ता से वंचित करने में सफल रहेगा. अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मणिपुर, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में भाजपा ने चुनाव में मिले अल्पमत को जिस तरह बहुमत में बदल डाला उसके कारण कांग्रेस और उसके सहयोगियों की आशंकाएं निराधार भी नहीं कही जा सकतीं.
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राहुल के लिए सबक
चुनाव अभियान के बीच ही बीपीएफ का एक उम्मीदवार जिस तरह भाजपा में शामिल हो गया, उसने विपक्षी खेमे को झटका पहुंचाया. जो भी हो, जिस राज्य में कांग्रेस और उसके सहयोगियों का पत्ता साफ मान लिया गया था, वहां वे चुनाव जीतने की उम्मीद कर रहे हैं तो यह अपने आप में आश्चर्य की बात है.
इस चुनाव के नतीजे जो भी आएं, असम में कांग्रेस का चुनाव अभियान पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति के मामले में गांधी परिवार के लिए कुछ महत्वपूर्ण सबक प्रस्तुत कर रहा है. एक तरह से देखा जाए तो असम में पार्टी को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, वैसी ही चुनौतियों का उसे राष्ट्रीय स्तर पर भी सामना करना पड़ रहा है. असम में उसकी चुनावी रणनीति कारगर साबित हो या न हो, उसके पीछे के तर्क इतने मजबूत हैं कि राहुल गांधी उसके मद्देनजर अपनी राजनीति को ढाल सकते हैं.
कथा लिखी है…
कांग्रेस ने असम में क्या किया है इस पर गौर करने से पहले हम इस कथा के पात्रों पर नज़र डालेंगे.
राज्य में कांंग्रेस की रणनीति के कर्णधार थे असम के पार्टी प्रभारी और एआइसीसी के महासचिव जितेंद्र सिंह. पहले तो केंद्रीय पार्टी नेता छापामारों की तरह राज्य में जाया करते थे, पांचतारा होटल में बैठकें करते थे और उड़ जाते थे, मगर जितेंद्र सिंह ने इसके उलट गुवाहाटी में दो कमरे का फ्लैट किराये पर लिया और पूरे तीन महीने वहां डटे रहे. ऐसा आम तौर पर भाजपा के राज्य प्रभारी किया करते हैं. जितेंद्र सिंह ने असम चुनाव के लिए अपने एक ‘शांत’ ‘प्रशांत किशोर’ को चुना. ये चंडीगढ़ की ‘डिजाइन बॉक्स्ड’ नामक कंपनी के चुनाव सलाहकार नरेश अरोरा थे, जो छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावों में पार्टी की रणनीति बनाने वाले समूह में भी शामिल थे.
छत्तीसगढ़ में लोकप्रिय भाजपाई मुख्यमंत्री रमन सिंह को हराने वाले मुख्यमंत्री भूपेश सिंह बघेल असम के ब्लॉक और ज़िला स्तर के पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के लिए अपने राज्य के 250 पार्टी कार्यकर्ताओं को लेकर वहां गए. उन सबने 300 से ज्यादा बैठकें की और उनका मार्गदर्शन किया कि पार्टी का संदेश बूथ स्तर तक हरेक परिवार को कैसे पहुंचाया जा सकता है. बघेल ने भी सघन चुनाव प्रचार किया.
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सकारात्मक अभियान
असम में कांग्रेस के अभियान का मूल तत्व यह था कि उसने अपनी कमजोरियों को और भाजपा की ताकत को स्पष्ट तौर पर कबूल किया. कांग्रेस के रणनीतिकारों ने माना कि लोकप्रिय नेता और मुख्यमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार हिमंत बिसवा सरमा को नीचा दिखाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है. पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के निधन के बाद पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं था जो सरमा की तरह, काम करने वाले एक नेता की अपनी छवि के बूते जनता को आकृष्ट कर सके. सर्वानंद सोनोवाल की सरकार से लोगों की कोई नाराजगी भी नहीं थी.
बल्कि, अधिकतर घरों को केंद्र या राज्य सरकार के किसी-न-किसी कार्यक्रम से कुछ-न-कुछ लाभ मिला ही था. कांग्रेस के रणनीतिकारों ने सरकार की आलोचना को पार्टी के चुनाव अभियान का केंद्रीय मुद्दा नहीं बनाया. उन्होंने एक सकारात्मक चुनाव प्रचार चलाने का फैसला किया, जिसे इस बात पर आधारित किया गया कि पार्टी के पास लोगों को देने के लिए क्या कुछ है.
एक रणनीतिकार ने मुझसे बातचीत में कहा कि ‘सोचा यह था कि लोगों से यह कहा जाए कि ठीक है, भाजपा ने आपको यह सब दिया लेकिन आप अगर हमें चुनेंगे तो हम आपको ये चीजें देंगे.’
दरअसल, कांग्रेस ने बीरबल की कथा से प्रेरणा लेते हुए अपनी लकीर बड़ी खींचने की कोशिश की है, ताकि दूसरी लकीर (मोदी और उनकी सरकार की) छोटी दिखे. कांग्रेस को यह एहसास था कि लोग उसके वादों को चुनावी चाल समझ सकते हैं, इसलिए उसने उन वादों को ‘पांच गारंटी’ नाम दिया, और उनके बूते जनता से जुड़ने का अभियान चलाया.
उदाहरण के लिए, एक गारंटी तो यह दी गई है कि नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) को रद्द करने के लिए कानून लाया जाएगा. कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने घर-घर जाकर लोगों से अपील की कि अगर वे सीएए का विरोध करते हैं तो अपने पारंपरिक ‘गामोसा’ पर यह लिखकर कांग्रेस को दें, जिन्हें सीएए विरोधी स्मारक पर रखा जाएगा. फरवरी के तीसरे सप्ताह तक कांग्रेस के पास एक लाख ‘गामोसा’ जमा हो गए थे. इसी तरह, पांच लाख सरकारी नौकरी देने की गारंटी के लिए कांग्रेस ने इसके लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन शुरू किया और युवकों से अपना मोबाइल नंबर तथा ई-मेल पता दर्ज करने और आइडी सेव करके रखने को कहा. करीब दो लाख लोगों ने इसके लिए रजिस्ट्रेशन किया.
याद कीजिए, 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने ‘एक नोट, कमल पर वोट’ का अभियान चलाया था. बिहार में उस चुनाव अभियान के दौरान एक सैलून में एक नाई ने मुझसे बातचीत में बताया था, “मैंने बक्से में पांच का नोट डाला. अब मैं भाजपा से वादा कर चुका हूं.” इस बार असम में अपनी ‘पांच गारंटी’ के साथ कॉंग्रेस ने लोगों से जिस तरह जुड़ने की कोशिश की उससे राहुल गांधी को समझ में आ गया होगा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उनका ‘न्याय’ का नारा (हर साल 72,000 रुपये की आय कराने वाली न्यूनतम आय गारंटी योजना) क्यों बेअसर रहा था.
सामूहिकता का चेहरा
कांग्रेस के पास पूरे असम के लिए लोकप्रिय कोई चेहरा नहीं था तो उसने सामूहिकता का चेहरा सामने रखा. उसने चार स्थानों से पखवाड़े भर चलने वाली ‘असम बचाओ’ बस यात्रा शुरू की, जिनमें से एक-एक का नेतृत्व मुख्यमंत्री पद के संभावित चार नेताओं— गौरव गोगोई, सुष्मिता देव, प्रद्यूत बोरदोलोई, और देवव्रत सैकिया— ने किया. तय किया गया कि ये नेता यात्रा के दौरान होटलों में नहीं बल्कि कार्यकर्ताओं के घरों में ठहरेंगे. पार्टी के एक सूत्र ने कहा, ‘इसका फायदा यह हुआ कहीं भी स्थानीय अखबारों में पार्टी के अंदर कलह की कोई खबर नहीं छपी.’ प्रमुख नेताओं को उम्मीदवार तय करने का कोई कोटा नहीं निश्चित किया गया. उम्मीदवार चयन कमिटी में करीब आधा दर्जन प्रमुख नेताओं को शामिल किया गया. इनके अलावा आलाकमान द्वारा नियुक्त नेता तो थे ही. किसी उम्मीदवार को लेकर कोई मतभेद होता था तो तीन सर्वेक्षणों के नतीजों के आधार पर आपत्तियों का निबटारा किया जाता था. उम्मीदवारों का अंतिम चयन करने के लिए पार्टी के राज्य मुख्यालय में पहली बार केंद्रीय चुनाव कमिटी की बैठक हुई जिसमें केंद्रीय नेता ऑनलाइन जुड़े.
भाजपा ने एआइयूडीएफ के बदरुद्दीन अजमल के साथ कांग्रेस के गठबंधन को चुनावी मुद्दा बनाया लेकिन विपक्षी दल ने इस मुद्दे पर उलझने से किनारा कर लिया. पार्टी नेताओं ने खुद को हिंदू घोषित करने की कोई कोशिश नहीं की, जैसी कोशिश राहुल गांधी ने खुद को जनेऊधारी दत्तात्रेय ब्राह्मण बताकर की थी. बल्कि असम कांग्रेस ने ऊपरी असम में मतदान के दिन अपने उम्मीदवारों को मंदिरों में जाकर प्रार्थना करने के लिए भेजकर एक सूक्ष्म संदेश देने की कोशिश की.
असम में कांग्रेस का चुनाव अभियान राहुल गांधी की नकारात्मक राजनीति से बिलकुल विपरीत रहा. राहुल की रणनीति तो प्रधानमंत्री मोदी पर लगातार हमला करने की रही जबकि उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आ रही है; राहुल शासन के मोदी मॉडल पर हमले करते रहे जबकि उस पर चुनाव-दर-चुनाव मंजूरी की मुहर लगती रही है.
असम में कांग्रेस की चुनावी रणनीति से उसे फायदा हुआ या नहीं, यह 2 मई को आने वाले चुनाव नतीजे साबित करें या नहीं, मगर राहुल की राजनीतिक शैली जिस तरह विफल होती रही है उसके मद्देनजर वे इस सांचे को आगे आजमा सकते हैं. शुरुआत के लिए वे राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बड़ी लकीर खींचने की कोशिश तो कर ही सकते हैं.
यहां व्यक्त विचार निजी हैं
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