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Monday, 23 December, 2024
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वामपंथ नहीं रहा लेकिन देश में नये सोच के ‘नव-वाम’ की जरूरत बरकरार

वामपंथ हमारे सार्वजनिक जीवन से गायब हो जाये तो यह बड़ा त्रासद कहलायेगा. वामपंथ की नाकामियां अपनी जगह लेकिन वामपंथ ने भारतीय लोकतंत्र के जनतांत्रिक चरित्र को बनाये ऱखने में अहम भूमिका निभायी है.

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वामपंथ नहीं रहा लेकिन वामपंथ जिन्दाबाद !

हाल के लोकसभा चुनाव में वामदल के लचर प्रदर्शन पर मेरी पहली प्रतिक्रिया यही थी. जिस बात की आशंका लंबे समय से चली आ रही थी, चुनाव के नतीजों से उस आशंका की पुष्टी हो गई : बात चाहे एक सांगठनिक हस्ती की हो या फिर बौद्धिक और राजनीतिक जमीन पर पुरजोर मौजूदगी की- वामपंथ इसमें किसी भी रूप में अब जिन्दा नहीं.

इसके बावजूद, चुनाव के नतीजों से ये भी जाहिर हुआ कि एक सियासी राह और आंदोलन के रूप में वामपंथ की जरुरत और प्रासंगिकता बनी हुई है. ये बात हमें एक बड़ा सवाल पूछने को उकसाती है. सवाल यह कि क्या पुराने वामपंथ की मृत्यु नये वामपंथ के जन्म की जमीन साबित हो पायेगी ?

बीते सौ-एक सालों से वामपंथ का आमफहम अर्थ एक रुढ़िबद्ध, सैद्धांतिक राजनीति से लिया जाता रहा है. मार्क्सवाद की राह लगना या फिर यों कहें कि मार्क्सवाद की जो संकीर्ण व्याख्या लेनिन ने की- उसे मानकर चलना ही वामपंथ मान लिया गया. इतिहास का एक सिद्धांत, पूंजीवादी राज्य-व्यवस्था का विश्लेषण, क्रांति की अनिवार्यता पर विश्वास, राज्यपोषित समाजवाद का स्वप्न और सर्वहारा की तानाशाही इस विचारधारा के अंग हैं.


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वामपंथी खेमे का एक बड़ा हिस्सा मानकर चला कि उनका आदर्श भावी समाज वैसा ही होगा जैसा कि सोवियत संघ और साम्यवादी शासन वाले अन्य देशों में साकार हुआ है. इस राजनीति की नुमाइंदगी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीआई) ने की जो आगे चलकर सीपीआई-एम, सीपीआई-माओवादी तथा सीपीआई-एमएल के कई धड़ों में बंटी.

वामधारा की यह राजनीति कुछ समय से लगातार ढलान पर थी. लोकसभा के चुनाव के नतीजों से इस बात को बड़े झटकामार अंदाज में उजागर कर दिया. वामपंथी खेमे की झोली में अबतक की सबसे कम यानि महज पांच सीटें आयी हैं ( भला हो डीएमके का, जो तमिलनाडु से चार सीटें हाथ लगीं) जो सिर्फ चुनावी हार का नहीं बल्कि किसी और ज्यादा गहरी बात का संकेतक है. केरल में एलडीएफ की हैरतअंगेज हार के बारे में हम भले ही अपने मन को ये कहकर समझा लें कि वहां तो ऐसा क्रमवार ढंग से होते ही रहता है लेकिन पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में वामधारा की राजनीति का चुनावी मैदान में जिस तरह सफाया हुआ है, उसके बारे में यही बात नहीं कही जा सकती.

सीपीएम का पूर्व-कैडर पलटी मारते हुए जिस तरह बीजेपी के खेमे में पहुंचा है, वह संसदीय वामपंथी राजनीति के बहुत गहरे तक खोखला होने की सूचना देता है. संसदीय राजनीति से खुद को परे रखने वाले साम्यवादियों या कह लें माओवादियों का छोटा सा झुंड अब भी भारतीय राजसत्ता के खिलाफ हथियारबंद लड़ाई की राह पर है लेकिन बीते कुछ समय से यह झुंड दिशाहीन हो चला है और आखिर उसे सुरक्षाबल के हाथों एक ना एक दिन हमेशा के लिए खत्म हो जाना है. अपने आखिरी गढ़ जेएनयू में भी वामपंथी राजनीति विभिन्न वाम धड़ों के महागठबंधन के सहारे टिकी हुई है और एवीबीपी तथा एनएसयूआई को चुनावी मुकाबले में हरा पा रही है.


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इस रुढ़िपरस्त वामपंथ की मौत कोई आकस्मिक घटना नहीं है. सोवियत संघ तथा पूर्वी युरोप के देशों में साम्यवादी शासन का ढहना खुद ही एक दलील था कि साम्यवादी ‘वाम’ के आचार और विचार में ढेर सारी विसंगतियां हैं : साम्यवादी ‘वाम’स्वतंत्रता सरीखी बुनियादी मानवीय चाहत को सम्मान दे पाने में नाकाम रहा, आर्थिक पहलों और उद्यमों को बढ़ावा देना होता है, यह बात साम्यवादी ‘वाम’ को स्वीकार ना थी. इस वाम ने राज्यपोषित समाजवाद के नाम पर नौकरशाही का एक दानवाकार तंत्र खड़ा किया. इसके अतिरिक्त एक बात यह भी गौर करने की है कि भारतीय ‘वामपंथ’ कभी भी भारत के समाज को नहीं समझ पाया: भारतीय वामपंथ के सोच-समझ का व्याकरण युरोपीय सांचे में ढला था और इस सांचे ने भारत के आजादी के आंदोलन, भारतीय परंपराओं तथा धर्मों और जाति-व्यवस्था के साथ सार्थक संवाद बनाने से भारतीय वाम को रोक दिया. आश्चर्य इस बात का नहीं कि रुढ़िपरस्त वामपंथ अब मृतप्राय हो चला है बल्कि अचरज तो इस बात का है कि सोवियत संघ के ढहने के तीन दशक बाद तक यह वामपंथ जीवित चला आया.

फिर भी, अगर वामपंथ हमारे सार्वजनिक जीवन से गायब हो जाये तो यह बड़ा त्रासद कहलायेगा. वामपंथ की नाकामियां अपनी जगह लेकिन वामपंथ ने भारतीय लोकतंत्र के जनतांत्रिक चरित्र को बनाये ऱखने में अहम भूमिका निभायी है. वामपंथ ने आर्थिक असमानता की गहरी होती खाई पर हमेशा अपनी नजर टिकाये ऱखी जिसकी वजह से हमारी पूंजीवादी व्यवस्था में अमानवीयता और भ्रष्टाचार पर एक हदतक अंकुश लगा रहा.

बेशक पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा राजकाज के मामले में कुछ खास नहीं कर पाया लेकिन सांप्रदायिक रूप से सबसे ज्यादा सरगर्म मिजाज वाले पश्चिम बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम एकता को बनाये रखना उसकी एक उल्लेखनीय उपलब्धि रही है. कुछ सर्वाधिक निस्वार्थ, श्रेष्ठ और गहरे चिन्तन-मनन वाले राजनेताओं के अतिरिक्त वामपंथ ने देश को बेहतरीन कलाकार, कवि, लेखक, शिक्षक, पत्रकार, वैज्ञानिक, बुद्धिवादी चिन्तक और कार्यकर्ता दिये हैं और इस तरह जीवन के हर क्षेत्र में अपना योगदान दिया है. वामपंथ की गैरमौजूदगी में आधुनिक भारतीय संस्कृति और राजनीति आभाहीन दिखेगी.


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इसी कारण हमें नये तर्ज के वामपंथ की तलाश करनी चाहिए, उसे गढ़ने की दिशा में काम करना चाहिए. वामपंथ अपने मौलिक और गहरे अर्थ में उन लोगों का संकेतक है जो राजतंत्र या कह लें सत्तातंत्र के विरोधी हैं. उन्नीसवीं सदी में वामपंथी उन लोगों को समझा जाता था जो समानता के हामी थे. बाद में, रुसी क्रांति के बाद साम्यवादी वाम ने ‘समानता’की धारणा पर अपना कब्जा जमा लिया. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में नागरिक अधिकार के आंदोलनों, स्त्रीवादियों और पर्यावरणवादियों को भी समय-समय पर ‘वामपंथी’ कहकर पुकारा गया. व्यापक अर्थों में देखें तो वामपंथ का रिश्ता समानता, सामाजिक न्याय, प्रतिभागी लोकतंत्र और पर्यावरणीय टिकाऊपन से है. वामपंथी होने का अर्थ है, राजनीतिक सत्ता-तंत्र, जाति-व्यवस्था तथा पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ और उसके प्रतिकार में खड़ा होना.

वामपंथ की ऐसी पुनर्परिभाषा की विश्वस्तर पर भी एक समृद्ध बौद्धिक-राजनीतिक विरासत रही है और भारत में भी. इस अर्थ में देखें तो भारत के संविधान की ‘प्रस्तावना’ स्वयं में वामपंथी है. भारत की समाजवादी परंपरा में- गैर-साम्यवादी लोकतांत्रिक समाजवाद के हामी आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण तथा राममनोहर लोहिया सरीखे नेताओं के चिन्तन में ‘नव-वाम’ को गढ़ने के प्रभूत विचार हैं. इन नेताओं की राजनीतिक विरासत यानि जनता परिवार आज आकर्षक नहीं रह गया. लेकिन इस कमी की विभिन्न किस्म के जन-आंदोलनों से भरपायी की जा सकती है जिनमें भोजन, शिक्षा और सूचना के अधिकार के आंदोलन से लेकर रोजी-रोजगार के अधिकार और लैंगिक तथा जातिगत समानता एवं टिकाऊ विकास तक के आंदोलन शामिल हैं. ये आंदोलन और इनके कार्यकर्ता विभिन्न विचारधाराओं जैसे पर्यावरणवाद, स्त्रीवाद, समाजवाद, मार्क्सवाद, फुले-आंबेडकरवाद, गांधीवाद आदि से प्रेरित हैं. इन आंदोलन के राजनीतिक रुझानों में भी विभिन्नता है. आंदोलनरत इन समूहों में ज्यादातर रुढ़िपरस्त वामपंथ से ही निकले हैं लेकिन इनमें से कोई भी अपने बूते नव-वाम की रचना में सक्षम नहीं. लेकिन इन आंदोलनी समूहों को एक साथ मिलाकर देखें तो फिर उनके पास हमें सबसे सशक्त विचार, कार्यक्रम और कार्यकर्ताओं का एक जखीरा मिलेगा.

लेकिन ‘नव-वाम’ को पुराने वामपंथ के बचे-खुचे मूल्यवान अवशेष का जोड़-जमा नहीं माना जा सकता. ऐसी एकता जरुरी तो है लेकिन पर्याप्त नहीं. नये सिरे से सोचने, न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज बनाने से जुड़े जरा-जीर्ण विचारों को छोड़ने और नयी नीति, रणनीति तथा दांव-पेंच का नया व्याकरण गढ़ने के लिए बड़े साहस की जरुरत होती है. और, ऐसी ही कोशिश का एक हिस्सा यह भी है कि हम ‘नव-वाम’ के लिए एक नया नाम सोचें.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)

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