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Friday, 22 November, 2024
होमडिफेंसज़रूरी सैन्य उपकरण लीज़ पर लेना सरकार के लिए आसान रास्ता है लेकिन भारतीय बलों के लिए एक कठिन चुनाव है

ज़रूरी सैन्य उपकरण लीज़ पर लेना सरकार के लिए आसान रास्ता है लेकिन भारतीय बलों के लिए एक कठिन चुनाव है

लीज़िंग एक स्वागत योग्य क़दम है, लेकिन रक्षा प्रतिष्ठान में बहुत से लोग हैं, जिन्हें डर है कि ये एक दोधारी तलवार है.

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पिछले महीने, भारत ने अपनी नौसेना में, अमेरिका से अधिक ऊंचाई पर लंबे समय तक काम करने वाले, दो ड्रोन्स- सी गार्जियन शामिल किए, जो घातक प्रेडेटर सीरीज़ के हथियार रहित संस्करण हैं- इन्हें पट्टे पर लिया गया. इन्हें एक अमेरिकी कंपनी से एक साल के पट्टे पर लिया गया था, जबकि नौसेना ने एक भारतीय कंपनी से एक रसद जहाज़ भी पट्टे पर लिया है.

ये ड्रोन्स और जहाज़ पहले उपकरण थे, जिन्हें पट्टे के विकल्प के तहत प्राप्त किया गया, जो सितंबर में नई रक्षा ख़रीद प्रक्रिया (डीएपी) 2020 में शुरू की गई थी.

डीएपी में कहा गया है कि पट्टा ‘मालिकाना हक़ के बिना किसी (सैन्य) संपत्ति को प्राप्त करने, और उसे संचालित करने का तरीक़ा’ होता है. इसमें आगे कहा गया है, कि इसमें ‘शुरू में ज़्यादा पूंजी लगाने की बजाय, तय समय पर दिए जाने वाले, किराए का विकल्प मिल जाता है’.

भारत ने परमाणु पनडुब्बी चक्र भी पट्टे पर ली हुई है, लेकिन वो एक स्पेशल केस है, और उसे रणनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

नए नियमों के तहत सबसे पहले पट्टा प्रक्रिया शुरू करने वाली नौसेना, कुछ और महत्वपूर्ण उपकरण भी पट्टे पर लेने की सोच रही है. और वो इसमें अकेली नहीं है. वायुसेना और थलसेना भी उपकरण पट्टे पर लेने के बारे में, सक्रिय रूप से विचार कर रही हैं.

जैसा कि नौसेना प्रमुख एडमिरल करमबीर सिंह ने, बृहस्पतिवार को अपनी सालाना प्रेस कॉनफ्रेंस में कहा, अगर महत्वपूर्ण क्षमताओं को हासिल करने में कोई कसर रह जाती है, तो पट्टे का विकल्प इस्तेमाल किया जा सकता है.


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बलों के लिए हर हाल में फायदा

बलों को ये स्थिति हर हाल में फायदेमंद लगती है, क्योंकि वो लंबी ख़रीद प्रक्रिया से बच सकते हैं, जो कछुए की रफ्तार से चलती है. इससे उन्हें बजट की कमी के समय मदद मिलती है- पट्टे पर लेने से, शुरू में भारी पूंजी लगाए बिना, उपकरण इस्तेमाल करने को मिल जाता है.

एक वरिष्ठ नौसेना अधिकारी ने मुझे बताया, कि अमेरिका से दो ड्रोन लीज़ पर लेने की प्रक्रिया सिर्फ दो महीनों में पूरी कर ली गई थी. भारत में रक्षा ख़रीद प्रक्रियाएं, बरसों तक चलते रहने के लिए जानी जाती हैं, इसलिए दो महीनों में पूरा किया गया ये ‘सौदा’ अभूतपूर्व है.

वायुसेना भी क्षमता में कसर को पूरा करने के लिए, ऊपर हवा में ईंधन भरने वाले विमान, लीज़ पर लेने की सोच रही है, हालांकि साथ ही, वो लंबे समय से चली आ रही, ऐसे विमानों की मांग को पूरा करने की दिशा में भी प्रयासरत है.

ऐसा समझा जा रहा है कि सेना भी, कुछ सिस्टम्स को लीज़ पर लेने पर विचार कर रही है, जिनमें बख़्तरबंद गतिशीलता देने वाले उपकरण शामिल हैं.


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नकारात्मक पक्ष

लीज़िंग एक स्वागत योग्य क़दम है, लेकिन रक्षा प्रतिष्ठान में बहुत से लोग हैं, जिन्हें डर है कि ये एक दोधारी तलवार है.

पूर्व सचिव, रक्षा वित्त, गार्गी कौल ने पिछले महीने नई पट्टा नीति को लेकर काफी शंकाएं जताईं थीं, और कहा था कि इसने रक्षा मंत्रालय के नौकरशाहों के ‘हाथ बांध दिए हैं’. कौल के अनुसार, पट्टा श्रेणी में प्रतिस्पर्धी खरीद मुश्किल हो जाएगी, चूंकि ज़्यादातर मामलों में एक ही योग्य वेंडर होगा. दूसरे अधिकारियों का भी कहना है, कि लीज़िंग से सेनाएं एक-वेंडर की स्थिति में आ जाएंगी.

लेकिन, एक्सपर्ट्स का भी कहना है कि ऐसे मौक़े रहे हैं, जब एक ही वेंडर होने के कारण ज़रूरी उपकरण नहीं ख़रीदे जा सके थे. भारत के ख़रीद नियमों के अंतर्गत एक-वेंडर के सौदों की अनुमति नहीं है. सेना अभी तक अपने पैदल सैनिकों के लिए, कार्बाइन्स ख़रीदने की कोशिश कर रही है, जिसकी प्रक्रिया 2011 में शुरू हुई थी.

2011 में 44,000 से ज़्यादा क्लोज़ क्वार्टर बैटल रायफल्स (कार्बाइन्स) के लिए, ग्लोबल टेंडर जारी किया गया था, जिसमें चार कंपनियों- इज़राइल की आईडब्लूआई, इटली की बरेटा, और अमेरिकी कंपनियों कोल्ट तथा सिग सॉयर- ने शिरकत की. लेकिन, केवल आईडब्लूआई ही योग्य ठहरी, जो रात में देखने वाले माउंटिंग सिस्टम्स की, गुणवत्ता की ज़रूरतों पर पूरा उतरती थी. इससे भारत एक अकेले वेंडर की स्थिति में आ गया, जिसके परिणामस्वरूप रक्षा मंत्रालय, इस सौदे में आगे नहीं बढ़ सका.

इस स्थिति को चकमा देने के लिए, 2017 में सेना की ओर से, दो लाख कार्बाइन्स की ख़रीद के लिए, सूचना प्राप्त करने की ख़ातिर एक ग्लोबल अनुरोध (आरएफआई) जारी किया गया. साथ ही, फास्ट ट्रैक खरीद प्रक्रिया के तहत, 93,895 रायफल्स ख़रीदने के लिए, एक अलग प्रक्रिया शुरू की गई.

दोनों का अभी तक कोई परिणाम सामने नहीं आया है.

सेवाओं के अधिकारी काफी हद तक, लीज़िंग के उपाय का स्वागत करते हैं, लेकिन कुछ को डर है कि इससे सरकार के लिए, सशस्त्र बलों की ज़रूरतें पूरी करने का रास्ता आसान हो जाएगा. उनकी दलील है कि वास्तविक ख़रीद प्रक्रिया में, तात्कालिकता की ज़रूरत और पीछे छूट जाएगी, चूंकि ज़रूरी कसर लीजिंग से पूरी हो जाएगी.

एक सेवारत अधिकारी ने समझाया, कि ज़्यादातर ख़रीद प्रक्रिया को अंतिम रूप तब दिया जाता है, जब मांग की गंभीरता बिल्कुल चरम पर होती है. लेकिन लीज़िंग में, जो एक दीर्घ-कालिक प्रक्रिया नहीं है, रक्षा मंत्रालय और नौकरशाही को एक कुशन मिल जाता है.

लीज़िंग के खिलाफ़ एक और तर्क ये है, कि इससे विदेशी कंपनियों के, पिछले दरवाज़े से घुसने का रास्ता साफ हो सकता है. ऐसा इसलिए कि सेनाएं पट्टे पर लिए गए सिस्टम, या मशीनरी पर निर्भर होने लगती हैं, और अंत में, इसी तरह का कोई दूसरा सिस्टम देखने की बजाय, उसी निर्माता से उन्हें भारी संख्या में ख़रीद लेती है.

(यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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