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Sunday, 22 December, 2024
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शिक्षा के क्षेत्र में लेटरल एंट्री के मायने? आखिर क्या है ‘इवेंटजीवी’ सरकार का मकसद

नई शिक्षा नीति के बाद लेटरल एंट्री विधान शिक्षा जगत को गहरे संकट में धकेल रही है, जिसका समय रहते आकलन करना और समाधान खोजना जरूरी होगा.

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प्रशासन के क्षेत्र में लेटरल एंट्री लागू करने के बाद अब केंद्र सरकार, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के माध्यम से अकादमिक क्षेत्र में भी लेटरल एंट्री की योजना बना रही है. इसके तहत अब महाविद्यालयों में शिक्षण के लिए पीएचडी की आवश्यकता नहीं होगी.

नई शिक्षा नीति से जूझ रही जनता के सामने सरकार द्वारा अब एक और नया विधान पेश कर दिया जाना, असल में सरकार की मंशा पर कई प्रश्न खड़े करता है.

यदि केंद्र सरकार की बीते कुछ वर्षों के अकादमिक नीतियों की ओर दृष्टि डाली जाए तो यह सहज रूप से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ने शिक्षा व्यवस्था को दरअसल एक प्रयोगशाला बना दिया है. खासकर लेटरल एंट्री विधान के बाद तो यह और भी अधिक प्रमाणित हो जाता है.

सामान्य शब्दों में कहा जाए तो अकादमिक क्षेत्र में लेटरल एंट्री विधान ने दरअसल लैब की एंट्री कर दी है, जहां हर दूसरे दिन शिक्षा, छात्र और शिक्षक तीनों के ऊपर प्रयोग किए जा रहे हैं. लेकिन सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सरकार द्वारा किया गया कोई भी प्रयोग अभी अपनी परिणति तक नहीं पहुंच पाया है, या तो बीच रास्ते में है या फिर सरकार ने उसे वापस ले लिया है या उसकी जगह पर एक नई नीति लागू कर दी गई है.

असल में सरकार ‘इवेंटजीवी’ है, जो हमेशा कुछ न कुछ ऐसा करते रहना चाहती है कि सबको लगे की परिवर्तन हो रहा है और हमेशा रोजगार, गरीबी से परे किसी और मुद्दे पर बहस होती रहे, इसके लिए जब उसे कुछ नहीं मिलता तो वो अपनी ही नीतियों में परिवर्तन ले आती है. दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार में नीतिगत स्थिरता की भयानक कमी है.

सरकार खुद नहीं समझ पा रही कि उसे करना क्या है. उसकी इस नीतिगत अनिश्चितता का दंश देश की आम जनता भोगने को विवश है. सरकार को यह समझना चाहिए कि देश हित में लिए गए नीतिगत निर्णय, समय की मांग और स्थिरता की आवश्यकता महसूस करते हैं.

राजनीति करना, अपना एजेंडा लागू करना एक बात है और देश का निर्माण और भविष्य को संवारने का प्रयास करना दूसरी बात है. जहां एक ओर सरकार आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के लिए अगले 25 वर्षों का रोड मैप लेकर आई है वहीं दूसरी तरफ यही सरकार शिक्षा- जिस पर हर देशवासी और भारत का भविष्य टिका है- उसे लेकर अपनी नीतियों में स्थिर नहीं है.


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लेटरल एंट्री और सरकार के विरोधाभासी कदम

केंद्र सरकार सबसे पहले 2018 में यूजीसी नियमावली लेकर आई जिसमें कहा गया कि उच्च शिक्षा के लिए पीएचडी की डिग्री अनिवार्य होगी. रातों-रात देश की जनता पर लागू किए गए इस विधान के कारण बहुत सारे लोग रोजगार की पात्रता से विमुख हो गए. इससे बहुत सारे भारतीय परिवार उबर ही रहे थे कि नई शिक्षा नीति 2020 लागू कर दी गई जिससे शिक्षा व्यवस्था पर रोजगार का एक और संकट मंडराने लगा.

इसके बाद सरकार अचानक ही अकादमिक क्षेत्र में लेटरल एंट्री की व्यवस्था लेकर आ गई. इस लेटरल एंट्री का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह होगा कि बहुत संभव है कि अब किसी भी विभाग में पूरी की पूरी नियुक्तियां इस पिछले दरवाजे के माध्यम से ही संभव हो जाए. ऐसे में वह छात्र जिसने अपने जीवन के महत्वपूर्ण व निर्णायक वर्ष, उच्च शिक्षा शोध में लगाए, जिसने जीवन भर शिक्षक बनने का सपना देखा, गंभीरता से पढ़ाई की, उसके रोजगार पर संकट आएगा. उसकी इस डिग्री का कोई मोल नहीं रह जाएगा.

कोई भी सरकार अपने देश के प्रत्येक नागरिक को यह नैतिक वचन देती है कि वह उसके लिए अवसर पैदा करेगी लेकिन इस सरकार ने नए अवसर गढ़ना तो दूर, पिछली सरकारों द्वारा तैयार किए गए व्यवस्थित अवसरों को भी देश की जनता से छीनने का काम किया है. शिक्षा संस्थानों में लेटरल एंट्री का यह विधान सरकार के द्वारा इसी अवसर छीनने की प्रवृत्ति को दर्शाता है.

ऐसा आज तक कहीं नहीं देखा गया कि मानकों में इस तरीके से बदलाव किया जाए कि दो मानक समान रूप से वैध हों और एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हों. केंद्र सरकार ने लेटरल एंट्री व्यवस्था के जरिए देश के समक्ष कुछ ऐसी ही स्थिति पैदा कर दी है.

यूजीसी का 2018 का रेगुलेशन यह कहता है कि महाविद्यालयों में अध्यापन की न्यूनतम पात्रता पीएचडी होगी. जबकि लेटरल एंट्री का विधान यह नियम लेकर आता है कि बिना पीएचडी के भी महाविद्यालयों में पढ़ाया जा सकता है. परस्पर विरोधाभासी दोनों नियम कब तक अपने वजूद में रहेंगे, इस अस्थिर मानसिकता वाली सरकार में कह पाना मुश्किल है.


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क्या है सरकार का मकसद?

अब यहां एक प्रश्न यह उठता है कि आखिर इसके पीछे सरकार का मकसद क्या है. इस पर विचार करें तो तीन बातें निकल कर सामने आती है.

पहली बात यह कि लेटरल एंट्री के माध्यम से सरकार अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों को बिना किसी समस्या के देश की उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश दिलाना चाहती है. उसका उद्देश्य शिक्षण से ज्यादा शिक्षा पर नियंत्रण करना है. जैसा कि सब जानते हैं कि शिक्षा विचारधारा की जननी होती है और अगर सत्ता, शिक्षा पर नियंत्रण स्थापित कर ले तो विचारधारा भी नियंत्रित हो जाएगी.

सत्ता में लंबे समय तक बने रहने के लिए किसी भी सरकार के पास दो ही विकल्प होते हैं पहला कि वह विकास पर ध्यान दें और दूसरा यह कि वह जनता की मानसिकता पर नियंत्रण प्राप्त कर ले. इस सरकार ने दूसरा मार्ग चुना है.

इसके साथ ही लेटरल एंट्री विधान अकादमिक माहौल को भी असंतुलित करेगा. पुराने शिक्षक इन ‘पैराशूटी शिक्षकों ‘ के साथ संतुलन स्थापित करने में ही व्यस्त रहेंगे, जिसका परिणाम यह होगा कि सरकार के कार्यों पर बौद्धिक-शिक्षित समाज का ध्यान नहीं जाएगा और सरकार अपनी आलोचना से बची रहेगी.

इस मत की पूरी तरह से उपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि जेएनयू, जाधवपुर, जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के द्वारा की गई बौद्धिक आलोचना और प्रदर्शन से सबक लेते हुए लेटरल एंट्री को लाया गया है. साथ में यह भी संभव है कि लेटरल एंट्री के बाद आने वाले समय में योग्यता का कोई एक नया पैमाना तय किया जाए और अपने विरोधी पक्ष के शिक्षकों को जबरन सेवानिवृत्ति का भय दिखाकर उन्हें अपने पक्ष में करने का भी प्रयास किया जाए.

दूसरी बात यह कि केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति के माध्यम से प्रबुद्ध छात्रों के स्थान पर जो रोबोटिक छात्र तैयार करना चाहती है, उसके लिए यह ‘पैराशूटी शिक्षक’ ब्रांड एंबेसडर का कार्य करेंगे. यह लेटरल प्रोफेसर, ज्ञान के स्थान पर फेस वैल्यू के लिए जाने जाएंगे और शिक्षा जगत, जहां सबसे अधिक मांग परिश्रम की होती है, वहां पर अब रातों-रात वायरल हुआ या स्टार बना व्यक्ति भी भीड़ की डिमांड पर शिक्षक बनाया जा सकता है.

संभव है कि आने वाले समय में हमें ऐसी खबरें सुनने को मिले कि प्रधानमंत्री फलां राज्य के दौरे पर गए और एक गरीब व्यक्ति को सीधा महाविद्यालय का प्रोसेसर बना दिया. इससे सरकार की ये स्वार्थपूर्ति संभव होगी कि वह जनता के बीच यह परसेप्शन बनाने में कामयाब हो जाएगी कि वह आम जनता की सरकार है.

और तीसरी बात जो एक क्रोनोलॉजी की तरफ इशारा करती है जिसे हम सब को समझना चाहिए. लेटरल एंट्री की व्यवस्था अब उच्च शिक्षा संस्थानों को अप्रत्यक्ष रूप से बेचने की प्रक्रिया का सूत्रपात करेगी.

नई शिक्षा नीति के बाद उच्च शिक्षा संस्थानों को सरकार ने वैसे ही संघर्ष करने के लिए बीच मझधार में छोड़ दिया है क्योंकि नई शिक्षा नीति के कारण अब वैसे भी बहुत कम छात्रों के ही उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश लेने की संभावना है, जिससे संस्थानों के अस्तित्व पर संकट आएगा जिसका परिणाम यह होगा कि कॉलेज अपने अस्तित्व को बचाने के लिए बोर्ड ऑफ गवर्नेंस में कॉरपोरेट जगत के लोगों को लाने के लिए मजबूर हो जाएंगे. ऐसी स्थिति में कॉलेज पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए यही लेटरल एंट्री विधान कॉर्पोरेट की मदद करेगा जिसके माध्यम से कॉरपोरेट्स अपने हित के लोगों को शिक्षक तथा प्रशासक के रूप में नियुक्त कर पाएंगे.

कुल मिलाकर देखा जाए तो नई शिक्षा नीति के बाद लेटरल एंट्री विधान शिक्षा जगत को गहरे संकट में धकेल रही है, जिसका समय रहते आकलन करना और समाधान खोजना जरूरी होगा.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के कार्यकारिणी सदस्य और राजधानी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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