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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतक्या सचमुच तीन यादवों ने ही महिला आरक्षण बिल को रोक रखा था?

क्या सचमुच तीन यादवों ने ही महिला आरक्षण बिल को रोक रखा था?

पहली बार महिला आरक्षण बिल आने के दो दशक से ज्यादा गुजरने के बावजूद आज भी इसे बाधित करने का आरोप सिर्फ तीन नेताओं- लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव पर लगता है.

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देश की 16वीं लोकसभा का कार्यकाल भी महिला आरक्षण का बिल पारित किए बगैर समाप्त हो गया. राज्य सभा में ये बिल पहले से पारित है. इस बिल के पारित होने से लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगे. सिर्फ बीजेपी और कांग्रेस भी चाह लेती तो इसके लिए संविधान संशोधन या अन्य विधायी जरूरतें पूरी हो जातीं. लेकिन ये नहीं हुआ.

हाल में तृणमूल कांग्रेस ने अपनी पार्टी से जितनी महिलाओं को लोकसभा टिकट देने की घोषणा की, उनकी तादात कुल टिकटों के बीच 41 प्रतिशत है. इसी तरह, बीजू जनता दल ने भी अपनी पार्टी से लोकसभा के लिए कुल उम्मीदवारों में से 33 प्रतिशत महिलाओं को देने की बात कही. यह बिना किसी वैधानिक व्यवस्था के अपनी पार्टी के स्तर पर की गई पहलकदमी है. इसके अलावा, राहुल गांधी ने चुनावी सभाओं में यह वादा किया कि कांग्रेस सत्ता में आती है तो वह संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का विधेयक पारित कराएगी.


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संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण मुहैया कराने की कवायदें दो दशक से ज्यादा से वक्त से चल रही हैं. संसद के अलग-अलग सदनों में तमाम कथित कोशिशों के बावजूद आज भी इस मसले पर कोई कानून नहीं बन सका है. बल्कि सच यह है कि अब राजनीतिक पार्टियां महिला आरक्षण विधेयक की चर्चा भी ठीक से नहीं करतीं. लेकिन इस बार अचानक ही कुछ पार्टियों के भीतर महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण देने या फिर बिना आरक्षण के ज्यादा भागीदारी देने का उत्साह कहां से आ गया है?

जहां तक बीजद का सवाल है तो कुछ समय पहले भी इसने महिला आरक्षण के मसले पर काफी सक्रियता दिखाई थी, जब इसके नेता नवीन पटनायक ने सभी सात राष्ट्रीय दलों और पंद्रह क्षेत्रीय दलों के नेताओं के साथ बातचीत की थी. इसके अलावा, उन्होंने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को भी पत्र लिख कर उनसे लोकसभा और देश के सभी राज्यों की विधानसभाओं में 33 फीसदी आरक्षण देने के मामले पर सहयोग करने का अनुरोध किया था.

यह सब दिलचस्प इसलिए है कि महिला आरक्षण बिल का मसौदा 1996 में ही तैयार हो चुका था. उसके बाद अब तक यह संसद में चार बार पेश किया जा चुका है, लेकिन अब तक अपने अंजाम तक नहीं पहुंचा. 2010 में संसद में यह विधेयक सिर्फ राज्यसभा में पारित हो सका. उसके बाद अमूमन हर स्तर पर महिला आरक्षण के सवाल को हाशिये पर बनाए रखा गया. यानी दो दशक से ज्यादा वक्त से महिलाओं के लिए संसद और विधानसभाओं में आरक्षण लागू होने का मामला लटका हुआ है.


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दो दशक से ज्यादा गुजर जाने के बावजूद आज भी महिला आरक्षण को बाधित करने का आरोप सिर्फ तीन नेताओं के नाम जाना जाता है- लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव. जबकि इनमें से दो नेता लालू प्रसाद और शरद यादव अब संसद में नहीं है. मुलायम सिंह की पार्टी में भी अब आधा दर्जन ही सांसद हैं. सरकार को बताना चाहिए कि महिला आरक्षण को अब किसने रोका.

जब भी महिला आरक्षण के बाधित होने का संदर्भ आता है, तब खासतौर पर प्रगतिशील तबकों की ओर से इन्हीं तीन नेताओं को खलनायक के रूप में पेश किया जाता है. इस बीच किन पार्टियों का शासन रहा, सदन में जो समीकरण रहे, सब कुछ जगजाहिर है. फिर भी आज तक महिला आरक्षण को कानून में तब्दील नहीं किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए हमारे समाज के औसत से लेकर प्रगतिशील या बुद्धिजीवी तबके तक किसी अन्य राजनेता या फिर राजनीतिक दलों पर उंगली नहीं उठाते.

सवाल है कि क्या सचमुच उन्हीं तीन नेताओं की वजह से आज भी महिला आरक्षण कानून बनना मुमकिन नहीं हो पाया है? इन नेताओं ने इस विधेयक पर क्या सवाल उठाया था कि उससे संसद में बैठे बाकी सभी दलों ने उस विधेयक को ही ठप कर दिया और महिला आरक्षण के खिलाफ इन तीनों नेताओं को बतौर खलनायक स्थापित कर दिया गया था. बसपा ने भी इन नेताओं के सवालों का समर्थन किया था. दूसरी ओर, संसद में पर्याप्त संख्या बल होने के बावजूद बाकी दलों या उनके किसी भी नेता पर इस तरह के आरोप चस्पा नहीं हुए.

बहरहाल, महिला आरक्षण पर मतभेद सिर्फ यह खड़ा हुआ था कि इसके भीतर पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की जाएं. इस मांग में क्या अनुचित था, यह आज तक साफ नहीं हो सका है. महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले जाने-माने नामों से लेकर स्त्रीवाद के दम से संघर्ष करने वाले तमाम लोगों ने महिला आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था की इस मांग को बेमानी, फालतू और महिला अधिकारों को बाधित करने वाला बताते हैं.

मगर इस रुख के समर्थकों की ओर से यह समझाने की कोशिश नहीं की गई कि अगर महिला आरक्षण के भीतर पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की जाती हैं तो उन सीटों पर जीत कर आने वाली भी महिलाएं ही होंगी या नहीं!

महिलाओं के मिल रहे अधिकारों के सवाल पर बांटने का आरोप लगाने वालों ने यह नहीं बताया कि महिलाओं की दुनिया में जातियों के आधार पर विभाजन है या नहीं! समाज में उच्च कही जाने वाली जातियों की स्त्रियों का मानस और व्यवहार क्या दलित-वंचित जातियों के प्रति ठीक वैसा ही है, जो उनकी अपनी जाति की महिलाओं के प्रति है?


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महिला आरक्षण की मांग का बुनियादी आधार यही है कि पुरुष वर्चस्व की सत्ता और तंत्र ने महिलाओं के साथ न्याय नहीं किया है, उनके अधिकार हड़पे हैं. इस बेईमानी की व्यवस्था में पुरुषों ने योग्यता और क्षमता की बेमानी दलील के साथ ही वर्चस्व और सत्ता बनाए रखा और महिलाओं को वंचित रखा. इस स्थिति में बदलाव की गुंजाइश तभी है जब सत्ता और तंत्र में महिलाओं की उचित भागीदारी हो, क्योंकि भारत का पुरुष मानस अपनी ओर से स्त्रियों को बराबरी का उनका अधिकार सौंप कर अपनी सत्ता नहीं गंवाना चाहेगा.

लेकिन ठीक यही दलील जातिगत सत्ता के ढांचे पर भी लागू होता है. यह कल्पना भी अफसोस और शर्म पैदा करती है कि अगर भारत में एससी-एसटी-ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं होती तो समूचे तंत्र में ये तबके कहां होते. आज भी जब आरक्षण लंबे समय से लागू है, तब भी सत्ता और तंत्र में इन वर्गों के लोगों की भागीदारी का आंकड़ा बेहद शर्मनाक है. आखिर यह कड़वी तस्वीर किन वजहों से है? तो उच्च जातियों की नुमाइंदगी करने वाला नेतृत्व तबका यह क्यों समझने को तैयार नहीं है कि महिला आरक्षण में भी अगर दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्गों के लिए विशेष व्यवस्था नहीं की जाती है तो उसका अंतिम प्रभाव किस रूप में सामने आएगा?

क्या यह किसी से छिपी बात है कि सार्वजनिक जीवन और गतिविधियों में समाज के किन तबकों की महिलाओं को अवसर मिल सका है और वही शिक्षा, रोजगार और बाकी क्षेत्रों में आगे और सक्रिय हैं? और जब संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण के नाम पर महिलाओं के लिए अवसर पैदा होने की बात होगी तो वह किन जातियों की महिलाओं तक सिमट कर रह जाएगी?

पिछले कुछ सालों के दौरान एससी-एसटी-ओबीसी के लिए नौकरियों और उच्च शिक्षा में किए गए आरक्षण की व्यवस्था के साथ जिस तरह का खिलवाड़ किया गया है, उसकी मंशा पर नजर डालें तब समझ में आता है कि वंचित जातियों-तबकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कैसे और क्यों समाज की सत्ताधारी जातियों-तबकों की आंख की किरकिरी बनी हुई है. सिर्फ यही एक जरिया रहा है, जिसकी वजह से नौकरियों और उच्च शिक्षा में कहीं दलित और पिछड़ी जाति के चेहरे भी दिख जाते हैं.

लेकिन ऐसा लगता है कि भारत में सत्ताधारी जातियां अपने सामूहिक हितों को लेकर इस हद तक स्वार्थी और अन्याय की हद तक जाने की प्रवृत्ति वाली हैं कि वे शिक्षा, रोजगार, सत्ता, तंत्र आदि जगहों पर अपने एकाधिकार को बनाए रखने के लिए वंचित समूहों को उनके अधिकारों से भी महरूम कर देने की कोशिश करती हैं. 13 पॉइंट रोस्टर, कथित गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण, नौकरियों और दाखिलों में आरक्षण के प्रावधान की अनदेखी, ‘सामान्य’ या ‘अनारक्षित’ वर्ग को व्यवहार में अघोषित रूप से सवर्ण तबके के लिए आरक्षित करने जैसी तमाम कवायदें एक सुनियोजित या सुचिंतित योजना पर अमल के संकेत देती हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि अगर महिलाएं नीति-नियामक समूहों में पर्याप्त संख्या में मौजूद रहेंगी, तो उसका सीधा असर विधायिका में बनने वाली नीतियों, नियमों, कानूनों और जनता को लक्षित सभी फैसलों पर पड़ेगा. ठीक इसी तरह अगर समाज की वंचित जातियों की महिलाओं की वाजिब भागीदारी भी यही असर लाएगी. महिलाओं और दलित-पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यक या दूसरे वंचित समूहों के लिए आरक्षण का मकसद और हासिल एक ही और एक समान नतीजे वाला होना चाहिए.


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सिर्फ इस दलील का कोई औचित्य नहीं रह गया है कि संविधान में जनप्रतिनिधित्व के मसले पर ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं है. यह दलील देते हुए याद रखा जाना चाहिए कि आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के नाम पर सवर्ण जातियों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था को महज तीन दिन में पूरा कर लिया गया. आबादी के मुकाबले इतना ज्यादा आरक्षण देने लिए कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं थी. जब सवर्ण जातियों को 10 प्रतिशत देने के लिए आनन-फानन में संविधान संशोधन किया जा सकता है कि महिला आरक्षण के भीतर पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों को आरक्षण के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता?

ऐसे में अचानक ही महिला आरक्षण को लेकर जगे नए उत्साह का स्वागत करने के साथ-साथ यह अध्ययन का विषय होगा कि कुछ पार्टियां अगर अपनी ओर से की गई पहलकदमी के तहत अपनी पार्टी की कुल उम्मीदवारी में से 33 फीसद या 41 फीसद टिकट महिलाओं को दे रही हैं, तो उन महिलाओं की सामाजिक और जातिगत पृष्ठभूमि क्या है. जितनी भी महिलाएं संसद या विधानसभा में पहुंच सकेंगी, उनके सामाजिक वर्ग की पहचान ही यह तय करेगी कि महिला आरक्षण अपने मकसद में कितना कामयाब है या फिर यह सत्ताधारी सवर्ण जातियों का वर्चस्व कायम करने वाला एक और ‘प्रोग्राम’ है!

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं.)

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