आजाद भारत के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल ने 1950 में ये चेतावनी दी थी कि चीन भारत के लिए बड़ी मुसीबत बनने जा रहा है. उन्होंने कहा था कि भारत को पाकिस्तान के अलावा चीन को लेकर भी सख्त रणनीति अपनाने की जरूरत है लेकिन उनकी बात उस समय नेहरू ने नहीं सुनी. उनकी सलाह पर आज के हुक्मरान भी अमल नहीं कर रहे हैं.
आजाद भारत में विदेश नीति के मामलों में जवाहरलाल नेहरू के आगे किसी की भी सुनी नहीं जाती थी. उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा हो चुका था कि उनकी गलतियों की ओर अव्वल तो किसी का ध्यान नहीं जाता था और अगर किसी को बात समझ में आ भी जाती थी, तो वह चुप ही रहता था. (आज भी राजनीतिक माहौल इसी प्रकार का है). इस वजह से नेहरू की नीतियों को लेकर संशोधन की गुंजाइश कम होती थी. इसका सबसे बड़ा खामियाजा 1962 में उठाना पड़ा जब चीन ने भारत को जंग के मैदान में शिकस्त दी.
चीन नीति को लेकर नेहरू और पटेल में मतभेद
स्वतंत्रता के पहले से ही जवाहरलाल नेहरू की दिलचस्पी विदेश मामलों में थी. वह विदेश के तमाम राजनयिकों व अन्य लोगों से संवाद करते थे और तमाम देशों की यात्राएं करते थे. 1939 की गर्मियों में वह चीन की यात्रा पर गए. उनके चीन के नेता चियांग काई शेक के साथ मित्रवत संबंध थे. दोनों में पत्र व्यवहार होते थे और नेहरू का मानना था कि ‘दोनों देश भविष्य की ओर एक साथ बढ़ रहे हैं.’ जब वह प्रधानमंत्री बने तो विदेश मंत्रालय का प्रभार भी उन्हीं के पास था. सितंबर 1946 में एक रेडियो संदेश में उन्होंने कहा कि भारत के भविष्य के लिए अमेरिका, चीन और सोवियत संघ अहम हैं. (इंडिया आफ्टर गांधी- रामचंद्र गुहा, पेज 152 पिकाडोर पब्लिकेशन 2007)
वहीं सरदार वल्लभ भाई पटेल के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. चीन में माओत्से तुंग के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी के पूरे चीन पर कब्जा करने के पहले 1949 की गर्मियों में ही उन्हें चिंता होने लगी थी. पटेल ने नेहरू को 4 जून 1949 को पत्र लिखा, ‘हमें सिक्किम के साथ तिब्बत में अपनी स्थिति मजबूत करनी चाहिए. हमें इन्हें कम्युनिस्ट ताकतों से दूर रखना ही बेहतर होगा. तिब्बत लंबे समय से चीन से अलग रहा है. मुझे लगता है कि जैसे-जैसे कम्युनिस्ट अपने को शेष चीन में स्थापित कर लेंगे, वे इनके स्वायत्त अस्तित्व को नष्ट करने की कोशिश करेंगे. आपको ऐसी स्थिति में तिब्बत को लेकर अपनी नीति पर सावधानी से विचार करना चाहिए और अभी से इसके लिए तैयारियां करनी चाहिए.’
इसके पहले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने नेहरू को पत्र लिखकर माओ के उभार से हांगकांग में हो रही दिक्कतों के सिलसिले में पत्र लिखा था. उसके बारे में भी पटेल ने कहा कि अगर जरूरत हो तो उसके जवाब का मसौदा बनाने में मैं मदद करने को तैयार हूं. वल्लभ भाई जहां चीन को लेकर भारत की नीति बनाने के सिलसिले में उत्सुक थे, वहीं नेहरू ने मदद की जरूरत नहीं समझी. उन्होंने पटेल को अगले दिन जवाब में लिखा, ‘हांगकांग के बारे में एटली को जवाब भेजा जा चुका है. मैं उसे आपको भेज दूंगा. बहरहाल चीन में कम्युनिस्ट विदेशियों के साथ बहुत अच्छा व्यवहार कर रहे हैं और यहां तक कि कारोबार भी कुछ हद तक चल रहा है. (पटेल, ए लाइफ – लेखक राजमोहन गांधी, पेज 509 नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद मई 2017)
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नेहरू की चीन नीति को लेकर विरोधी स्वर
पटेल ही नहीं, इसके दो साल पहले भारत में रह रहे सेना के जनरल ब्रिटन ने भी कहा था कि ‘चीन तिब्बत पर कब्जा करे, उसके पहले भारत को इस पठार पर कब्जा करने की तैयारी कर लेने की जरूरत है.’ उस समय तक भारत और तिब्बत का संबंध नई दिल्ली और ल्हासा के बीच हुए समझौतों से संचालित होता था. आध्यात्मिक देश तिब्बत अलग इकाई के रूप में काम कर रहा था और भारत को विशेष कूटनीतिक संबंधों का लाभ था. दलाई लामा उस समय 15 साल के थे. तिब्बत की स्वायत्तता उत्तर में भारत को बड़ी सुरक्षा दे रहा था.
इतिहासकार केएम पणिक्कर उस समय चीन में भारत के राजदूत थे. मई में पणिक्कर को माओत्से तुंग से मिलने की अनुमति मिल गई. पणिक्कर ने पाया कि ‘माओ सहृदय व्यक्ति हैं और उनके आंखों से करुणा झलकती है. उनकी आंखों और चेहरे पर कहीं कोई निर्दयता नहीं है.’
(इंडिया आफ्टर गांधी- रामचंद्र गुहा, पेज 167 पिकाडोर पब्लिकेशन 2007)
विदेश मंत्री के रूप में नेहरू के चीन के बारे में विचार और उनके प्रतिनिधि पणिक्कर की माओ से मुलाकात के महज 5 महीने बाद चीन ने तिब्बत पर धावा बोलकर कब्जा कर लिया. नेहरू के प्रिय राजदूत को कब्जे जानकारी तब मिली, जब ऑल इंडिया रेडियो ने समाचार दिया.
चीन का तिब्बत पर कब्जा और पटेल की प्रतिक्रिया
पटेल उस समय अहमदाबाद में थे और अपना 75वां जन्मदिन मना रहे थे. उन्होंने अहमदाबाद में कहा कि चीन ने एक देश के खिलाफ आक्रामकता दिखाई है. कैबिनेट मंत्री सी राजगोपालाचारी और विदेश सचिव गिरिजा शंकर वाजपेयी भी चीन के खिलाफ थे. दिल्ली लौटने के बाद पटेल ने नेहरू को 7 नवंबर 1950 को खत लिखकर कहा, ‘चीन ने हमें शांतिपूर्ण रुख दिखाकर धोखा दिया है. मेरे विचार से चीन की अंतिम कार्रवाई विश्वासघात है. इसमें त्रासद यह है कि तिब्बत हम पर पूरा भरोसा करता है. वह हमसे संचालित होते हैं. हम उन्हें चीन के प्रभाव से निकालने में पूरी तरह विफल हुए हैं.’
पटेल ने आगे लिखा, ‘सदियों बाद पहली बार भारत के सामने ऐसी स्थिति आई है कि भारत को एक साथ दो मोर्चों पर निपटना है. मेरी गणना यह कहती है कि अब पाकिस्तान के साथ हमें उत्तर और पूर्वोत्तर भारत में कम्युनिस्ट चीन की गतिविधियों पर भी नजर रखनी होगी.’ (पटेल, ए लाइफ– लेखक राजमोहन गांधी, पेज 512 नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद मई 2017)
पटेल ने कहा कि चीन की ओर से नया और बड़ा खतरा आ गया है और भारत को मजबूती से रक्षात्मक कदम उठाने की जरूरत है, क्योंकि चीन धीरे-धीरे तिब्बत पर पूरी तरह काबिज हो जाएगा. उन्होंने तिब्बत के मसले पर मंत्रिमंडल की बैठक बुलाने और तत्काल फैसले लेने की बात कही, लेकिन ना तो पत्र का जवाब मिला, ना कोई बैठक बुलाई गई.
नेहरू ने 18 नवंबर को चीन और तिब्बत के सिलसिले में एक नोट जरूर लिखा, जिसमें पटेल द्वारा उठाए गए मसलों को शामिल किया गया था लेकिन उन्होंने इस संभावना को खारिज किया कि चीन हिमालय से उतरकर भारत पर कभी कोई बड़ा हमला कर सकता है. उन्होंने कहा कि हम तिब्बत को नहीं बचा सकते लेकिन यह संभव है कि हम कूटनीतिक स्तर पर तिब्बत को ज्यादा से ज्यादा स्वायत्तता देने पर विचार करें.
15 दिसंबर 1950 को पटेल का निधन हो गया और चीन को लेकर नेहरू का विरोध करने वाला कोई मजबूत व्यक्ति नहीं था. नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित चीन में भारत की राजदूत बनीं. उन्होंने एक बार माओ और दो बार चाऊ एन लाई से मुलाकात की. उन्होंने अपने भाई को लिखा, ‘माओ प्रभावशाली और विनोदपूर्ण हैं. चाऊ एन लाई एक शानदार राजनेता हैं. हमने साथ में खाया-पिया और संस्कृति और संबंधों पर तब तक बात की, जब तक कि मैं थक नहीं गई.’ (इंडिया आफ्टर गांधी– रामचंद्र गुहा, पेज 170 पिकाडोर पब्लिकेशन 2007)
उसके बाद नेहरू एक बार फिर काल्पनिक संसार में चले गए. हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगा. पंचशील समझौता हुआ और 1959 आते-आते चीन ने दलाई लामा को निर्वासित कर दिया और उसके 3 साल बाद भारत पर हमला कर दिया. कहा जाता है कि नेहरू इस सदमे को झेल नहीं पाए और उनका निधन हो गया.
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पटेल की हर आशंका सही साबित हुई
उसके बाद से लगातार चीन भारत की सीमाओं में हस्तक्षेप कर रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में सबसे ज्यादा चीन की यात्राएं कीं, चीन से व्यापारिक समझौते किए. वहीं डोकलाम से लेकर गलवान घाटी तक चीन चढ़ा हुआ है. वह भारत-चीन के बीच मैकमोहन रेखा को नहीं मानता और उसका कहना है कि वह औपनिवेशिक काल में थोपी गई थी.
भारत सरकार को अभी भी पटेल की बात याद रखने जरूरत है, जो उन्होंने 7 नवंबर 1950 को नेहरू को लिखे पत्र में कहा था, ‘चीन का पुनःसंयोजनवाद और कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद पश्चिमी ताकतों के साम्राज्यवाद या विस्तारवाद से अलग है. चीन ने इसे विचारधारा से जोड़ दिया है, जिससे यह दस गुना ज्यादा खतरनाक हो गया है. वैचारिक विस्तार के छद्मभेष में वह अपने नस्लीय, राष्ट्रीय या ऐतिहासिक दावों को छिपा रहा है.’
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)