लद्दाख की सड़कों ने दशकों से ऐसा नज़ारा नहीं देखा था. एक अजीब-सी ख़ामोशी ने इस शांत और अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर इलाके को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. यह दशकों में पहली बार ऐसा हुआ है और आर्टिकल 370 हटाकर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने के बाद की भी पहली बड़ी घटना है.
दुकानें बंद हैं. सड़कें सुनसान हैं. राज्य द्वारा लगाए गए कर्फ्यू में सुरक्षा बलों की मौजूदगी ने माहौल में ऐसा तनाव भर दिया है, जैसे किसी भी पल फिर से हालात बिगड़ सकते हैं.
बुधवार को चार लोगों की मौत हो गई, जिनमें कारगिल युद्ध में लद्दाख स्काउट्स के साथ लड़ चुके एक पूर्व सैनिक भी शामिल थे. 70 से ज़्यादा लोग घायल हुए, जब भीड़ बेकाबू हो गई और पुलिस ने फायरिंग की. शुक्रवार को, केंद्र ने कार्यकर्ता सोनम वांगचुक को “उकसाने वाले भाषणों” के लिए जिम्मेदार ठहराया और इसके बाद लद्दाख पुलिस ने उन्हें सख्त नेशनल सिक्योरिटी एक्ट (NSA) के तहत गिरफ्तार कर लिया. इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई है, जिससे सूचना का प्रवाह धीमा हो गया है और आगे की किसी भी संभावित लामबंदी पर रोक लग गई है.
इस हफ्ते से पहले, 1980 के दशक के बाद से इलाके में हिंसा नहीं हुई थी. उस समय बौद्ध और मुस्लिम समुदायों के बीच 1989 में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक तनाव भड़के थे. हाल के वर्षों में विरोध प्रदर्शन हुए, लेकिन वे ज़्यादातर शांतिपूर्ण रहे. जब तक कि इस खूनी बुधवार को हालात नहीं बिगड़े.
बुधवार की हिंसा ने लद्दाख के राजनीतिक इतिहास में एक नया मोड़ ला दिया है. जो पिछले चार दशकों में नहीं देखा गया था. और इसी वजह से केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) इस हफ्ते दिप्रिंट का ‘न्यूज़मेकर ऑफ दि वीक’ बना है.
प्रदर्शनकारियों की मांग क्या है
वांगचुक और अन्य लोग 35 दिन की भूख हड़ताल पर थे. वे लंबे समय से राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची का संरक्षण मांग रहे थे. फिर भी, 24 सितंबर को युवाओं ने सड़कों पर उतरकर सरकारी इमारत और स्थानीय भाजपा कार्यालय पर हमला किया और पुलिस की गाड़ियों को आग लगा दी. यह उस गुस्से का विस्फोट था, जो वे सालों से केंद्र की बेरुखी के रूप में देखते रहे हैं.
24 सितंबर को लेह के एनडीएस मैदान में, जहां वांगचुक और अन्य लोगों ने अपना प्रदर्शन किया, 140 से 400 लोग जुटे. इनमें ज्यादातर 18 से 25 साल के युवा थे. कुछ सैनिक भी शामिल हुए. भीड़ एक ही दिन में बढ़कर 5,000 तक पहुंच गई. कहा जा रहा है कि जब भूख हड़ताल में दो बुजुर्गों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा और कई भावुक अपीलें की गईं, तो युवाओं ने सड़कों का रुख किया.
उनका गुस्सा इस हफ्ते भले ही सामने आया हो, लेकिन लामबंदी काफी समय से चल रही थी. इस बार वे तैयार होकर आए थे. अपने लिए और अपने भविष्य के लिए लड़ने. लगभग इस बात के लिए भी तैयार कि उनके कदमों के नतीजे क्या होंगे.
दोनों पक्ष, राज्य और प्रदर्शनकारी, एक-दूसरे को दोष देते हैं. स्थानीय लोग सवाल करते हैं कि क्या फायरिंग वाकई ज़रूरी थी. इस बीच, कई सवालों के जवाब अब भी नहीं मिले हैं. यह हिंसा किसने आयोजित की. इसे कैसे योजनाबद्ध किया गया.
लद्दाख के लोग राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची की मांग कर रहे हैं. उनकी बढ़ती हुई आशंका है कि बाहरी लोग उनकी प्यारी भूमि को खराब कर देंगे. उन्हें डर है कि जलवायु और बिगड़ेगी. वे इस साल की लगातार तीन दिन की भारी बारिश का उदाहरण देते हैं, जो लद्दाख की 52 साल में सबसे ज्यादा मासिक बारिश रही. वे नहीं चाहते कि बाहरी लोग यहां कारखाने लगाएं, व्यावसायीकरण करें और इलाके की प्राकृतिक खूबसूरती को नुकसान पहुंचाएं.
और छठी अनुसूची, जो जनजातीय आबादी के हितों की रक्षा करती है, उन्हें यही सुरक्षा देगी. यह कुछ जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन स्वायत्त जिला परिषदों के हाथ में देता है. इन परिषदों को भूमि और जंगल जैसे क्षेत्रों में कानून बनाने की शक्ति भी होती है.
वे बढ़ती हुई बेरोजगारी के खिलाफ भी प्रदर्शन कर रहे हैं. पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2022-23 की रिपोर्ट बताती है कि लद्दाख की बेरोजगारी दर 6.1 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत 3.2 प्रतिशत से अधिक है. लद्दाख ने 2021-22 और 2022-23 के बीच बेरोजगार स्नातकों की संख्या में भारत में सबसे तेज़ बढ़ोतरी दर्ज की. सिर्फ एक साल में 16 प्रतिशत से अधिक. सरकार ने 2023 में संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में यह जानकारी दी थी.
प्रदर्शनकारी, जिनका नेतृत्व लेह एपेक्स बॉडी कर रही है, जिसमें कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस और अन्य सामाजिक, धार्मिक और नागरिक समूह भी शामिल हैं, अलग-अलग मांगें कर रहे हैं. इनमें लेह और कारगिल जिलों के लिए अलग लोकसभा सीटें और स्थानीय लोगों के लिए नौकरी में आरक्षण शामिल हैं.
अनिश्चित भविष्य
लद्दाख की राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची की मांगों की जड़ें गहरी हैं. आर्टिकल 370 के हटने और केंद्रीय शासित प्रदेश का दर्जा मिलने के बाद स्थानीय लोग खुश हुए थे. लेकिन उनकी खुशी ज़्यादा दिन तक नहीं टिक सकी. उन्हें जल्दी ही एहसास हुआ कि उनकी राज्य-स्थिति और छठी अनुसूची की माँगें अधर में छोड़ दी गई हैं.
अब उन्हें पहले से भी ज़्यादा धोखा महसूस हो रहा है. वांगचुक, फुन्तसोग स्टान्जिन तेसेपाग, स्मनला डोर्जे नुर्बू, स्टान्जिन चोपेल और रिगज़िन डोरजै जैसे नेताओं की भावनात्मक अपीलों ने युवाओं तक असर पहुंचाया. युवा बड़ी संख्या में सड़कों पर निकले और बीजेपी नेतृत्व वाले केंद्र के प्रति अपनी आक्रोश दिखाने के लिए आगे आए. उन्होंने संदेश देना चाहा कि वे चुप नहीं रहेंगे.
लेकिन अब जब उनके आंदोलन के मुखिया NSA के तहत बंद कर दिए गए हैं, तो आंदोलन का भविष्य अस्थिर दिखता है. इसके अलावा, परिवार अब अपने बेटों को घर पर ही रखने की बात कर रहे हैं क्योंकि भय बना हुआ है. अगली बार वे ही मरे हुए, अपाहिज या बंदी हो सकते हैं, जैसे अब पुलिस हिरासत में 40 अन्य हैं.
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