भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने इस साल के शुरू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे अपने तीन पत्रों में से एक में लिखा था कि ‘लंबित मामलों की निरंतर बढ़ती संख्या का एक प्रमुख कारण है हाईकोर्टों में पर्याप्त संख्या में जजों का नहीं होना. इस समय 399 पद या कुल स्वीकृत पदों में से 37 प्रतिशत रिक्त पड़े हैं.’
पर पुलिस के पास लंबित मामलों की अनदेखी करते हुए पत्र में समस्या के सिर्फ एक पहलू का उल्लेख किया गया था. यदि जांच के लिए लंबित मामलों को पुलिस प्रभावी ढंग से निपटा सके तो विचाराधीन आपराधिक मामलों की संख्या काफी हद तक कम की जा सकेगी.
आमतौर पर पुलिस जांच में तेजी लाने के लिए सुझाया जाने वाला समाधान होता है स्वीकृत पुलिस क्षमता को पूरा करने के लिए रिक्त पदों को भर डालना. पर यह रवैया इस तथ्य को नजरअंदाज़ करता है कि एक संभावना ज़रूरत के मुकाबले कहीं कम संख्या में पद स्वीकृत किए जाने की भी हो सकती है.
यह भी पढ़े: न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को गोगोई ने लिखा पत्र
पुलिस बलों में इस संख्यात्मक कमी को समझने के लिए हमने राज्यों में स्वीकृत पदों के मुकाबले पुलिसकर्मियों की असल संख्या और लंबित मामलों का हिसाब लगाकर देखा. हमने अध्ययन के लिए उन राज्यों को चुना जहां जांच के लिए सर्वाधिक संख्या में मामले लंबित हैं. इन 10 राज्यों में भारत के कुल लंबित जांच मामलों में से दो तिहाई से अधिक मौजूद हैं.
इस तालिका से पता चलता है कि असम और महाराष्ट्र में पुलिस के 80 फीसदी या अधिक पद भरे होने के बावजूद वहां क्रमश: 63 प्रतिशत और 41 प्रतिशत मामले लंबित हैं. वहीं उत्तर प्रदेश में पुलिस के मात्र 67 प्रतिशत पद ही भरे होने के बाद भी लंबित जांच मामलों की संख्या मात्र 19 प्रतिशत है. तमिलनाडु में स्वीकृत पदों के मुकाबले पुलिसकर्मियों का अनुपात उत्तर प्रदेश जैसा ही है, पर वहां उससे दुगुने यानि 39 प्रतिशत मामले लंबित हैं. केरल और मध्यप्रदेश में पुलिस के स्वीकृत पदों में से 80 प्रतिशत से अधिक भरे हुए हैं और लंबित मामलों की दर बहुत कम क्रमश: 12 प्रतिशत और 6 प्रतिशत है.
यानि संक्षेप में कहें, तो इन दो कारकों – भरे हुए स्वीकृत पद और लंबित मामलों की दर – में कोई पारस्परिक संबंध नहीं है; हालांकि, आदर्श स्थिति में इनके बीच विपरीत संबंध होने चाहिए थे.
तीन महत्वपूर्ण तथ्य
पुलिस बल की संख्या और लंबित मामलों के बीच असंतुलन को इन तीन तथ्यों के सहारे समझा जा सकता है. सबसे पहले, स्वीकृत पुलिस बल का अनुमान लगाने का तरीका अवास्तविक है. हर राज्य आबादी, जनसंख्या घनत्व, आपराधिक घटनाओं, सांप्रदायिक स्थिति, शहरीकरण का स्तर आदि के आधार पर खुद अपने स्तर पर पुलिस की स्वीकृत संख्या तय करता है.
हालांकि, इस आकलन में ये भी माना जाता है कि पुलिसकर्मी चौबीसों घंटे, सातों दिन ड्यूटी पर रहेंगे – जोकि स्पष्टतया अतार्किक है. इस अतार्किक अपेक्षा का मतलब ये भी हुआ कि पुलिसकर्मी पर काम का अतिरिक्त बोझ रहता है, और इसलिए वे अप्रभावी साबित होते हैं. सरकारी संस्था ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट के 2014 के एक अध्ययन में पुलिस थानों के लिए मौजूदा स्वीकृत पुलिस संख्या में 50 प्रतिशत या 3,37,500 पुलिसकर्मियों की बढ़ोत्तरी की सिफारिश की गई थी. इसमें रोजाना 8 घंटे की शिफ्ट के आधार पर गणना की गई थी यानि मौजूदा अपेक्षा से 16 घंटे कम. आश्चर्य नहीं कि अध्ययन का एक निष्कर्ष ये भी था कि पुलिस थाने के कर्मचारी रोजाना 8 घंटे से अधिक काम करते हैं.
राज्यों को निश्चय ही पुलिस बल का आकार बढ़ाने की ज़रूरत है, पर महाराष्ट्र और असम जैसे राज्यों को स्वीकृत पुलिस क्षमता का नए सिरे से आकलन करने की ज़रूरत हो सकती है क्योंकि वहां पुलिसकर्मियों की संख्या अधिक होने के साथ ही लंबित मामलों की संख्या भी अधिक है.
यह भी पढ़े: न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले पर क्यों करनी पड़ी केंद्र के दखल की शिकायत
दूसरी बात, भारतीय विधि आयोग की 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार पुलिस के पास लंबित मामलों की बड़ी संख्या की एक वजह जांच कार्य की कमज़ोर गुणवत्ता है. इसका निदान पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ाने भर से नहीं हो सकता. बजाय इसके, उनकी भूमिकाओं के पृथक्कीकरण और सुव्यवस्थित करने की ज़रूरत है.
पुलिस से जांच कार्य, अपराधों की रोकथाम, कानून-व्यवस्था बहाल रखने, कानूनों को लागू करने, आपातकालीन और चुनावी जिम्मेदारियां निभाने जैसे अनेकों काम करने की अपेक्षा की जाती है. प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कानून-व्यवस्था और जांच कार्य की जिम्मेदारियों को अलग किए जाने का निर्देश दिया था. पर इसे पूरे भारत में लागू नहीं किया गया है. यह कार्य विभाजन नहीं होने से जांच प्रक्रिया प्रभावित होती है.
स्थिति को बदतर बनाती है प्रौद्योगिकी की अपर्याप्त उपलब्धता और आवश्यक बुनियादी सुविधाओं की कमी. ये बात उल्लेखनीय है कि 2017 में 21 प्रतिशत आपराधिक मामले बिना जांच के ही बंद कर दिए गए थे. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक इन वैध मामलों में से करीब तीन चौथाई के बंद होने का कारण था अपर्याप्त या अप्राप्य साक्ष्य.
तीसरा तथ्य, हमारे फील्डवर्क और सर्वेक्षणों पर आधारित है. हमने पाया कि जांच कार्य का प्रशिक्षण ना सिर्फ आवश्यक है बल्कि नवनियुक्त पुलिस अधिकारी इसकी ज़रूरत भी महसूस करते हैं. पुलिसकर्मियों को लगता है कि प्रशिक्षण के दौरान पुलिस कार्य के व्यावहारिक पक्ष पर अधिक ज़ोर नहीं दिया जाता है. इस ज़रूरत को पूरा करने से जांच कार्य की गुणवत्ता सुधर सकती है.
प्रस्तावित राष्ट्रीय पुलिस विश्वविद्यालय की स्थापना इस दिशा में एक उचित कदम साबित हो सकता है, जोकि संसद के शीतकालीन सत्र के एजेंडे में भी था. इसका उद्देश्य है भावी पुलिस अधिकारियों को पुलिस कार्य, आंतरिक सुरक्षा, साइबर अपराध, अपराध विज्ञान और फोरेंसिक विज्ञान जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षण देना. यह प्रस्ताव पुलिस प्रशिक्षण की खराब गुणवत्ता को सुधारने की दिशा में एक आवश्यक पहल है.
संरचनात्मक कमियों को पूरा करना
इन सारी दलीलों से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अपवाद ये है कि जांच की अवधि और प्रयास का स्तर अपराध की प्रकृति पर भी निर्भर करता है. पर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की दो वर्षों बाद आई 2017 की नवीनतम रिपोर्ट लंबित जांच कार्यों को राज्यवार अपराध और अवधि के खांचों में नहीं बांटता है, जिससे स्थिति का तुलनात्मक विश्लेषण संभव नहीं है. साथ ही, भारतीय विधि आयोग के अनुसार, लंबित मामलों की संख्या पर जाने-माने लोगों से जुड़े मामलों में पुलिस की हिचकिचाहट और भ्रष्टाचार का भी असर पड़ता है. इस संरचनात्मक कमियों को दूर करने पर लंबित मामलों की मौजूदा स्थिति में काफी सुधार हो सकता है.
यह भी पढ़े: न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले पर क्यों करनी पड़ी केंद्र के दखल की शिकायत
जमीनी स्तर की वास्तविकताओं पर एक सरसरी नजर डालने भर से पता चल जाता है कि केवल वास्तविक पुलिस संख्या और राज्य द्वारा स्वीकृत पुलिसकर्मियों की संख्या के बीच अंतर को कम करना मात्र ही समुचित समाधान नहीं है. इसके लिए ज़्यादा मानवीय कार्य अवधि निर्धारित करने और पुलिस कार्यों को सुव्यवस्थित करने के बाद स्वीकृत पुलिस क्षमता की पर्याप्तता का पुनर्आकलन करने की ज़रूरत है. लंबित मामलों के राज्यवार और अपराध के हिसाब से वर्गीकरण के आंकड़े भी समस्या के समाधान में सहायक साबित हो सकते हैं.
बेहतर डेटा के साथ-साथ पुलिस प्रशिक्षण को नए सिरे से व्यावहारिक नज़रिए से देखे जाने की भी आवश्यकता है. यह अंततः एक अधिक शिक्षित और कुशल पुलिस बल और प्रभावी आपराधिक न्याय प्रणाली की बुनियाद बन सकेगा.
( दोनोंलेखिका प्रिया वेदवल्ली और त्वेशा सिप्पी आईडीएफसी इंस्टीट्यूट में क्रमश: एसोसिएट और वरिष्ठ विश्लेषक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)