जब नरेश पधारते हैं, प्रजा झुककर उनका स्वागत करती है. नेपाल में 9 मार्च को यही हुआ जब पूर्व नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र शाह पोखरा से काठमांडू पधारे. लोगों ने उनके समर्थन में नारे लगाए और जुलूस निकाला. इन गाजे-बाजों और गर्जनों से अटकलें तेज हो गई हैं कि नेपाल में राजशाही फिर वापस आएगी.
आज नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र है और राजशाही एक बीती याद बन चुकी है. काठमांडू शहर के बीच खड़ा नारायणहिती शाही राजमहल आज एक संग्रहालय बन चुका है, जहां कुछ सुरक्षा गार्ड तैनात हैं. जो लोग राजशाही के समृद्ध इतिहास का अनुभव लेना चाहते हैं वह टिकट खरीदकर अंदर जा सकते हैं.
पूर्व नरेश का कोई अधिकृत क्षेत्र नहीं है क्योंकि संविधानसभा ने 2008 में राजतंत्र को खत्म कर दिया था. ज्ञानेंद्र की कोई गद्दी नहीं है और न उनका कोई भव्य महल है जहां से वे कोई आदेश जारी कर सकें. वे काठमांडू के बाहरी इलाके में महाराजा की पुरानी हवेली में रहते हैं.
अटकलों का बाज़ार गर्म क्यों?
नेपाल के शाही शासकों को एक समय हिंदू देवता विष्णु का अवतार माना जाता था. इसलिए पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र को बहुसंख्य हिंदू आबादी का समर्थन हासिल हो सकता है. तमाम अटकलों से यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि उनके कई समर्थक उन्हें उम्मीद की एक किरण के रूप में देखते हैं. लोगों का मानना है कि राजशाही देश में राजनीतिक स्थिरता बहाल कर सकती है, जो नेपाल में एक सपना सा रह गया है क्योंकि सभी राजनीतिक दल सत्ता चाहते हैं, कोई विपक्ष में नहीं रहना चाहता, लेकिन 3 करोड़ की आबादी वाले देश के में राजशाही की वापसी को परिमाणित समर्थन मुश्किल है.
पूर्व नरेश के स्वागत के लिए त्रिभुवन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर करीब 10 हज़ार लोग जमा थे, लेकिन यह देश की आबादी का बेहद छोटा हिस्सा ही है और इसे देश में बदलती हवा का संकेत शायद ही माना जा सकता है. सोशल मीडिया पर लोकप्रिय हस्तियों और राजशाही समर्थकों की ओर से चलाई गई मुहिम से हलचल तो पैदा हो सकती है, लेकिन व्यापक प्रचार या राजनीतिक समर्थन के बिना राजशाही की वापसी की संभावना नहीं है.
व्यवस्था से निराशा
1950 के दशक में आधुनिक नेपाल के उभार के बाद से यह देश पारंपरिक राजतंत्र से लेकर पंचायत राज, संवैधानिक राजशाही और अब संघीय लोकतंत्र तक कई राजनीतिक व्यवस्थाओं से गुज़र चुका है. राजशाही ने वंशगत उत्तराधिकार के ज़रिए स्थिरता तो कायम की थी, लेकिन विकेंद्रीकरण के अधिकार के बावजूद लोकतंत्र को मजबूती नहीं मिली. केवल 17 साल के भीतर नेपाल ने 13 सरकार, इतने ही प्रधानमंत्री और 20 से ज्यादा उप-प्रधानमंत्री और इतने मंत्री देख लिए कि पूर्व मंत्रियों की ही एक पार्टी बन सकती है.
कभी सत्तातन्त्र और राजशाही के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाले माओवादियों ने 2008 में नेपाल में हुए पहले लोकतांत्रिक चुनाव में जीत हासिल की, लेकिन माओवादी नेता पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड जो चुनावी जीत के बाद प्रधानमंत्री बने, लेकिन पूर्व माओवादी लड़ाकों को नेपाली सेना में शामिल करने के मुद्दे पर तत्कालीन सेनाध्यक्ष रुकमानगुड से बवाल के चलते प्रचंड ने एक साल के अंदर ही इस्तीफा दे दिया. तब से लेकर आज तक नेपाल में राजनीति और सरकारी शासन अस्थिर बना हुआ है.
आज माओवादी नेता प्रचंड, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी-एमाले के नेपाल के नेता और मौजूदा प्रधानमंत्री खड़का प्रसाद ओली, नेपाली कांग्रेस नेता शेर बहादुर देउबा, मधेसी पार्टियों के तमाम बिखरे नेताओं और राष्ट्रीय स्वंत्रता पार्टी नेता रबि लमिछने जैसे नए नेताओं के बीच सत्ता के लिए संघर्ष चल रहा है. इस संघर्ष में बड़ा मुद्दा यह है कि कोई भी विपक्ष में नहीं बैठना चाहता, चाहे उसे राजनीतिक जनादेश मिला हो या नहीं. 2022 में हुए चनाव के बाद माओवादी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड के पास पर्याप्त संख्याबल ना होने के बादजूद भी, प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस के साथ सरकार बनाने में सफलता हासिल की थी और मजे की बात यह थी कि नेपाली कांग्रेस के पास सीटों की संख्या माओवादियों से ज़्यादा थी.
नेपाल में लोकतंत्र 2006 में माओवादी बगावत में और जनआंदोलन में हज़ारों लोगों की जान की कीमत चुकाने के बाद आया, लेकिन राजनीतिक दल जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रहे हैं, चाहे वह आर्थव्यवस्था के मोर्चे पर हो या बेरोज़गारी, शिक्षा समाजसेवा के मोर्चे पर. वर्तमान नेतृत्व से निराशा ने राजतंत्र को बेहतर विकल्प के रूप में देखने की चर्चाओं को तेज़ किया है. कहा जा रहा है कि पारिवारिक झगड़ों के बावजूद राजशाही ने स्थिरता तो दी थी.
वर्ष 2001 में जब राजकुमार दीपेंद्र ने पारिवारिक विवाद के कारण विवादास्पद तौर से नेपाल नरेश और अपने पिता बीरेंद्र, महारानी ऐश्वर्या और शाही परिवार के कुछ दूसरे सदस्यों की हत्या कर दी थी तब जाकर ज्ञानेंद्र सिंहासन पर बैठे थे. ज्ञानेंद्र दो दशकों तक विवादों में घिरे रहे और उनका नाम इन हत्याओं के कथित सूत्रधार के तौर पर लिया जाता रहा. इस बीच, 2006 के आपातकाल के दौरान उनके निरंकुश शासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों ने जनता के अविश्वास को और गहरा कर दिया.
इसलिए, राजतंत्र में आस्था ही नरेश के रूप में ज्ञानेंद्र की वापसी के वास्ते बहुमत का समर्थन जुटाने के लिए पर्याप्त नहीं होगी.
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राजा चुनाव नहीं लड़ा करते
राजशाही की वापसी का एक विकल्प यह है कि ज्ञानेंद्र चुनाव लड़ें. हालांकि, इस विकल्प पर काफी वक्त से सोचा जा रहा है, लेकिन ज्ञानेंद्र पूर्व नरेश बने हुए हैं और इससे जुड़ी सांस्कृतिक तथा पारंपरिक हैसियत बनाए हुए हैं, उन्हें ईश्वर से जुड़ा माना जाता रहा है. वे संसद में शायद आम लोगों के साथ नहीं बैठना चाहेंगे. इतिहास भी यही कहता है कि राजा चुनाव नहीं लड़ा करते.
लेकिन ज्ञानेंद्र अगर राजशाही समर्थक राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी (आरपीपी) जैसी पार्टियों से जुडते हैं और 2027 के आम चुनाव में अपने लिए संसद में सीटें जीतने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं तो वह नेपाल की भावी सरकार के गठन में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. दुर्भाग्य से आरपीपी में नेतृत्व का संकट पैदा हो गया है और हाल के वर्षों में उसकी एकता में कमी आई है.
दिलचस्प बात यह है कि खबरों के मुताबिक, ज्ञानेंद्र के कुछ समर्थक भारत से समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इसे सिर्फ अटकलें ही माना जा सकता है.
नेपाल एक स्वतंत्र देश है और उसकी जनता ने लोकतंत्र को चुना है. इसलिए भारत वहां किसी का पक्ष ले इसकी कोई वजह नहीं हो सकती. भारत के रणनीतिक हित नेपाल की मजबूती और उसके सहयोग से ही सध सकते हैं, उसके आंतरिक मामलों में दखल देकर नहीं.
दस वर्ष चले माओवादी आंदोलन और जानता के राजा ज्ञानेंद्र के निरंकुश शासन के बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई और ऐसे में राजा का वापस आना किसी भी तरीके से असंभव है, लेकिन नेपाल के मौजूदा शासकों के लिए यह एक सोचने को मजबूर कर देने वाली बात है की अगर वह राजनीतिक स्थरता लाने में नाकाम होते हैं तो जो आंदोलन कभी लोगों माओवादियों और जानता ने निरंकुश राजा के खिलाफ किया था वैसा ही कुछ फिर कुछ लोकतांत्रिक नुमाइंदों के खिलाफ भी हो सकता है। यह भी ध्यान देने की बात है की यह आवाज़ें पूर्व राजा ज्ञानेंद्र के समर्थन में नहीं बल्कि राजशाही के समर्थन में हैं जिसके प्रति लोगों की आस्था हमेशा से रही है.
(ऋषि गुप्ता नई दिल्ली के एशिया सोसायटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के सहायक निर्देशक हैं. वे एशिया-प्रशांत क्षेत्र के मामलों, रणनीतिक हिमालय और दक्षिण एशिया की भू-राजनीति जैसे विषयों पर लिखते रहे हैं. उनका एक्स हैंडल @RishiGupta_JNU है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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