पूरे उत्तर भारत में कर्पूरी ठाकुर (1921-1988) एक ऐसे समाजवादी नेता के रूप में याद किये जाते हैं, जिनकी कथनी और करनी में कोई फर्क नही था. उनकी सादगी और ईमानदारी का लोहा उनके राजनीतिक विरोधी भी मानते थे. जो लोग राजसत्ता में होते हैं, मंत्री-मुख्यमंत्री बन जाते हैं, वे प्रायः जनता से दूर हो जाया करते हैं, लेकिन कर्पूरी ठाकुर अपवाद थे. वह हरदम भीड़ से घिरे होते थे. उन्हें भीड़ का आदमी कहा जाता था.
आज जिस सामाजिक न्याय की चर्चा पूरे देश में हो रही है, उसे उत्तर भारत में विकसित करने का श्रेय कर्पूरी ठाकुर को जाता है. दक्षिण भारत में जो महत्व पेरियार रामसामी नायकर और अन्ना दुरै का है, कुछ वैसा ही महत्व उत्तर भारत में राममनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर का है. कर्पूरी ठाकुर उत्तर भारत के अन्ना दुरै थे. समाजवादी राजनीति और चेतना को बिहार जैसे अर्द्धसामंती और पिछड़े प्रान्त में उन्होंने जमीं पर उतारा. यह चुनौती भरा कार्य था. लेकिन इसे उन्होंने संभव बनाया था.
उनका जन्म एक गरीब पिछड़े नाई परिवार में हुआ. मुश्किलों के बीच पढ़ाई हुई और फिर पढ़ाई छोड़कर वह स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े. उनका सूबा बिहार स्वाधीनता आंदोलन के साथ अन्य कई तरह के आंदोलनों का केंद्र था. स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में किसानों का मुक्ति संघर्ष चल रहा था, तो पिछड़े वर्गों का त्रिवेणी संघ अभियान भी जारी था. 1934 में पटना में ही जयप्रकाश नारायण के प्रयासों से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की गई थी. 1939 में इस सूबे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की भी स्थापना हो गई थी. ऐसे में स्वाभाविक था कर्पूरीजी वन्दे मातरम छाप स्वाधीनता आंदोलन से न जुड़कर, उद्देश्यपूर्ण समाजवादी समझ वाली आज़ादी की लड़ाई से जुड़े. उनके राजनैतिक संघर्ष का लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना था.
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आज़ादी के बाद सोशलिस्ट लोग कांग्रेस से अलग हो गए. कर्पूरी जी धीरे-धीरे समाजवादी पार्टी और आंदोलन के प्रमुख नेता बने. 1952 में भारतीय गणतंत्र के प्रथम आमचुनाव में ही वह समस्तीपुर के ताजपुर विधान सभा क्षेत्र से बिहार असेम्बली के लिए चुने गए. तब वह इकतीस साल के थे और संभवतः बिहार विधानसभा के सबसे युवा सदस्य थे. संसदीय कार्यकलापों में तो उनने दक्षता दिखलाई ही, समाजवादी आंदोलन को ज़मीं पर उतारने का भी उनने भरसक प्रयास किया.
बिहार के दिग्गज समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बाद बिहार में इस आंदोलन को बचाये रखना और विकसित करना बहुत कठिन था. मुट्ठी भर लोगों को लेकर लोहिया प्रयोग अवश्य कर रहे थे, लेकिन बातें बन नहीं पा रही थीं. कर्पूरी ठाकुर लोहिया के साथ नहीं थे. 1964 में लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक धड़े जिसका नेतृत्व कर्पूरी जी कर रहे थे, का विलय हुआ और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनी, जिसे संक्षेप में संसोपा कहा गया.
यही वह समय था जब इस पार्टी ने नारा दिया – ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावें सौ में साठ.’ समाजवादी राजनीति ने सामाजिक न्याय के एजेंडे को अपना लिया था. इसके साथ एक नयी समाजवादी राजनीति की शुरुआत हुई. लोहिया और कर्पूरी ठाकुर इसके दो सितारे थे.
1967 में भारत के आठ प्रांतों के साथ बिहार में भी सत्ता परिवर्तन हुआ. कर्पूरी ठाकुर की पार्टी, जिसके विधायक दल के वह नेता भी थे, बिहार विधान सभा में सब से बड़ी पार्टी थी, लेकिन उन्हें तिकड़म से मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया गया. 63 विधायकों का नेता उपमुख्यमंत्री बना और 27 विधायकों का नेता मुख्यमंत्री. इसके पीछे की कहानी को विस्तार देने का फिलहाल कोई अर्थ नहीं है. लेकिन इससे तत्कालीन राजनीति के पेंचो-ख़म और चरित्र का परिचय तो मिलता ही है. कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बने. बाद में वह दो बार मुख्य मंत्री भी बने. लेकिन हमेशा ही एक समाजवादी कार्यकर्त्ता की धज में रहना पसंद किया.
उनका जीवन एक खुली किताब थी, जिसे कोई भी पढ़ सकता था. सत्ता की उन्होंने कभी परवाह नहीं की. जब भी देखा बुनियादी विचारों से समझौते की ज़रूरत है, उन्होंने सत्ता को तिलांजलि दी. न ही वह समाजवादी आंदोलन के सबसे बड़े नेता थे; और न ही लम्बे समय तक रहने वाले मुख्यमंत्री. सब मिलाकर मुश्किल से वह तीन-साढ़े तीन साल सरकार में रहे होंगे. उनसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले अनेक लोग हुए. लेकिन उनलोगों ने वैसी छाप नहीं छोड़ी, जैसी कर्पूरी जी ने. वह आज इस शिद्दत से याद किये जाते हैं तो इसका कारण यह है कि उन्होंने राजनीति को नए अर्थ और रंग दिए.
जब भी वह सत्ता में आये अपनी ताकत का इस्तेमाल गरीब-गुरबों के लिए किया. किसान मज़दूरों के नज़रिये से राजनीति को देखा. ‘जब तक भूखा इंसान रहेगा, धरती पर तूफ़ान रहेगा’ और ‘कमाने वाला खायेगा, लूटने वाला जायेगा’ जैसे नारे तब समाजवादी आंदोलन के नारे होते थे. राजनीति की धुरी को मेहनतक़श तबकों पर केंद्रित करना ही समाजवादियों का लक्ष्य था. कम्युनिस्ट मेहनतक़शों की तानाशाही चाहते थे, समाजवादी उनका जनतंत्र. दोनों का यही फर्क था. मेहनतक़श तबकों का अर्थ था दलित पिछड़ी जातियों के लोग.
कर्पूरी जी इनका लोकतंत्र स्थापित करने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे. 1967 की संयुक्त विधायक दल की सरकार में वह उपमुख्यमंत्री थे. शिक्षा विभाग उनके पास था. उस वक़्त स्कूलों में छात्रों को हर महीने शुल्क देना होता था. इसके कारण तेज़ी से ड्राप आउट होता था. गरीब बच्चे अर्थाभाव में स्कूल छोड़ देते थे. कर्पूरीजी ने फीस माफी कर दी.
अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण खासकर लड़कियों और किसान-मजूर परिवार के बच्चों की बीच में ही पढाई छूट जाती. नान मैट्रिक होने का उपहास वे झेलते रहते थे. कर्पूरीजी का मानना था अंग्रेजी के बिना भी कुछ क्षेत्रों में अच्छा किया जा सकता है. उनने अंग्रेजी की अनिवार्यता ख़त्म कर दी. इसे धूर्त ताकतों ने इस तरह प्रचारित किया मानों, उन्होंने अंग्रेज़ी की पढाई ही बंद करवा दी. अंग्रेजी की अनिवार्यता ख़त्म होने से शिक्षा का ज्यादा प्रसार हुआ, जो स्वाभाविक था. 1971 में कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री हुए तब अलाभकर जोतों से मालगुजारी खत्म कर दी. 1977 में मुख्यमंत्री हुए तब पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने सम्बन्धी मुंगेरीलाल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दी.
पूरे उत्तर भारत में इसी के साथ सामाजिक न्याय की राजनीति की शुरुआत हुई. इसके कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा. लेकिन वह अपनी लड़ाई से डिगे नहीं. गरीबों, मजदूर-किसानों, महिलाओं और हाशिये के लोगों को मुख्यधारा में लाना ही उनकी राजनीति का मक़सद था. उन्होंने हमेशा राजनीति को विचार और संवेदना से जोड़कर देखा. कवि मुक्तिबोध संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना की बात करते थे. कर्पूरी जी राजनैतिक प्राणी थे और उन्होंने हमेशा संवेदनात्मक राजनीति को प्रश्रय दिया. 1977 में वह मुख्यमंत्री थे, तब नगर निगम के एक सफाई कर्मचारी ठकैता डोम की पुलिस हिरासत में हत्या हो गयी. कर्पूरी जी ने मामले की लीपापोती नहीं की, जैसा कि ऐसे मामलों में सरकारें करती हैं. उन्होंने पुलिस की गलती मानी. ठकैता को उन्होंने पुत्रवत खुद मुखाग्नि दी. यह थे कर्पूरी ठाकुर.
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कहते हैं एक बार उनके मुख्यमंत्री रहते उनके पिता को गांव के मनबढ़ू सामंतों ने अपमानित किया. ज़िला मजिस्ट्रेट अपराधियों पर कार्रवाई करना चाहते थे, कर्पूरी जी ने रोक दिया. यह एक गांव की बात नहीं थी. गांव-गांव में ऐसा हो रहा था. वह ऐसे उपाय करना चाहते थे कि सामंतवाद की जड़ें सूख जाएं. कुछ हद तक उन्होंने कर दिखाया. इसीलिए कर्पूरी ठाकुर को बिहार के सामंतों ने कभी मुआफ नहीं किया. 1980 के दशक में बिहार के ग्रामीण इलाकों में जब नक्सलवादी आंदोलन गहराया, तब सामंती ताकतों के बीच से नारा उठा – ‘नक्सलबाड़ी कहां से आई; कर्पूरी की माई बिआई.’ सामंतों द्वारा घृणा का यह पुरस्कार ऐरे-गैरे नेताओं को नहीं मिलता है. इसके लिए गरीबों से प्रतिबद्धता प्रदर्शित करनी होती है.
कर्पूरी ठाकुर के चित्रों और मूर्तियों पर आज चाहे जितना माल्यार्पण हो जाय, मुझे मालूम है उनके रास्ते पर चलने का साहस कोई नहीं कर पायेगा. भूमिसुधार आयोग और कॉमन स्कूल सिस्टम के लिए गठित आयोग की सिफारिशें ठन्डे बस्ते में पड़ी हैं. न कोई इसे लागू कर रहा है, न इसे लागू करने के लिए कोई आंदोलन कर रहा है. गरीबों की चिंता किसी को नहीं है. ऐसे उदास माहौल में कर्पूरी जी कुछ ज़्यादा ही याद आते हैं.
(लेखक साहित्यकार और विचारक हैं. बिहार विधानपरिषद के सदस्य भी रहे हैं.)