करीब 25 सालों से देखा जा रहा है कि हमारी चुनावी प्रक्रिया को लेकर एक खास चलन चल पड़ा है. अगली गर्मियों में होने वाले आम चुनाव से करीब 6 महीने पहले तीन महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव हो रहे हैं, और इन्हें बड़े फाइनल से पहले का सेमी-फाइनल कहने का फैशन चल पड़ा है. लेकिन इसे ऐसा मानना गलत भी है. 2003 के बाद से हम देख रहे हैं कि ऐसे विधानसभा चुनाव आम चुनाव के नतीजे का भ्रामक पूर्वानुमान कराते रहे हैं. फिर भी, इन चुनावों में अक्सर ऐसे बड़े मुद्दे उभरते रहे हैं जो आगे के कई वर्षों तक राष्ट्रीय राजनीति पर हावी रहते हैं.
लेकिन फिलहाल जो चुनाव अभियान चल रहा है उसमें छोटे-छोटे मुद्दे ही वापस उभरते दिख रहे हैं, जो अक्सर उतने ही बेमानी हैं जितने पहले के भी कई मुद्दे रहे हैं, बल्कि कुछ तो और भी ज्यादा बेकार हैं. अगर आम चुनाव में भी ये मुद्दे ही हमारी राजनीति को परिभाषित करते रहे, तो समझ लीजिए कि हम बुरे दौर से गुजर रहे हैं.
व्यापक अर्थों में कहें, तो एक ओर सब्सिडी और मुफ्त सुविधाओं की पेशकश बुरे मुद्दे हैं, तो दूसरी ओर जातीय जनगणना और आरक्षण के कोटे में वृद्धि की पेशकश भी बुरे मुद्दे हैं.
मैं मानता हूं कि एक मतदाता को जो ‘रेवड़ी’ लगती है वह दूसरे मतदाता के लिए सशक्तीकरण का साधन है, लेकिन हमारी किताब कहती है कि सशक्तीकरण का सबसे बड़ा जरिया है— आर्थिक वृद्धि और साहसी आर्थिक सुधार. लेकिन इसके लिए चाहिए सब्र और शांति, जो आज की हमारी चौबीसों घंटे चलने वाली सियासत में नहीं है.
महज 15 साल पहले हम उस महत्वाकांक्षी मतदाता का स्वागत कर रहे थे, जो मुख्यतः धर्म और जाति की पहचान से संबंधित शिकायतों पर आधारित पिछले दो दशक की राजनीति के बाद उभरकर सामने आया था. धर्म से जुड़ी पहचान की राजनीति ने भाजपा के वोटों में बढ़ोत्तरी की, तो जाति से जुड़ी पहचान की राजनीति ने हिंदी पट्टी में ‘ओबीसी’ दलों की मदद की.
यह भी पढ़ें : ‘सरकार अच्छी, काम अच्छा, लेकिन..,’ क्या रोटी पलटने का सिलसिला राजस्थान में जारी रहेगा?
हम खुश थे कि अब (2009 के बाद से) भारत के मतदाता, खासकर युवा बेहतर भविष्य पर नजर टिका रहे हैं और बीते हुए दौर का रोना रोने की जगह भविष्य की खातिर मतदान कर रहे हैं. उम्मीदों की सियासत बदले की राजनीति को पछाड़ रही है, और यह खुशी की बात है.
भारतीय राजनीति में यह पुराना चलन रहा है कि सबसे प्रभावशाली नेता ही अपने दौर के मुद्दे तय करता है और बाकी नेता उस मुद्दे के इर्द-गिर्द अपने जवाब तैयार करने में लगे रहते हैं. भारत अपने आप में एक अनूठा लोकतंत्र इस दृष्टि से है कि वह हमेशा एकध्रुवीय रहा है. एक प्रमुख दल उस एक ध्रुव के रूप में उभरता है और बाकी सब उसके इर्द-गिर्द संघर्ष करते रहते हैं.
पहले आम चुनाव के बाद अच्छे-खासे 60 वर्षों तक हम कांग्रेस के रूप में एकध्रुवीय राजनीति के दौर में रहे. बाकी दूसरी राजनीति कांग्रेस या गांधी परिवार के विरोध की राजनीति के रूप में परिभाषित होती रही. बीच-बीच में, समाजवादी दल या हिंदी पट्टी की किसान केंद्रित पार्टियां या भाजपा की मूल पार्टी भारतीय जनसंघ विपक्षी राजनीति पर हावी रही. लेकिन वे कांग्रेस/गांधी परिवार के जवाब में कोई बड़ा मुद्दा खड़ा कर पाने में सफल नहीं हो पाईं, और न विचारधारा के स्तर पर दूसरा ध्रुव बन पाईं. 1977 में जनता पार्टी के रूप में एकजुट होकर भी वे ऐसा नहीं कर पाईं.
वह दौर 2013 की शुरुआत में नरेंद्र मोदी के उत्कर्ष के साथ समाप्त हो गया. उसके बाद से हम एकध्रुवीय राजनीति के दूसरे दौर में प्रवेश कर गए हैं. यह मोदी की भाजपा का दौर है. वे जिस तरह अपनी राजनीति और नीतियों को परिभाषित कर रहे हैं, उन्हें चुनौती देने वाले उसी का जवाब देने में लगे रहे हैं. मोदी चूंकि तीखे रूप से परिभाषित और प्रमाणित विचारधारा की पृष्ठभूमि वाले हैं, इसलिए उन्हें जवाब देना उनके विरोधियों के लिए आसान रहता है.
इन विरोधियों के बीच ज्यादा वैचारिक या राजनीतिक सामंजस्य भले न हो, एक मुद्दे पर वे एक सुर में जरूर बोल सकते हैं. वह मुद्दा है— धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा बनाम भाजपा का उसका हिंदुवादी संस्करण. लेकिन हाल के दिनों में वे इससे कतराते रहे हैं. हिंदू मतदाताओं के छिटकने की चिंता साफ दिखती है, जो कि शायद समझ में भी आती है.
मोदी के नाम पर आप वोट देते हों या नहीं, आप यह तो मानेंगे ही कि अपना मंच सजाने में वे माहिर हैं. टक्कर का बड़ा मुद्दा भी वे ही तय करते हैं. लेकिन इन चुनावों में क्या वे ऐसा कर पाए हैं? तथ्य यह है कि वे और उनकी पार्टी जिन तीन चीजों पर ज़ोर देती रही है वे हैं— सब्सिडी, बाजार में गड़बड़ी पैदा करने वाले हस्तक्षेप, और जाति तथा धर्म से जुड़े मुद्दे.
पांच विधानसभाओं के इन चुनावों में विपक्ष यानी मुख्यतः कांग्रेस भी इन व्यापक किस्म के मुद्दों या इन तीन में से पहले दो मुद्दों की बात करती रही है.
धर्म तो भाजपा के अभियान का हमेशा अपना मुद्दा रहा है. जाति के मुद्दे पर मोदी ने शुरू में तो बिहार सरकार की जाति सर्वे रिपोर्ट की निंदा की और राहुल गांधी की इस मांग की भी आलोचना की कि पिछड़ों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जाए.
गांधी जयंती (2 अक्टूबर) पर मध्य प्रदेश के ग्वालियर में चुनाव-पूर्व रैली में 19,000 करोड़ रुपये की परियोजनाओं की घोषणा करते हुए मोदी ने कहा, “(विपक्ष) पहले भी गरीबों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करता था, आज भी वही कर रहा है. तब भी वह लोगों को जाति के नाम पर बांट रहा था, आज भी वह वही पाप कर रहा है.”
इसके बाद से उनका सुर बदल गया. तेलंगाना में उन्होंने जाति को लेकर बड़ी बातें की. खासकर मडिगा जाति को लेकर, जो वहां दलितों में सबसे बड़ा समूह है (तेलंगाना के मतदाताओं में उसका अनुपात 16 फीसदी है). माना जाता है कि तेलंगाना के दलितों में इसके बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मगर काफी छोटा समूह माला है, जो सरकार से मिलने वाले लाभों का ज्यादा बड़ा हिस्सा हड़प लेता है.
यानी मोदी भी जो वादे कर रहे हैं उनमें, और जाति आधारित दलों के वादों में कोई फर्क नहीं है कि जातियों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण मिले. राजस्थान में चुनाव प्रचार करते हुए मोदी ने गुर्जर मतदाताओं को यह याद दिलाकर उकसाने की कोशिश की कि उनके नेताओं, पायलट परिवार के साथ कांग्रेस ने कैसा “बुरा बर्ताव” किया.
मोदी में सबसे उल्लेखनीय बदलाव लोगों को मुफ्त सुविधाएं देने के सवाल पर देखा जा रहा है. 16 जुलाई 2022 को पहली बार उन्होंने इन्हें “रेवड़ी” नाम देकर खारिज किया था. लेकिन 2023 के अप्रैल महीने से उन्होंने इस जुमले का सार्वजनिक इस्तेमाल नहीं किया है. और उनकी चुनावी राजनीति ने इस तरह पलटी मारी है कि उनकी सरकार अब लोगों को सब्सिडी वाला ‘भारत’ ब्रांड आटा बेचने लगी है.
कर्नाटक में लगे झटके ने शायद उन्हें और उनकी पार्टी को हिला दिया है. हमारी राजनीति का चलन रहा है कि चुनाव हारने वाला अपने अंदर झांकने की जगह बाहरी कारणों को दोष देने लगता है. वरना भाजपा को पता होता कि उसने वहां जिन बासवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठाया था उनके कुशासन का नतीजा ही उसे भुगतना पड़ा. लेकिन उसने मुफ्त सुविधाएं देने के कांग्रेस के “पांच वादों” को दोषी ठहराया.
चुनावी संकेतों को भाजपा कितनी तेजी से पकड़ती है यह इसी बात से स्पष्ट है कि मोदी द्वारा “रेवड़ी संस्कृति” की सार्वजनिक निंदा के चंद महीनों के अंदर ही उनकी पार्टी ने चुनाव वाले राज्यों में अपना अभियान मुख्यतः इसी के इर्द-गिर्द केंद्रित कर दिया. राजस्थान में भाजपा का एक पोस्टर “मोदी की गारंटी” का घोषणा करते हुए 20 वादों की सूची पेश करता दिखा, जिसमें युवतियों के लिए 2 लाख रुपये के बॉण्ड डिपॉजिट से लेकर गेहूं पर एमएसपी के बोनस के तौर पर मुफ्त में स्कूटी, गरीब छात्रों को यूनिफॉर्म के लिए सालाना 1200 रुपये देने तक के वादे शामिल हैं.
मध्य प्रदेश में उनकी पार्टी कांग्रेस द्वारा महिलाओं को मुफ्त सुविधाएं देने के वादों से इतनी चिंतित हुई कि उसने भी वादे करने में कांग्रेस की लगभग पूरी नकल कर डाली. पतन की इस होड़ में हमें कांग्रेस का यह वादा उम्मीदों को जगाने वाला नजर आता है कि वह मध्य प्रदेश के लिए भी आईपीएल की एक फ्रैंचाइजी बनाएगी.
हम कह सकते हैं कि इन विधानसभा चुनावों और आगामी आम चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहेगा. लेकिन यह पहला मौका है जब उसने विपक्ष के जवाब में अपना आजमाया हुआ और कामयाब चुनावी सुर बदल दिया है. यह जाति, और कभी निंदित की गई “रेवड़ी संस्कृति” के मुद्दों पर उसके रुख से स्पष्ट है.
यह एक असामान्य बात ही है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी ने इन चुनावों में बिना किसी बड़े ‘आइडिया’ के अपना अभियान चलाया है. वैसे, किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना भी एक बड़ा आइडिया हो सकता है.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें : तेज़ गेंदबाज़, फिटनेस और ‘सिस्टम’— क्रिकेट में भारत पहली बार ऐसी ‘नीली क्रांति’ देख रहा है