कांग्रेस-जनता दल (सेकुलर) गठबंधन की तेरह महीने पुरानी एचडी कुमारस्वामी सरकार को अपदस्थ करने के लिए कर्नाटक में इन दोनों ही पार्टियों के विधायकों के इस्तीफों और उन्हें लेकर अफवाहों आदि के रूप में जो कुछ घटित हो रहा है, वह न अप्रत्याशित है और न अभूतपूर्व.
अप्रत्याशित इसलिए नहीं कि वहां ऐसे अघटनीय घटनाक्रमों की आशंका तभी से जताई जाने लगी थी. जब बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के पतन के फौरन बाद 23 मई, 2018 को यह सरकार अस्तित्व में आई. गत लोकसभा चुनाव में केन्द्र में नरेन्द्र मोदी व भाजपा की ‘शानदार’ वापसी के बाद तो वैसे इसका कोई भी दिन अंतिम माना जाने लगा है. इसके दो बड़े कारण हैं. पहला यह कि नरेन्द्र मोदी ने अपने पांच साल के पहले कार्यकाल में विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में जहां तक संभव हुआ, इस ‘सिद्धांत’ को लागू करने में कुछ उठा नहीं रखा कि उनकी पार्टी जनादेश मिलने पर तो सरकार बनाएगी ही, नहीं मिलने पर भी बनायेगी. भले ही उसे इसके लिए जनादेश का आपराधिक अपहरण और राज्यपालों के पदों का भयावह दुरुपयोग क्यों न करना पड़े. इसे लेकर व्यापक लानत-मलामत के बावजूद मोदी ने अपना रास्ता नहीं बदला और भाजपा के लिए ‘सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का’ वाली स्थिति बनाये रखी. याद रखना चाहिए कि उनके इस सिद्धांत को पहली निर्णायक मात इसी कर्नाटक में ही मिली थी.
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दूसरा कारण यह कि वे अपनी पश्चिम बंगाल की सभाओं में बार-बार कह रहे थे कि वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के अनेक विधायक भाजपा में शामिल होने की लाइन में लगे हैं और चुनाव नतीजे आते ही ममता का तख्ता पलट जाने वाला है, तो उसके निहितार्थों को कर्नाटक में भरपूर सुना और समझा जा रहा था. वह तो उनका उतना कस-बल नहीं चला, वरना कर्नाटक जैसा नाटक हम पहले पश्चिम बंगाल में भी देखते.
यह घटनाक्रम अप्रत्याशित इसलिए नहीं है कि इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास में सत्ता पर कब्जे के खेल में ऐसे ‘तू डाल-डाल तो मैं पात-पात’ और पालाबदलों का इतिहास बहुत पुराना है और उसमें ऐसी कई कड़ियां हैं, जिनके आगे कर्नाटक के राजनीतिक नाटकों के सारे अंक पानी भरते नजर आयें. प्रसंगवश, हरियाणा के जनता पार्टी के मुख्यमंत्री भजनलाल ने 22 जून, 1980 को अपनी समूची सरकार का दलबदल कराकर उसे कांग्रेस में शामिल करा डाला था, क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि अन्यथा 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के हाथों हुई हार का करारा बदला लेकर फिर प्रधानमंत्री बनी श्रीमती इंदिरा गांधी उनकी सरकार को बर्खास्त करा देंगी.
इससे पहले 1967 में हरियाणा की हसनपुर विधानसभा सीट से निर्वाचित विधायक गयालाल ने 24 घंटे के अंदर तीन बार दलबदल का रिकॉर्ड बनाया था. वे कांग्रेस से युनाइटेड फ्रंट में गए, फिर कांग्रेस में लौटे और फिर नौ घंटे बिताये बिना यूनाइटेड फ्रंट में वापस हो गए. फिर तो ‘आयाराम गयाराम’ दलबदल का मुहावरा ही बन गया. यों, गयालाल के समर्थक कहते हैं कि ‘आयाराम गयाराम’ का मुहावरा हरियाणा में ही भिवानी की लोहारू विधानसभा सीट के विधायक रहे हीरानंद आर्य पर ज्यादा फिट बैठता है, जिन्होंने सात बार दल बदला था.
1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी प्रधानमंत्री हुए तो उन्होंने इस ‘आयाराम-गयाराम’ को रोकने के लिए कई कड़े प्रावधानों वाला दलबदल निरोधक कानून बनाया. लेकिन, सत्ता और उसके लाभों के लोभी सांसदों व विधायकों ने जल्दी ही उसे विफल करने की जुगत और तिकड़में भी खोज निकालीं. कर्नाटक में विधायकों के इस्तीफों से जुड़ा ताजा राजनीतिक घटनाक्रम गवाह है कि उक्त कानून भी उनका रास्ता नहीं ही रोक पाया है. उनका तो एकदम से नहीं जो उनकी लोभ-लाभ की परदे के पीछे चलते रहने वाली ‘योजनाओं’ के नियंता और सूत्रधार हैं.
आखिरकार, दलबदल निरोधक कानून के तहत विधायकों या सांसदों को इस पार्टी से उस पार्टी में जाने से ही तो रोका जा सकता है. वे ज्यादा चालाकी बरतकर विधायकी या सांसदी ही छोड़ देने पर उतर आयें, तो उस पर तो नहीं लागू किया जा सकता. उसे ऐसे में अगर कोई पार्टी या गठबंधन इतने कमजोर वैचारिक आधार वाले विधायकों को चुनवाकर लाया है. जो इन लोभों व लाभों की स्वार्थ साधना में जरा-सा अवसर दिखते ही घात लगाये बैठे प्रतिद्वंद्वियों के हाथों खेलने लगते हैं और लोकतंत्र की सारी सुविधाओं से लैस प्रतिद्वंद्वियों को लोकलाज तनिक भी नहीं सताती, तो संबंधित पार्टी या गठबंधन को वह मुहावरा याद दिलाने के अलावा क्या कहा जा सकता है. जिसमें पूछा जाता है कि बकरे की मां कितने दिन खैर मना सकती है?
यहां याद किया जा सकता है कि पिछले दिनों राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देते हुए जो पत्र लिखा, प्रकारान्तर से उसमें भी इस कमजोरी की ओर संकेत किया है. उन्होंने लिखा है, ‘भारत में आदत है सत्ता से चिपके रहने की. कोई सत्ता की कुर्बानी नहीं देना चाहता और विरोधियों को बिना कुर्बानी के हराया नहीं जा सकता.’ आप कह सकते हैं कि अगर यह स्थिति है, तो इसके बनने में स्वयं राहुल और उनकी पार्टी का भी कुछ कम योगदान नहीं है. एक विश्लेषक के शब्द उधार लें तो ‘2014 से 2019 के बीच जितनी बड़ी संख्या में कांग्रेस के नेता भाजपा में शामिल हुए. उससे पता चलता है पार्टी के लोग वैचारिक रूप से कितने कमजोर थे. अब तक वे सिर्फ इसलिए कांग्रेसी थे, क्योंकि सत्ता कांग्रेस की थी. इसीलिए सत्ता हाथ से निकलते ही कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा घ्वस्त हो गया और उसके मलबे की ईंटों ने सत्तापक्ष की दीवारों में लग जाना पसंद किया.’
ऐसे में यह सवाल भी अपनी जगह है ही कि अगर 1980 में शक्तिशाली कांग्रेस ने भजनलाल की पूरी सरकार के दलबदल का इसलिए ‘हार्दिक स्वागत’ किया था कि वह उसके पक्ष में था और तब उसके सुनहरे दिन थे. तो अब 2019 में उसके दुर्दिन में उसकी प्रतिद्वंद्वी भाजपा, जो तेजी से उसका रूप लेती और उससे ज्यादा ‘शक्ति’ अर्जित करती जा रही है, उसके इस आरोप को क्योंकर कान दे सकती है कि उसने संविधान का चीरहरण करते हुए लोकतंत्र को बाजार बना डाला है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चाहें तो, अपने पुराने शगल के अनुसार, तमककर कह सकते हैं कि इस बाजार की परम्परा तो उन्हें कांग्रेस से ही विरासत में मिली है और वे उसी को समृद्ध कर रहे हैं.
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यों, कर्नाटक में उनके सिपहसालार अभी तक यही कह रहे हैं कि उनकी पार्टी द्वारा ‘ऑपरेशन लोटस’ चलाये जाने की बात मीडिया ने गढ़ी है और कांग्रेस व जेडीएस विधायक इन दोनों पार्टियों की अंदरूनी कलह के कारण ‘स्वेच्छा’ से इस्तीफे दे रहे हैं. उनकी मानें तो राज्य के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया नहीं चाहते कि कुमारस्वामी की सरकार चले.
राज्य में कांग्रेस व जेडीएस के बीच जैसे रिश्ते हैं. उनके मद्देनजर यह बात सच भी हो सकती है. लेकिन भाजपाई सिपहसालार इस सवाल का जवाब नहीं देते कि क्या सिद्धारमैया राज्य में भाजपा की सरकार बनवाना चाहते हैं और क्या इस्तीफा देने वाले विधायकों को भाजपा शासित महाराष्ट्र भी सिद्धारमैया ही ले गये हैं?
पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बीएस येदियुरप्पा की इस बात पर तो कौन न मर जाये ऐ खुदा कि उन्होंने कुछ विधायकों के इस्तीफों की बाबत सुना भर है. भले ही राजनीतिक हलकों में उनके इस्तीफों के पीछे की सारी तिकड़में उन्हीं की बताई जा रही हैं. मुख्यमंत्री की जो कुर्सी जनादेश से नहीं हासिल कर पाये, उसे यों पाने के लिए. इसीलिए वे साफ कहते हैं कि मध्यावधि चुनाव सरकारी खजाने पर बोझ होंगे. इसलिए विधायकों के इस्तीफों के बाद जैसे ही कुमारस्वामी सरकार गिरे, मध्यावधि चुनाव के विकल्प से आंखें चुराकर उनका राज्याभिषेक कर दिया जाये. खूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं, साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं.
लेकिन, अप्रत्याशित या अभूतपूर्व न होने के बावजूद यह संकट सिर्फ कर्नाटक या कुमारस्वामी सरकार का न होकर सारे देश का और सारे लोकतंत्रकामियों की चिंता का विषय है. इस कारण ज्यादा बड़ा कि देश के सिंहासन पर आरूढ़ भारतीय जनता पार्टी लाख कोशिशें करके भी इसमें अपनी भूमिका नहीं छिपा पा रही. इसलिए, कुमारस्वामी सरकार अपदस्थ हो जाये या बची रहे, यह संकट इस सवाल के जवाब की मांग भी करता है कि राजनीतिक लोभ-लाभ के खेल के सूत्रधार कम तक हमारे लोकतंत्र की शर्तें और उसका भविष्य तय करते रहेंगे? अरुणाचल प्रदेश से शुरू हुए जनादेष की मनमानी व्याख्या औ छिनैती के सिलसिले को कहीं न कहीं तो थमना चाहिए. इस कुतर्क को आखिर कब तक तर्क की तरह इस्तेमाल होने दिया जा सकता है कि कांग्रेस ने अपने सत्ताकाल में ऐसा किया था, इसलिए भाजपा को ऐसा करने का अधिकार है.
काश, प्रधानमंत्री की पार्टी के लोग नहीं तो वे खुद तो समझते कि नई सरकारें बुराइयों को दूर करने और हालात बदलने के लिए होती है, उनका औचित्य सिद्ध करने और कोढ़ में खाज पैदा करने के लिए नहीं. उनकी पार्टी और शक्ति का किसी भी स्तर पर विरोधी दलों की सरकारों को अस्थिर या अपदस्थ करने के लिए इस्तेमाल उनकी नैतिक आभा को बढ़ाता नहीं बल्कि उसे हीन ही करता है.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)