पिछले पांच वर्षों में नेतृत्वहीन विपक्ष की वजह से कुछ स्व-निर्मित युवा नेताओं का उभार मौजूदा राजनीतिक दलों से बाहर हुआ है. इनमें कन्हैया कुमार, उमर खालिद, शेहला राशिद, जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल और चंद्रशेखर आजाद शामिल हैं. वे 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद राष्ट्रीय राजनीति से दूर हो चल रहे हैं. इन नेताओं से कहां गलती हो गई? यह देखते हुए विपक्ष में केवल नेतृत्वविहीनता बढ़ी है, वे प्रभाव क्यों नहीं डाल रहे हैं?
इन सभी में से जिसने सबसे अधिक प्रभाव पैदा किया, वह हैं कन्हैया कुमार. कन्हैया ने सबसे ज्यादा उम्मीद जगा दी थी, वह सबसे अधिक निराशाजनक साबित हुए.
अवसर गंवा दिया
कन्हैया कुमार की कम समय में उपलब्धि आश्चर्यजनक थी. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक वामपंथी छात्र नेता, जिसे एक दक्षिणपंथी सरकार ने देश विरोधी होने के आरोप में जेल में डाल दिया था. कन्हैया जेल से बाहर आते हैं और एक यादगार भाषण देते हैं, जो उनके ऊपर ‘राष्ट्र-विरोधी’ होने का आरोप लगाता है. अगर विपक्ष के पास केवल एक ऐसा ही वक्ता होता, तो भारतीय राजनीति आज बहुत अलग होती.
कन्हैया तुरंत प्रसिद्ध हो जाते हैं और वाम-उदारवादी गुट का हिस्सा बन जाते हैं. वह हर चैनल, मीडिया के कॉन्क्लेव, हर बड़ी घटना पर, बीजेपी के प्रवक्ताओं और समर्थकों के साथ बहस करते हुए और अक्सर उनको चुप कराते हुए नज़र आते हैं.
कन्हैया भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के गढ़ और अपने गृह नगर बेगूसराय से जीतना चाहते थे.
बेगूसराय से हारने के बाद वह अब गायब हो गए हैं, जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि वह बिहार और बंगाल में सीपीआई को बढ़ावा दे रहे हैं. उन्होंने तत्काल चुनावी राजनीति को छोड़ दिया है. वह एक अभिजात वर्ग की पार्टी को नहीं छोड़ना चाहते हैं, क्योंकि यह परिवार है और वह इसे फिर से पुनर्जीवित करने के लिए नेतृत्व करने को तैयार नहीं है. यह कितना बेकार है.
समस्या यह नहीं थी कि कन्हैया अपनी उम्र में बहुत महत्वाकांक्षी थे, दो स्थापित पार्टियों के उम्मीदवारों के खिलाफ लोकसभा सीट जीतना चाहते थे. समस्या यह थी कि वह पर्याप्त महत्वाकांक्षी नहीं थे और वह अब भी नहीं हैं.
एक व्यक्ति राष्ट्रीय राजनीति में प्रसिद्ध हो जाता है, उसके बाद वह लोकसभा सीट चाहता है? ऐसे तमाम लोकसभा सांसद हैं जिनको अधिकांश लोग सड़कों पर नहीं पहचानते हैं, कभी-कभी तो उनके निर्वाचन क्षेत्रों में भी नहीं पहचानते हैं.
बड़े पैमाने पर सोच रहा था
कन्हैया कुमार 2016 के बाद कुछ बड़ा करने का लक्ष्य रख सकते थे. वह पूरे विपक्ष का स्थान लेते हुए एक राष्ट्रीय आंदोलन शुरू कर सकते थे. वह मुख्यधारा की पार्टी में शामिल हो सकते थे, यहां तक कि अपनी पार्टी भी बना सकते थे या सैद्धांतिक रूप से, यहां तक कि सीपीआई को पुनर्जीवित कर सकते थे. वह अरविंद केजरीवाल हो सकते थे. अगर राष्ट्रीय राजनीति नहीं तो वह बिहार की राजनीति के लिए लक्ष्य बना सकते थे, लेकिन कन्हैया कुमार क्या चाहते हैं? सिर्फ एक लोकसभा सीट?
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कन्हैया ने अपनी नई-नई ख्याति और अपने उत्कृष्ट वक्तृत्व कौशल को अच्छे राजनीतिक उपयोग में लाने के बजाय खुद को टीवी, बॉलीवुड और सोशलाइट वामपंथियों के हाथों का खिलौना बनने दिया. अब भी वह अक्सर अपने सेलिब्रिटी दोस्तों के साथ घूमने के लिए मुंबई जाते हैं. एक राजद नेता ने बताया 2019 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी के नेताओं ने कन्हैया को अहंकारी पाया. कम उम्र में सेलिब्रिटी शख़्सियत को संभालना मुश्किल है. ज्यादातर लोग इसे संभालने के लिए संघर्ष करते हैं.
बॉलीवुड और सीपीआई के साथ अपना समय बर्बाद करने के बजाय कन्हैया कुमार का बिग बॉस के घर में प्रवेश करना बेहतर होगा. वैकल्पिक रूप से वह अब भी आंदोलन का नेतृत्व करने और उनके चारों ओर एक संरचित अभियान बनाने के लिए अपनी प्रसिद्धि और वक्तृत्व शैली का उपयोग कर सकते हैं. यदि वह ऐसा करते हैं तो वह देश के राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में सफल हो सकते हैं. लेकिन इस तरह से सोचने के लिए आपको महत्वाकांक्षी होने की आवश्यकता है. कन्हैया इस तरह से तभी सोचेंगे जब वह बिहार के मुख्यमंत्री या भारत का प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते हैं, वरना वह 545 लोकसभा सांसदों में से एक संसद बनना चाहते हैं.
कांग्रेस से भीख मांगना
महत्वाकांक्षा की कमी और अन्य युवा नेताओं का बड़े पैमाने पर सोचने की असमर्थता, जैसे जिग्नेश मेवानी ने गुजरात में ऊना आंदोलन के साथ राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की थी, वह रोहित वेमुला की मौत का बदला लेने के लिए खुद को दलित युवाओं के चेहरे में बदल सकते थे.
2017 के गुजरात चुनाव में कांग्रेस चाहती थी कि हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश ठाकोर के कंधों पर उनका चुनाव अभियान खड़ा हो. इसलिए, जिग्नेश को एक निर्दलीय के रूप में जीतने के लिए कांग्रेस ने अपने गढ़ में एक सीट खाली कर दी. इससे उत्साहित जिग्नेश चाहते थे कि कांग्रेस उन्हें लोकसभा सीट गिफ्ट करे. उन्होंने महीनों दिल्ली में डेरा डाले रखा. लेकिन, एक स्वतंत्र कार्यकर्ता को टिकट देने से कांग्रेस को क्या मिलेगा जो पार्टी में शामिल होने से इंकार कर रहा है.
जिग्नेश ने गुजरात में जिस तरह से काम किया था अगर वह राष्ट्रीय स्तर पर करते तो कांग्रेस को एक बार फिर से ब्लैकमेल किया जा सकता था, एक के बाद एक वह किसी भी अभियान को पूरा करने में असमर्थ थे और उन्हें अक्सर दिल्ली-अहमदाबाद उड़ानों पर देखा जाता सकता था.
लापता: रणनीति
उसी तरह, उमर खालिद एक वामपंथी होने के साथ मुस्लिम भी हैं, एक सेक्युलर ओवैसी के रूप में वह संवैधानिक अधिकारों के लिए मुसलमानों की आवाज बन सकते हैं. वह सिर्फ अपने मुस्लिम नाम के अलावा युवाओं के मुद्दों को उठाने के लिए एक युवा नेता बन सकते हैं. रणनीति को पहले स्थान पर एक रणनीति की आवश्यकता होती है. इसके लिए योजना, पैमाना, आंदोलन, अभियान, क्राउडफंडिंग और महत्वाकांक्षा की जरूरत होती है.
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शेहला रशीद सबसे नायाब कश्मीरी युवा नेता होनी चाहिए, अन्य कश्मीरी राजनेताओं की तरह जेल जाने से एक नेता के रूप में अपनी साख को बचाने की बजाय उन्होंने चुनावी राजनीति को छोड़ना चुना. कश्मीर के लिए खान मार्केट छोड़ना एक घटना है जिसकी घोषणा उन्हें ट्विटर पर करनी पड़ी.
हार्दिक पटेल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं और अब जब पटेल जाति की राजनीति खत्म हो गई है, तो उन्हें पता नहीं है कि क्या करना है. अगर वह आंदोलनकारी चुनाव प्रचार के लिए अपने कौशल का उपयोग कर सकते हैं और ‘रुर्बन’ गुजराती युवाओं की आवाज़ बन सकते हैं, तो वह खुद को सीएम चेहरे के रूप में पेश कर सकते हैं. लेकिन वह अब कांग्रेस में है, कांग्रेस की संस्कृति को ध्यान में रखते हुए वह चुनावों से दो हफ्ते पहले ही चुनाव प्रचार शुरू करेंगे.
भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद ने कांग्रेस में शामिल हुए बिना कांग्रेस की संस्कृति को भी हवा दे दी. कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा चुनाव में सहारनपुर में पार्टी की संभावनाओं को बर्बाद नहीं करने के लिए कहा और वे सहमत हो गए. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत भाजपा सरकार द्वारा जेल में डाले गए एक दलित युवा नेता ने पूरे उत्तर प्रदेश में अपने लिए एक जनसमर्थन आधार बनाने के लिए खुद को राजनीतिक पीड़ित के रूप में इस्तेमाल किया. लिहाजा चंद्रशेखर आज़ाद ने सहारनपुर के अपने घरेलू मैदान पर भी खुद को अप्रासंगिक बना लिया.
हमारे मुख्यधारा के विपक्षी दलों में कोई जान नहीं दिख रही है, अगले पांच वर्षों में विपक्ष का अभाव और अधिक स्पष्ट होने की संभावना है. 1990 के दशक की शुरुआत से नए नेताओं के सामने आने का इससे बेहतर समय नहीं हो सकता है.
हार्दिक पटेल केवल 26 वर्ष के हैं और अन्य नेता 30 के आस-पास के हैं. वे अब भी महत्वाकांक्षा और बड़े पैमाने पर खुद को मजबूत कर सकते हैं.
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